यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की पूरी तरह से उपेक्षा केंद्र सरकार कर रही है

स्वतंत्र भारत में एक वह भी समय था, जब अनाज के दानों के लिए हमें
अमेरिका का मोहताज होना पड़ता था। अमेरिका लाल गेहूं देता था तो राशन
दुकानों से उसे आम जनता तक पहुंचाया जाता था। अमेरिका भारी मात्रा में
अनाज उत्पादित करता था और मूल्य नियंत्रित करने के लिए वह लाखों टन अनाज
समुद्र में बहा देता था। तब भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने
देश के नागरिकों से अपील की थी कि वे सप्ताह में एक दिन एक समय का उपवास
रखकर अन्न समस्या को हल करने में सहयोग करें। तब न देश की आबादी 120
करोड़ थी और न ही इतना अनाज भारत में उत्पादित  होता था कि गोदाम की
अनुपलब्धता के कारण अनाज को सड़ाया जा सके और न ही मूल्य नियंत्रित करने
के लिए समुद्र में बहाया जाए। इंदिरा गांधी ने ही देश के स्वाभिमान के
लिए अमेरिका से उसकी शर्तों पर गेहूं लेना बंद किया और देश में हरित
क्रांति को जन्म दिया।

आज स्थिति यह है कि अनाज गोदामों में सड़ रहा है। चूहे उसे उदरस्थ कर रहे
हैं लेकिन सरकार अनाज को गरीबों को मुफत देने के लिए तैयार नहीं। सरकार
संवेदनशील हो तो उसे सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देने की आवश्यकता ही नहीं
पडऩा चाहिए कि भूखों को अनाज दो। सड़ाओ मत और न ही चूहों को खाने के लिए
दो बल्कि इंसानों को दो। इसके बावजूद बाजार पर फिदा सरकार सुप्रीम कोर्ट
के निर्देश को मानने के लिए तैयार नहीं है। अनाज का सट्टï बाजार चलवाने
में जिस सरकार को जरा सी भी तकलीफ नहीं होती, वह सुप्रीम कोर्ट के
निर्देश को नहीं मानती तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं। सरकार को सिर्फ
आर्थिक विकास चाहिए। उस विकास की जनता से कीमत तो वसूली जाती है लेकिन
उसकी भूख के निपटारे के लिए अनाज देने में परहेज है। मुफत में अनाज बंटा
तो बाजार में मूल्य धराशायी हो जाएंगे। भूखों को तृप्ति मिलेगी, यह सरकार
की आवश्यकता नहीं है। उसकी आवश्यकता तो यह है कि कैसे विश्व उसकी विकास
दर देखकर चकाचौंध हो। अमेरिका का राष्ट्रपती  जब बड़ाई करे तो चेहरे का
रंग और लाल हो जाए।

जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता की सरकार प्रजातांत्रिक परिभाषा में
अच्छी लगती है लेकिन वास्तव में क्या यह जनता की सरकार है? जनता ने
जिन्हें सरकार बनाने के लिए चुना  और सब तरह की सुख सुविधा दी, वे लोग
जनता को भूख से निजात दिलाने के लिए तैयार नहीं है। मूल अधिकार में भोजन
के अधिकार को सम्मिलित करने की बात तो की जाती है लेकिन उसके अनुरूप आचरण
करने के लिए तैयार नहीं है। किसी भी देश की स्वतंत्रता उसके नागरिक की
स्वतंत्रता तब तक नहीं बन सकती जब तक मनुष्य को भूख की गुलामी से आजादी
नहीं मिलती। बड़ी से बड़ी गुलामी ही भूख है और आज तो ऐसे संसाधन उपलब्ध
हैं कि मनुष्य को भूख की गुलामी से सरकार चाहे तो मुक्ति दिला सकती है।
दिन प्रतिदिन श्रम यंत्रों के हाथों में जा रहा है। वह दिन दूर नहीं जब
मानव श्रम करे यह शर्म की बात हो जाएगी। जो काम मशीनें कर सकती हैं,
उन्हें मनुष्य करे भी तो क्यों ? ऐसे में कितने भी बेरोजगारी कम करने के
आंकड़े दिए जाएं लेकिन वह दिन आएगा जब मनुष्य के लिए काम कम होगा। तब 8
घंटे का कार्य दिवस नहीं 2 घंटे का कार्य दिवस होगा और वह भी आदमी दफतर
में बैठकर नहीं, घर में बैठकर काम करेगा। आज तो प्रशिक्षित कर्मियों की
जरूरत भी होती है लेकिन वह दिन भी आ रहा है जब यह काम रोबोट संभाल लेंगे।
तब मनुष्य की भूख मिटाने के लिए श्रम का विकल्प खोजना पड़ेगा। भूख तो
मिटानी ही पड़ेगी। नहीं तो भूख आदमी को चैन से नही बैठने देगी और जो
चैन से नहीं रहेगा, वह दूसरों को भी चैन से नहीं रहने देगा। सुख सुविधाएं
भी सीमित व्यक्ति तक सीमित नहीं रहने वाली है। आज बाजारवाद का जिस तरह से
सर्वत्र बोलबाला है और नई नई उपभोक्ता सामग्रियों से बाजार पट रहा है तो
इसका अर्थ ही यही है कि सबको सब कुछ चाहिए।

यह तो ऐसी दौड़ है जिसकी कोई अंतिम मंजिल नहीं है। सुख सुविधा भोगने
वाले तब तक ही सुरक्षित हैं जब तक कि भूख विकराल रूप नहीं ले लेती या
गरीब अमीर के बीच की खाई इतनी चौड़ी नहीं हो जाती कि उस पार झांकना संभव
न हो। आदमी शिक्षा प्राप्त कर ही सब कुछ समझता या सीखता नहीं है बल्कि वह
देख और सुनकर भी सीखता और समझता है। कार्ल माक्र्स का प्रभाव जितनी अमीरी
बढ़ेगी, उतना ही बढ़ेगा। धर्म ने बहुत से बफर लगा रखे थे। गरीबी को भी
सम्मानित कर रखा था। दरिद्र नारायण की उपमा दे रखी थी। भाग्य और कर्म का
शास्त्र रच रखा था लेकिन इतनी अमीरी तो कभी नहीं थी और व्यापारी इतना
संपन्न भी नहीं था। आज सरकार बाजार को प्रोत्साहित करने के लिए नाना
प्रकार के यत्न करती है तो समझदार लोग गरीबों के निवाले का भी इंतजाम कर
रहे हैं। अक्लमंदी भी इसी में है। राजनैतिक पार्टियां चुनाव के समय अधिक
से अधिक वायदे गरीबों के हित में करती है और इन गरीबों के समर्थन से ही
सत्ता पर काबिज होती है। प्रजातंत्र है तो वोट की महत्ता रहेगी और वोट के
मान से सरकारों का फैसला गरीब जनता ही करेगी।

गरीब जनता की प्राथमिक आवश्यकता अनाज ही है। आज खुले बाजार में अनाज का
जो भाव है खाद्य सामग्री के जो भाव हैं और उसमें उतार चढ़ाव इतना बढ़ गया
है कि किसी को नहीं मालूम कि खाने का बजट इस माह जो है, वही अगले माह भी
रहेगा। यदि सरकारें गरीबों को सस्ता अनाज देना बंद कर दें तो करोड़ों
घरों में दोनों समय चूल्हा जलना संभव नहीं है। मोंटेक सिंह आहलूवालिया के
कथन पर विश्वास करेगी सरकार तो सरकार धड़ाम से नीचे गिर जाएगी। जो कहते
हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक विकास इतना हुआ है कि ग्रामीण जनता
साग भाजी, फल, दूध का सेवन करने लगी हैं। अमीर गरीब सिर्फ शहरों में ही
नहीं रहते। गांव में भी अमीर गरीब हैं। आंकड़ों के जरिये आय भी बढ़ी है
लेकिन आज रूपये की क्रयशक्ति वह तो नहीं है जो कुछ वर्ष पहले थी। हजार
पांच सौ के नोट सरकार बंद कर दे तो झोला भरकर नोट लेकर बाजार जाना पड़ेगा
तब कहीं खरीददारी की जा सकेगी। बहुत नहीं 10 वर्ष पहले ही लाख रूपये की
बड़ी अहमियत थी। लखपति कहने से ही बड़ा व्यक्ति समझा जाता था। आज तो छोटी
से छोटी संपत्ति का मालिक ही लखपति है। झुग्गी झोपडिय़ां ही लाखों में
बिकती है लेकिन गरीबी है कि कम होने का नाम नहीं लेती।

सुप्रीम कोर्ट तो कह रहा है कि सड़ाने और चूहों को खिलाने के बदले मुफत
में गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों को अनाज दे दिया जाए लेकिन सरकार तो
अपने वायदे कि 3 रूपये में 35 किलो गरीबों को देने के अपने वायदे पर ही
खरी अभी तक नही  उतर पायी है। चर्चाएं चलती हैं। सरकार जिस पार्टी की है,
वह पार्टी चाहती है कि इस योजना को लागू किया जाए लेकिन सरकार में बैठे
लोग इस योजना को लागू करने के पक्ष में नहीं है। होते तो इतनी देर लगने
का तो कोई कारण नहीं। कहा जा रहा है कि इस संबंध में संसद में विधेयक
लाया जाएगा। सरकार क्या अध्यादेश से नहीं चलती लेकिन उसके लिए इच्छाशक्ति
होना चाहिए। जो नजर नहीं आती। नजर भी कहां से आए जब देने का मन ही न हो।

- विष्णु सिन्हा
30-10-2010