यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 11 मई 2010

राम सेवक पैकरा के हाथ में संगठन की बागडोर अंतत: आ ही गई

राम सेवक पैकरा छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष बन गए। दूर-दूर तक
जिनका नाम कोई नहीं ले रहा था, उसे प्रदेशाध्यक्ष बनने का अवसर मिल गया
लेकिन जो प्रदेशाध्यक्ष बनने के लिए लालायित थे, वे देखते ही रह गए।
पार्टी ने जिसे 4 बार विधानसभा का टिकट दिया और वह सिर्फ एक बार चुनाव
जीत सका, वह तो प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हो गया लेकिन जो
अपने को सबसे वरिष्ठ नेता समझते थे, उनको तव्वजो देना पार्टी ने जरुरी
नहीं समझा। लोकसभा में पार्टी के मुख्य सचेतक रमेश बैस पार्टी अध्यक्ष
बनना चाहते थे और अपना नाम स्वयं पार्टी की बैठक में प्रस्तावित किया था,
उनकी न सुनना ही समझने के लिए पर्याप्त है कि पार्टी में अहंकार की कितनी
पूछ परख है। आदिवासियों से पिछड़े वर्ग की संख्या अधिक के आधार पर पार्टी
अध्यक्ष पद पर दावा मान्य नहीं हुआ। क्योंकि पार्टी को अच्छी तरह से पता
था कि रमेश बैस को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से पार्टी अपना जनाधार खोने के
सिवाय और कुछ प्राप्त नहीं कर सकेगी।

जब डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में सरकार अच्छा काम कर रही है तब उन्हें
डिस्टर्ब करने के विषय में पार्टी आलाकमान सोच भी नहीं सकते। आलाकमान तो
स्वयं चाहता था कि पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष ऐसा व्यक्ति बने जो संगठन और
सत्ता में पूरी तरह से तालमेल रखकर पार्टी और सरकार की छवि को और निखार
सके। राम सेवक पैकरा ने प्रदेशाध्यक्ष बनते ही स्पष्ट भी कर दिया है कि
वे सरकार के साथ मिलकर चलेंगे और 2013 विधानसभा चुनाव में पार्टी को पुन:
जनादेश मिले, इसके लिए संगठन को तैयार करेंगे। पैकरा स्पष्ट इशारा कर
रहे है कि वे पार्टी के असंतुष्ट का हथियार हरगिज नहीं बनेंगे। वे
पिछले कार्यकाल में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के साथ काम कर चुके हैं और
संसदीय सचिव भी रह चुके है। वे जमीन से जुड़े नेता है। जिस तरह से डॉ.
रमन सिंह ने अपना राजनैतिक जीवन पार्षद के रुप में प्रारंभ किया और
मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंचे, उसी तरह से राम सेवक पैकरा ने भी अपनी
राजनैतिक यात्रा ग्राम पंचायत के पंच से प्रारंभ किया और आज
प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे।

राम सेवक पैकरा को प्रदेशाध्यक्ष बना कर आलाकमान ने अति महत्वाकांक्षी,
पदाकांक्षी लोगों को जोर का झटका दिया है। राम सेवक पैकरा के चयन का
समर्थन करने के सिवाय अब उनके पास कोई चारा नहीं है। रमेश बैस को ही
देखिए। बढ़-चढ़ कर पैकरा का स्वागत कर रहे हैं। अब वे सफाई दे रहे हैं
कि पिछड़े वर्ग की संख्या अधिक होने का जो अर्थ लगाया गया, वह उनका अर्थ
नहीं था। प्रदेश में आज भाजपा की सरकार है तो उसका सबसे बड़ा कारण
डॉ. रमन सिंह के प्रति आदिवासियों का समर्थन है। बस्तर की आदिवासी सीटों
ने एक तरफा समर्थन डॉ. रमन सिंह को नहीं दिया होता तो आज सरकार के पास
बहुमत ही नहीं होता। क्योंकि बस्तर छोड़कर कांग्रेस और भाजपा की सीटों
में ज्यादा अंतर नहीं है। इसी अनुपात में कांग्रेस को बस्तर में समर्थन
मिलता तो एक दो विधायक के भी इधर उधर होने से सरकार बहुमत खो देती। अभी
त्रिपाठी जी के निधन से ही बहुमत का गणित डगमगा जाता। विधानसभा अध्यक्ष
एक विधायक के बन जाने से भी बहुमत का अंकगणित बदल सकता था।
वैशाली नगर सीट हार जाने से तो सरकार ही गिर जाती। पिछड़े वर्ग की संख्या
सबसे ज्यादा होने की बात ठीक भी हो तो भाजपा ने पिछड़े वर्ग को ही वैशाली
नगर से टिकट दिया था लेकिन वह प्रत्याशी भजनसिंह निरंकारी से हार गया।
किसी भी दृष्टि से देखें तो प्रदेश में भाजपा की सरकार आदिवासियों के
समर्थन के कारण है। इसलिए पार्टी किसी आदिवासी को पार्टी का अध्यक्ष
बनाने के विषय में निश्चय करती है तो यही सोच राजनैतिक है। पार्टी अपनी
सोच विचार नीति सिद्धांत के लिए राजनीति में है। न कि किसी की राजनैतिक
महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए। जो लोग स्वयं की महत्वाकांक्षा की
पूर्ति का साधन पार्टी को समझते हैं और समय आने पर अधिकार मिले तो
ईमानदारी से निर्णय करने के बदले अपने हित में निर्णय करते हैं, उन पर
पार्टी कैसे विश्वास कर सकती है? जो स्वयं पार्टी का पद चाहें तो पार्टी
उनके मनोभावों को अच्छी तरह से समझती हैं.

जब पार्टी तमाम बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षा पर लगाम लगाने के लिए नितिन
गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना सकती है और उन पर विश्वास कर सकती है
तो इसी से समझ में आ जाना चाहिए कि पार्टी में किसी को कुछ मांगने की
जरुरत नहीं है। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख। जब कोई व्यक्ति
कुछ मांगता है तो पार्टी चौकन्नी हो जाती है। धैर्य की परीक्षा लेने में
भी पार्टी पीछे नहीं है। छत्तीसगढ़ में ही निगम मंडलों में नियुक्ति होना
है लेकिन नहीं हो रही है। कभी इस चुनाव की आड़ में तो कभी उस चुनाव की
आड़ में नियुक्ति टाली जा रही हैं। बहुतेरे हैं जो आकांक्षा लगाए हुए हैं
कि उनकी नियुक्ति सरकारी पद पर हो लेकिन नहीं होती। इस समय धैर्य की
जरुरत है लेकिन कुछ लोग धैर्य नहीं रख पाते और अनाप शनाप अभिव्यक्ति करने
लगते हैं। घूम फिर कर बात ऊपर तक पहुंच ही जाती है। इसीलिए तो चर्चा का
बाजार गर्म है कि फलां फलां को पद नहीं मिलेगा और पद राम सेवक पैकरा जैसे
धैर्यवान, निष्ठïवान व्यक्ति को ही दिया जाएगा। क्योंकि अंदर खाते आरोप
भी कम नहीं है कि किसने पद का दुरुपयोग कर क्या उपार्जित किया?
प्रदेशाध्यक्ष के लिए जिन लोगों का नाम सर्वप्रथम लिया जा रहा था, उन्हें
प्रदेशाध्यक्ष न बनाने के पीछे भी तो कारण है। यह बात दूसरी है कि पार्टी
उन कारणों को उजागर न करे। अब जब राम सेवक पैकरा आ गए हैं तो प्रदेश स्तर
पर नई टीम बनेगी। अधिकांश लोग संगठन के बदले सत्ता में जाना चाहते हैं
लेकिन जब उन्हें संगठन में एडजस्ट किया जाएगा तो इंकार कौन कर सकेगा? फिर
जो इंकार करेगा, उसके लिए सत्ता में पद नहीं होगा। मुख्यमंत्री और
प्रदेशाध्यक्ष संगठन मंत्री के साथ मिलकर तय करेंगे कि किसे कहां बिठाया
जाए। 10 सांसदों और कोरबा से भाजपा की प्रत्याशी रही करुणा शुक्ला को
राष्ट्रीय परिषद के लिए तो चुन ही लिया गया है। अब प्रदेश पदाधिकारियों
का प्रदेशाध्यक्ष के द्वारा राष्ट्रीय अध्यक्ष की सहमति से मनोनयन ही
होना है। तब तक तो सरकारी पद प्राप्त करने वालों को इंतजार करना ही
पड़ेगा।

एकमात्र वरिष्ठ विधायक दीवान को ही निगम मंडल में जगह देने की बात है।
वे इंतजार भी कर रहे है लेकिन नियुक्ति है कि हो नहीं रही है। चूंकि किसी
ब्राह्मण की मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली, इसलिए उन्हें निगम में
एडजस्ट किया जाएगा लेकिन यह अवसर अन्य विधायकों को नहीं मिलेगा।
मंत्रिमंडल में भी एक जगह खाली है। विधानसभा उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त
है। सभी निगम मंडल मंत्रियों के पास है और नौकरशाह शासन कर रहे हैं।
मंत्री भी यह बात जानते हैं कि नियुक्ति के बाद निगम मंडल उनके हाथ से
निकल जाएंगे। करीब-करीब डेढ़ वर्ष हो गए। विधानसभा के चुनाव को हुए और
सरकार को बने लेकिन नियुक्तियां है कि हो नहीं रही है। देखें कब तक यह
होता है या नहीं भी होता है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 11.05.2010
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