यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

दो चार हमलों में नक्सली इसी तरह से मारे जाते रहे तो उनमें भगदड़ भी मच सकती है

अब वह पुरानी पुलिस व्यवस्था छत्तीसगढ़ में नहीं है। जब नक्सलियों ने
आसानी से बस्तर में अपने पैर जमा लिए थे। नक्सलियों के क्षेत्र विस्तार
की योजना पर लगाम लगाने की क्षमता पुलिस में अब आ गयी है। फिर बस्तर में
आदिवासियों को रिझाने के लिए नक्सलियों ने जो रुप धरा था, वह नए क्षेत्र
में काम आने वाला नहीं है। नक्सलियों की बंदूक डरा तो सकती है, आम आदमी
को लेकिन उनका समर्थक नहीं बना सकती। ईमानदारी से देखे तो नक्सलियों की
छवि जनमानस में हित चिंतक की न होकर दुख चिंतक की है। जहां-जहां पैर पड़े
नक्सलियों के वहां-वहां बंठाधार। लोग चौकन्ने हैं और नक्सलियों की आहट
मिलते ही पुलिस को खबर लग जाती है कि नक्सलियों ने क्षेत्र में प्रवेश
किया। कल पुलिस के द्वारा घेर लिए गए नक्सलियों के आत्मसमर्पण न कर लडऩे
की मंशा से फायरिंग की तो नुकसान जान का नक्सलियों को ही उठाना पड़ा। खबर
है कि 8 नक्सली मुठभेड़ में मारे गए और पुलिस सर्चिंग में भी शव मिल रहे
हैं। नक्सली बच निकलने के लिए रास्ते की तलाश कर रहे हैं, ऐसा भी समाचार
है।

सियार जब तक जंगल में रहता है तब तक ही सुरक्षित रहता है लेकिन उसकी मौत
आती है तो वह शहर की तरफ भागता है। नक्सलियों ने बस्तर के बाहर अपने पैर
फैलाने का प्रयास प्रारंभ किया है। वे राजधानी रायपुर के निकट से निकट
अपना प्रभाव क्षेत्र बनाना चाहते हैं। वे इक्का दुक्का घटनाओं को अंजाम
देने में भले ही सफल हो जाएं लेकिन वे पुलिस से बच नहीं पाएंगे। न तो
बस्तर की तरह दुर्गम क्षेत्रों का मामला है और न ही भाषा की ही समस्या
है। इसके साथ ही कोई नहीं चाहता कि उनके क्षेत्र में नक्सली दखल दें। आम
आदमी के शांति के स्वभाव से हिंसा नक्सलियों की मेल नहीं रखती। इसके साथ
ही हर क्षेत्र में विगत 7 वर्षों में विकास ने आहट की है। लोगों का सुख
चैन बढ़ा है और वे अच्छी तरह से जानते हैं कि नक्सलियों की घुसपैठ का
अर्थ उनके सुख और शांति प्रिय जीवन को हिंसा और अशांति घर बना लेगी।
नक्सली कुछ दे तो सकते नहीं। छीन अवश्य सकते हैं। नक्सलियों के आगमन के
साथ पुलिस की आवक बढ़ेगी और फलस्वरुप सिवाय हिंसा  और अशांति के कुछ नहीं
मिलना है। बस्तर में जिस तरह शुभचिंतक, हितैषी बनकर नक्सली घुसे और बाद
में लोगों को समझ में आया कि वास्तव में नक्सलियों को आश्रय देकर लोगों
ने अपने साथ क्या अनर्थ कर लिया तब तक मामला हाथ से निकल चुका था। सरकार
की तरफ से नक्सलियों को मिली खुली छूट और उनके रहमोकरम पर रहने को विवश
लोगों के पास इसके सिवाय चारा भी नहीं था कि वे चुपचाप नक्सलियों के कथित
न्याय को बर्दाश्त करें। जन अदालत लगा कर फैसला करना और जिसे अपराधी
समझें नक्सली उसे अमानुषिक सजा देना नियति बन गया था। लाठियों से पीट पीट
कर मार डालना। गला रेत कर मार डालना। महिलाओं की इज्जत का सुरक्षित न
रहना, यह सब जिनका न्याय हो, उसे कब तक कोई बर्दाश्त कर सकता।
आखिर डॉ. रमन सिंह के रुप में एक मुख्यमंत्री मिला तो नक्सलियों का विरोध
प्रारंभ हो गया। डॉ. रमन सिंह की भी मजबूरी थी। उन्हें विरासत में ऐसी
पुलिस मिली थी, जो वास्तव में नक्सलियों से लडऩे की न तो क्षमता रखती थी
और न ही सोच। एक तरह से पुलिस ने भी नक्सलियों के समक्ष आत्मसमर्पण किया
हुआ था। एक संवेदनशील व्यक्ति आदिवासियों की व्यथा से व्यथित होकर
नक्सलियों के विरुद्ध खड़े होने के लिए बाध्य हुआ। तब परत दर परत राज
खुलने लगा कि नक्सलियों का रक्षा कवच कितना तगड़ा है और यह एक राज्य की
समस्या नहीं है। पशुपति से तिरुपति तक फैला इनका जाल काटना किसी एक राज्य
के मुख्यमंत्री की बात नहीं है। फिर ऐसी पुलिस के भरोसे जो शहर में तो
अपराधी को पकड़ नहीं सकती, वह दुर्गम जंगलों में हथियारबंद नक्सलियों से
कैसे लड़ेगी? तब पुलिस फोर्स की मांग केंद्र सरकार से की गयी और
छत्तीसगढ़ पुलिस को भी तैयार करने का काम प्रारंभ हुआ।

अपने पहले कार्यकाल में निरंतर केंद्र सरकार को समझाने में डॉ. रमन सिंह
को काफी मशक्कत करनी पड़ी। तब कहीं केंद्र सरकार की समझ में आया कि देश
की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सली कितने खतरनाक हैं। पी.चिदंबरम के
गृहमंत्री बनने के बाद ही राज्यों में तालमेल के प्रयास प्रारंभ हुए।
स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी मानना पड़ा कि नक्सली देश के लिए
खतरनाक हैं। हालांकि जिनके शासनकाल में नक्सलियों ने अपनी जडें जमायी,
वे ही चिदंबरम की नीतियों का विरोध करने लगे। चंद कांग्रेसियों को ही
चिदंबरम की नक्सल विरोधी सक्रियता रास नहीं आयी लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति
के प्रतीक चिदंबरम और रमन सिंह ने अपने कदम इन विरोधों के बावजूद वापस
नहीं खींचें। उसी का नतीजा है कि आज नक्सली सशस्त्र बलों से भयभीत हैं और
सुरक्षा की दृष्टि से भी  अपने बचने के लिए नए क्षेत्रों की तलाश कर रहे
हैं। सियार जंगल से घबरा कर सुरक्षा के लिए शहर की तरफ भागता है लेकिन वह
बच नहीं पाता। नक्सली भी जंगल छोड़कर नई जगह की तलाश में है और मारे जा
रहे हैं। जिस तरह से शेर के शिकार के लिए पुराने शिकारी हांका लगवाया
करते थे और घेर कर शेर को शिकार की तरफ लाते थे, उसी तरह से नक्सलियों के
लिए अब बस्तर में हांका पड़ रहा है।

बरसात भी खत्म हो गयी और सीआरपीएफ के नए डीजी भी आ गए। नए डीजीपी को चंदन
तस्कर वीरप्पन को मारने का अनुभव है। उनसे बहुत आशाएं बांधी जा रही है।
उनका नाम ही विजय कुमार है। स्वाभाविक है कि नए डीजीपी नई रणनीति पर काम
करें। वीरप्पन को भी पकडऩा या मारना आसान काम नहीं था। वह तो कर्नाटक के
लोकप्रिय फिल्मी कलाकार राजकुमार को ही उठा ले गया था और खबर तो यही कहती
थी, उस समय कि भारी भरकम रकम देकर उन्हें छुड़ाया गया था। वीरप्पन को भी
अजेय माना जाता था लेकिन विजय कुमार उसे घेरने और मारने में सफल हो गए।
जब चिदंबरम ने उन्हें सीआरपीएफ का डीजीपी बनाया है तो उनके पुराने
कारनामों की भी इसमें भूमिका है। बड़बोले पुलिस अधिकारियों की तुलना में
विजय कुमार शांति से अपने टारगेट पर निशाना साधने में विश्वास करते हैं
और मीडिया के सामने अपने को प्रोजेक्ट करने के बदले अर्जुन की तरह निशाने
पर उनकी नजर है। डॉ. रमन सिंह ने भी उन्हें विश्वास दिलाया है कि
छत्तीसगढ़ पुलिस उनके साथ पूरा सहयोग करेगी। पुलिस की गुटबाजी आड़े नहीं
आयी तो विजय कुमार के सफल होने की पूरी उम्मीद  है। क्योंकि उनकी फोर्स
तो सभी राज्यों में जहां नक्सली हैं, नक्सलियों के विरुद्ध लगी हुई है।
इसलिए राज्य की पुलिस सहयोग करे तो वे परिणाम देने में सक्षम हैं। यह बात
नक्सली भी अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि अब उनकी डगर आसान नहीं है और कल
की तरह नक्सली इसी तरह से मारे जाते रहे तो उनका मनोबल टूटेगा। नक्सलियों
का मनोबल टूटेगा तो पुलिस का बढ़ेगा और कल की सफलता निश्चय ही पुलिस का
मनोबल बढ़ाने वाली हैं। तभी तो डीजीपी विश्वरंजन कह रहे हैं कि नक्सलियों
के हौसले पस्त हो गए हैं।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 10.10.2010