में भोजन ही नहीं, पानी की भी समस्या बड़ी है। समय रहते इसका निराकरण
नहीं किया गया तो हालात नियंत्रण के बाहर भी हो सकते हैं। पानी ऐसी चीज
है जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसीलिए चंद्रमा, मंगल
में जो अंतरिक्ष यान भेजे जाते है वे भी वहां पानी की ही तलाश करते हैं।
अनाज तो बाहर से भी लाकर पेट की आग बुझायी जा सकती है लेकिन प्यास पानी
की बुझानी हो तो अपना इंतजाम स्वयं करना होगा। पानी के लिए हमारे पास दो
ही स्त्रोत हैं। एक वर्षा का पानी और दूसरा भूमिगत पानी। बोरिंग की हालत
यह होती जा रही है कि 300 फुट तक के बोरिंग गर्मी के मौसम में पानी नहीं
दे रहे हैं। मतलब साफ है कि पानी का दोहन जितना हो रहा है, उतना पानी
जमीन के भीतर जा नहीं रहा है और जाने का साधन एकमात्र वर्षा का पानी है।
शहरों में तो तालाबों को पाटकर अट्टालिकाएं बना ली गई। ड्रेन टू ड्रेन
सड़कें सफाई के नाम पर बना ली गई। वर्षा का पानी जमीन के भीतर जाए तो
कैसे? शहर के मध्य में स्थित रजबंधा तालाब का ही आज नामोनिशान नहीं है।
वहां उन समाचार पत्रों के ही भवन खड़े है जो पानी की चिंता सबसे ज्यादा
करते दिखायी पड़ते हैं। आज रायपुर में तालाबों की जमीन इतनी कीमती हो
गयी कि अच्छे अच्छों की नीयत डोल गयी है। अब वापस तो नहीं जाया जा सकता
लेकिन अभी भी जो तालाब बचे हैं, उन्हें भी सरकार सख्त कानून बनाकर बचा ले
तो बड़ी बात है। रायपुर के तालाबों के कारण रायपुर में कभी पानी की
समस्या नहीं रही लेकिन अब यह सब गुजरे जमाने की बात हो गयी। मुख्यमंत्री
डॉ. रमन सिंह ने तुरत फुरत मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाकर पानी के लिए
जो कार्ययोजना बनायी हैं, उसके लिए वे तारीफ के पात्र तो निश्चित रुप से
हैं।
लेकिन इस समय श्यामाचारण शुक्ल की भी याद करना चाहिए। राजधानी रायपुर को
आज पानी की जो कमी नहीं है, उसका कारण श्यामाचरण शुक्ल की दूरदृष्टि ही
थी। जिन्होंने गंगरेल बांध का निर्माण करवाया। शहर में पानी के वितरण में
भले ही शिकायतें हों लेकिन पानी की कमी नहीं है। रायपुर और भिलाई को पानी
की सप्लायी करने वाला गंगरेल बांध नहीं होता तो पानी की क्या स्थिति खड़ी
होती, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। श्यामाचरण शुक्ल भले ही 3 बार
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन कुल कार्यकाल देखा जाए तो वह एक
पूरे कार्यकाल के बराबर भी नहीं है। फिर भी श्यामाचरण शुक्ल की छत्तीसगढ़
के लिए चिंता उनके सिंचाई उपक्रमों से देखी जा सकती है। आज लाखों लोग इन
बांधों के कारण न केवल अपनी पानी की आïवश्यकता पूरी कर रहे हैं बल्कि
हजारों एकड़ कृषि भूमि की भी प्यास ये बांध बुझा रहे हैं। केंद्र सरकार
उनके नाम पर माना हवाई अड्डï का नाम रखने के लिए तैयार है तो राज्य
सरकार को भी बड़ा दिल रखते हुए इसकी सिफारिश करना चाहिए।
वर्षा के जल पर ही छत्तीसगढ़ के निवासियों का जीवन निर्भर करता है। हमारी
नदियां भी बारह मास पानी नहीं देती। इसलिए वर्षा के पानी को संग्रहित
करने के लिए व्यापक योजना बनाना चाहिए। जब कबीरधाम के 110 गांवों में
पानी की सप्लायी के लिए टैंकरों की जरुरत पड़ें तो इसी से समझ में आ जाता
है कि स्थिति गंभीर हैं। नित्य उपयोग के लिए तालाबों को बांध के पानी से
भरना पड़े तो इससे भी पानी की समस्या की गंभीरता समझ में आती है। मनुष्य
के द्वारा निर्मित कारखानों को भी पानी की जरुरत हैं। पानी नहीं होगा तो
यह सब ठप्प पड़ जाएंगे। पशु, पक्षी, वृक्ष, वनस्पति सबके जीवन के लिए
पानी चाहिए। हमारे पास तो कोई समुद्र का किनारा भी नहीं, जिसका ही पानी
उपयोग के लिए निर्मित किया जा सके। सीधा और साफ मतलब हैं कि वर्षा का
पानी यदि हम समुद्र में जाने से रोक सकें तभी हमारा निस्तार हो सकता है।
हमारे यहां तो 40-45 इंच पानी गिरता है। इजरायल में तो 9-10 इंच ही
बामुश्किल पानी गिरता है। फिर भी उन्होंने ऐसे इंतजाम कर रखे है कि उनके
यहां पानी की कोई समस्या नहीं है। हमें जमीन के ऊपर और जमीन के अंदर
दोनों जगह वर्षा का पानी इकट्ठा करना पड़ेगा। शहरों में अक्सर कहा जाता है
कि नए मकान वाटर हार्वेस्टिंग के बिना नहीं बनाए जा सकते लेकिन यथार्थ
में ऐसा हो भी रहा है, क्या? नए मकान ही क्यों पुराने मकानों में भी यह
व्यवस्था कड़ाई से लागू की जानी चाहिए। यह इसलिए भी जरुरी है, क्योंकि
यदि किसी वर्ष वर्षा का पानी पर्याप्त मात्रा में आकाश से नहीं गिरा तब
क्या होगा? उस स्थिति के लिए भी तैयार तो अभी से रहना चाहिए। सबसे अच्छा
तरीका तो भू-गर्भ में जल संरक्षण ही हैं। इसलिए शहरों में ही नहीं गांवों
में भी वाटर हार्वेस्टिंग का प्रयोग अनिवार्य रुप से किया जाना चाहिए।
जब से बोरिंग का चलन बढ़ा है तब से कुआं का चलन कम से कम होता गया है।
नहीं तो पहले शहर में भी करीब-करीब हर घर में कुआं होता था। यह भी वाटर
रिचार्ज के काम बरसात में आता था। धीरे-धीरे बोरिंग घर-घर में होने लगे
तो गर्मी में कुएं सूखने लगे। तालाब या तो पटने लगे या उनका क्षेत्रफल
सिकुडऩे लगा। सरोवर हमारी धरोहर योजना भी सरकार ने चलायी थी लेकिन उसका
क्या हाल हुआ, यह सबके सामने हैं। बुढ़ा तालाब ही सिकुड़ता सिकुड़ता आधा
रह गया है। जनसंख्या का दबाव भी राजधानी रायपुर पर इतना बढ़ा है कि इंच
इंच जमीन कीमती हो गयी और तालाबों में बस्तियां बस गयी। आखिर बरसात में
जो इलाके बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं, वे भी तो पुराने तालाब है।
राजनीति में वोट की आवश्यकता ने अव्यवस्था को जन्म दिया तो जो स्थिति
निर्मित हुई है, वही तो होनी थी।
देर से सही लेकिन सरकार सचेत हुई तो कुछ न कुछ परिणाम तो निकलेगा।
खूंटाघाट पर मुख्यमंत्री श्रमदान कर गहरीकरण का शुभारंभ कर रहे हैं और एक
माह तक पूरे प्रदेश में श्रमदान से योजना को चलाना चाहते हैं तो
मुख्यमंत्री की पानी को लेकर चिंता समझ में आने वाली बात हैं। जनजागरण
जरुरी है और जनता को स्पष्ट रुप से बताना जरुरी है कि जनता ने पानी की
समस्या हल करने में पूरा सहयोग नहीं दिया तो फिर उसे कष्ट कर दिनों के
लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि इस समस्या का हल जब तक सरकार, नौकरशाही और
जनता एकजुट होकर नहीं करती तब तक हल करना आसान नहीं है। सब कुछ सरकार पर
छोड़ देना और पानी का अपव्यय जारी रखने से समस्या हल नहीं होगी। जब जल
पर्याप्त मात्रा में भी उपलब्ध हो तब भी बूंद-बूंद पानी की कीमत को समझना
पड़ेगा। स्वयं सेवी संगठनों का, राजनैतिक दलों का, स्कूल, कॉलेजों का भी
सभी का दायित्व है कि जल की महिमा के साथ महत्ता को भी समझें और लोगों को
समझाएं। अभी जनगणना का काम चल रहा है। जनगणना के लिए शासकीय कर्मचारी
घर-घर जा रहे हैं। ऐसे में इस समय जनसंपर्क का उपयोग जल से संबंधित
वास्तविक स्थिति और लोगों को क्या करना चाहिए, यह भी समझाने का दायित्व
उन्हें सौंपा जा सकता है। प्रदेश में जागरुकता ऐसी होनी चाहिए कि न तो
पानी का दुरुपयोग करेंगे और न ही अपनी जानकारी में किसी को करने देंगे।
सभी एकजुट होंगे तो समस्या का हल निश्चित रुप से होगा और उस समय की भी
तैयारी होगी जब कभी आकाश से जल नहीं गिरा तो भी तकलीफ नहीं होगी।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 13.05.2010
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