यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

उच्च न्यायालय के फैसले के बाद बातचीत से मामले को सदा के लिए सुलझा लेने में ही समझदारी है

इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ ने अंतत: अपना फैसला सुना दिया। 60 वर्ष से अधिक
समय तक चले मुकदमे के फैसले के इंतजार में तो पूरा देश ही था। रायपुर में
ही साढ़े 3 बजते बजते पूरा बाजार बंद हो चुका था ओर फैसले का इंतजार लोग
अपने घरों में बैठकर टीवी के सामने कर रहे थे। हृदय की धड़कनों की गति
में वृद्घि होना तो एकदम स्वाभाविक था लेकिन जैसे ही फैसले का पता चला,
एकदम से सारा तनाव समाप्त हो गया। रामलला को रामजन्मभूमि मिल गयी तो
निर्मोही अखाड़े को राम चबूतरा, सीता की रसोई और भंडार। सुन्नी वक्फ
बोर्ड को भी जमीन का एक तिहाई हिस्सा मिल गया। फैसले का शांति से
विश्लेषण करें तो स्पष्ट दिखायी देता है कि सभी के हक को न्यायालय ने
स्वीकार किया। एक स्वर से खंडपीठ के तीनों जजों ने रामजन्म भूमि को
स्वीकार किया। जहां रामलला की मूर्ति विराजमान है, उसे भगवान की जन्मभूमि
मानने में किसी भी जज को हिचक महसूस नहीं हुई।

पुरातत्व विभाग की जांच से स्पष्ट हो गया कि मस्जिद के पहले वहां पर
मंदिर था। क्योंकि वहां मंदिर का ढांचा नींव में मौजूद था। इससे जजों को
निर्णय करने में झिझक नहीं हुई कि करोड़ों हिंदू जिस स्थान को भगवान राम
की जन्मभूमि मानते हैं, वह मात्र आस्था का ही मामला नहीं है। आस्था का
मामला तो है लेकिन साथ ही साथ प्रमाण भी स्पष्ट करते हैं कि मंदिर के
स्थान पर मस्जिद बनायी गयी थी। अब यह सर्वसम्मति का विषय भले ही न हो कि
मंदिर तोड़कर मस्जिद बनायी गयी या मंदिर के ढांचे  पर मस्जिद बनायी गयी
लेकिन पुरातात्विक साक्ष्यों की रोशनी में वहां मंदिर के अवशेष तो मिले
ही हैं। यह भारत में ही संभव है कि अंदर भवन में नमाज पढ़ी जाती थी तो
बाहर चबूतरे पर रामलला की पूजा की जाती थी। किसी तरह का विवाद नहीं था।
इस फैसले के बाद अब किसी तरह का विवाद शेष नहीं रह जाना चाहिए। यह बात
दूसरी है कि फैसले से असंतुष्ट पक्ष उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता
है लेकिन अच्छा तो यही है कि विवाद समाप्त कर आपसी सौहाद्र्र से भाई चारे
को बढ़ाने वाला काम किया जाए।

सर्वोच्च न्यायालय में भी अपील दायर होने पर सिर्फ समय ही लगेगा। राम
मंदिर बनने के लिए लोगों को इंतजार करना पड़ेगा और तो कुछ होने से रहा।
उच्च न्यायालय का राम जन्मभूमि के संबंध में फैसले के बाद क्या यह संभव
दिखायी देता है कि रामलला को वहाँ  से हटाया जा सके? जब यह संभव नहीं है
तो सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने से लाभ क्या है? उच्च न्यायालय के
फैसले के बाद देश में अमन, सदभाव रहे, इसकी ज्यादा जरूरत है और यह दोनों
पक्ष की जिम्मेदारी भी है कि वे या तो फैसले को अक्षरश: मानें या फिर
समझदारी पूर्ण रास्ता निकालें। तीन माह का जो समय न्यायालय ने यथास्थिति
कायम रखने के लिए दिया है, उसका सदुपयोग करें। इस मामले को समानजनक ढंग
से समाप्त करने के लिए यह समय सबसे अच्छा है। जब सभी पक्ष हार जीत के रूप
में निर्णय को नहीं देख रहे हैं तब मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने का
भले ही अधिकार हो लेकिन ले जाने का अर्थ तो यही होना चाहिए कि इस
प्रक्रिया से भाईचारे में वृद्घि होगी।

हिंदू नेता मांग कर ही रहे हैं कि मुसलमान सहयोग करें। भव्य राम मंदिर
बनाने के लिए साथ मिलकर चलें। यही एकमात्र सदभाव बढ़ाने वाला रास्ता भी
दिखायी देता है। एक हिंदू धर्माचार्य ने कहा है कि वक्फ बोर्ड एक तिहाई
भूमि छोडऩे को तैयार हो तो उसे दोगुनी जमीन अयोध्या में मस्जिद निर्माण
करने के लिए वे देने को तैयार हैं। शांति और धैर्य से विचार करेंगे तो
प्रस्ताव ठुकराने जैसा नहीं है क्योंकि भगवान राम की हिंदुओं के लिए क्या
महत्ता है, यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है। कभी इस देश में नारा लगाने
वाले कि शपथ राम की हम खाते हैं कि मंदिर वहीं बनाएंगे, वे भी विनम्रता
पूर्वक कह रहे हैं कि यह हार जीत का मामला नहीं है। व्यवहार में यह बदलाव
सभी के लिए स्वागत योग्य तो होना ही चाहिए। सौहार्द्र, प्रेम के लिए बढ़े
हाथ को थामना ही भारतीय संस्कृति रही है।

आज सभी भारतीयों के सामने भविष्य को लेकर चुनौतियां खड़ी है। भावी पीढ़ी
के लिए ऐसा बीजारोपण करने की जिम्मेदारी वर्तमान पीढ़ी पर ही है कि उनकी
संतानें दुनिया में उपलबध सभी सुख सुविधाओं का उपभोग तो करें ही, साथ ही
भाईचारे की मिसाल भी बनें। आज दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति
भारत है। भारत को आगे और आगे जाना है। जिससे सभी भारतीय भारत की समृद्घि
का फल प्राप्त कर सकें। लड़ाई, झगड़ा, वैमनस्यताएं सब गुजरे जमाने की बात
हो जाना चाहिए। भावी पीढ़ी इतिहास पढ़े तो उसे आश्चर्य होगा कि हमारे
पूर्वज किस तरह से अपनी शक्ति का अपव्यय किया करते थे। जिन मामलों को
बातचीत से सुलझाया जा सकता था, उसे वर्षों न्यायालय में ही लड़ते थे। यह
सही समय है जब सब मिलकर नए इतिहास का सृजन कर सकते हैं। भाईचारे का देश
को ही नहीं दुनिया को संदेश दे सकते हैं। हमें ही सिद्घ करना है कि हम
समझदार हैं और अपने विवाद निपटाना जानते हैं।

बहुत पुरानी बात नहीं है। सब कुछ हमारा देखा हुआ है। जिनके घरों के चिराग
बुझ गए, विवादों में, उनकी तरफ भी दृष्टि डालनी है। जब राम मंदिर वहां
बनना ही है तो उसमें विलंब करने से क्या लाभ ? कल फैसला आने के बाद
भारतीयों ने जिस परिपक्वता का परिचय दिया है, वह बेमिसाल है। हमारी सारी
कोशिश इस सदभावना को बढ़ाने की होनी चाहिए। ईश्वर को कौन किस तरह से याद
करता है, इससे फर्क क्या पड़ता है? आखिर तो सभी उसी परम पिता परमेश्वर की
संतान हैं। उसे अपनी संतानों को पे्रमपूर्ण देखकर खुशी होगी या फिर लड़ते
झगड़ते देखकर और वह भी उसी के नाम पर।

न्यायालय ने तो अपना काम कर दिया है। अब उसे स्वीकार करना या आगे के
न्यायालय में जाना या नहीं जाना, यह विचार का विषय दोनों तरफ की
पार्टियों पर है। 60 वर्ष में कितने ही जजों ने मामले को सुना। कितने ही
वकीलों ने न्यायालय में जिरह की। कुछ तो शरीर छोड़कर भी जा चुके। अब
फैसला आया है। करीब 10 हजार पृष्ठों का फैसला है। एक जज ने तो पूरी जमीन
रामलला की मानी है। बाकी दो जजों ने भी राम जन्मभूमि तो उसी जगह को माना
है। फैसला तो यही होना था कि वह राम जन्मभूमि है या नहीं और फैसला
सर्वसम्मति से यही आया है कि वह जमीन जन्मभूमि  रामलला की है। इसके बाद
विवाद समाप्त हो जाना चाहिए। वक्फ बोर्ड के वकील जिलानी ने बार बार कहा
है कि वे न्यायालय के फैसले को मानेंगे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम
फैसले को। सर्वोच्च न्यायालय फैसला तुरंत भी पूर्ण पीठ के द्वारा कर सकता
है और प्रक्रिया से चलें तो वर्षों लग सकते हैं। अभी उच्च न्यायालय के
फैसले को ही रोकने की कम कोशिश नहीं की गई। इस कोशिश में राजनीति का भी
हाथ होने की बातें कही गयी लेकिन अंतत: सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही
उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। अब फैसला आ गया है तो आपसी समझदारी
से मामले को समाप्त करवा लेना चाहिए। अक्लमंदी का तो यही तकाजा है।

- विष्णु सिन्हा
01-10-2010