यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 4 मई 2010

संकीर्ण सोच के व्यक्ति को प्रदेशाध्यक्ष बनाकर भाजपा अपना कबाड़ा नहीं करना चाहेगी

रमेश बैस को भाजपा आलाकमान प्रदेश का अध्यक्ष बनाने पर तुल जाए तभी रमेश
बैस प्रदेश अध्यक्ष बन सकते हैं। नहीं तो रायपुर के ही विधायकों एवं
संगठन के लोगों की रमेश बैस को प्रदेश अध्यक्ष बनाने में कोई रुचि नहीं
है। रमेश बैस के संसदीय क्षेत्र के ही लोग जब रुचि नहीं रखते तो फिर
पूरे प्रदेश में तो कोई नाम लेवा भी नहीं है कि रमेश बैस को प्रदेश
अध्यक्ष बनाओ। लोकसभा में भाजपा संसदीय दल के मुख्य सचेतक की यह स्थिति
है, छत्तीसगढ़ में। 52 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग के नाम अध्यक्ष की कुर्सी
हथियाने का ख्वाब देखने वाले रमेश बैस को जमीनी हकीकत का आभास नहीं है।
वे समझते हैं कि भाजपा में पिछड़े वर्ग के वे ही सबसे बड़े नेता हैं।
हकीकत यह है कि पिछड़े वर्ग के लोग ही उन्हें अपना नेता नहीं मानते।
मानते तो पूरे प्रदेश के पिछड़े वर्ग से आवाज तो उठती कि रमेश बैस को
पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए।

निरंतर लोकसभा का चुनाव जीतने के कारण ऐसी सोच बन जाना सहज स्वाभाविक है
कि वे संसदीय क्षेत्र के लोकप्रिय नेता हैं और वरिष्ठता के मान से भी
वरिष्ठ हैं। जीत का सही कारण ईमानदारी से तलाशा जाता तो पता चलता कि यह
व्यक्तिगत कारणों से नहीं मिली बल्कि हजारों भाजपाई कार्यकर्ताओं के अथक
प्रयास के कारण मिली। जिन कार्यकर्ताओं के कारण जीत मिली, वे सिर्फ
पिछड़े वर्ग के ही नहीं हैं बल्कि सर्व वर्ग के प्रयास के कारण जीत हासिल
हुई। जीत के लिए अथक प्रयास करने वालों ने कभी सोचा नहीं था कि उनका
सांसद पिछड़े वर्ग का नेता है बल्कि सोच यही थी कि वह सभी वर्ग का नेता
है लेकिन हकीकत में जब नेता ही ने अपने को पिछड़े वर्ग का मान लिया तो अब
कार्यकर्ताओं की सोच का विषय हो गया है कि वे रमेश बैस को पुन: चुनाव में
जब जितवाने का अवसर आएगा तब वे उसके लिए मशक्कत करें या न करें। इससे भी
परे अभी तक रमेश बैस को सभी अपना मानते थे, इसलिए कोई दूसरा रायपुर
लोकसभा सीट से टिकट नहीं मांगता था लेकिन अब की बार शायद ऐसा न हो। कई
लोगों की नजर रायपुर लोकसभा सीट की टिकट पर लग गयी है।
फिर भी टिकट नहीं मिली और रमेश बैस को ही आलाकमान ने पुराने रिकार्र्ड पर
टिकट देने का निर्णय लिया तो फिर पिछड़े वर्ग के वे लोग जो रमेश बैस को
अपना नेता मानते हैं, वही रमेश बैस का चुनाव में काम करेंगे और बाकी लोग
इस प्रयास में लगेंगे कि रमेश बैस हार जाएं। जिससे लोकसभा सीट खाली हो और
रमेश बैस जैसे संकीर्ण सोच के नेता से मुक्ति मिले। पिछड़ा वर्ग किसी एक
जाति का समूह नहीं है बल्कि कई जातियां इसमें सम्मिलित हैं। कांग्रेस ने
आदिवासी के नाम पर अजीत जोगी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन सत्ता ही
कांग्रेस के हाथ से निकल गयी। फिर पिछड़ी जाति के धनेन्द्र साहू को
अध्यक्ष बनाया। धनेन्द्र साहू स्वयं चुनाव नहीं जीत सके। जिस जाति के लोग
अधिक यदि जीत का आधार हो तो इन लोगों को हारना नहीं चाहिए। सरदार गुरुमुख
सिंह होरा, कुलदीप जुनेजा को जनता अपना विधायक चुन लेती है। जाति के आधार
पर ही वोट पड़ते तो इनका चुना जाना तो संभव नहीं था। मोहम्मद अकबर
पंडरिया से और कुरैशी भिलाई से चुनाव जीत जाते है। वैशाली नगर से भजन
सिंह निरंकारी चुनाव जीत जाते हैं। भाजपा के साहू चुनाव हार जाते है।
कहां है जाति के आधार पर मतदान।

सबसे बड़ा उदाहरण तो डॉ. रमन सिंह ही हैं। वे न पिछड़ी जाति के हैं, न
दलित हैं और न ही आदिवासी। फिर भी जनादेश मुख्यमंत्री बनने का उन्हीं के
पक्ष में है। उनकी लोकप्रियता का तो कोई अन्य नेता छत्तीसगढ़ में दिखायी
नहीं देता। दरअसल जनता में लोकप्रियता काम से होती है। व्यवहार से होती
है। लोगों के दुख सुख में सम्मिलित होने से होती है। जनता देखती है कि
कौन उसके दुख में सम्मिलित है और कौन उसको समस्याओं से निजात दिलाने के
लिए सक्रिय है। यह संबंध जाति से बढ़ कर हृदय का होता है। जनता के हृदय
को जो नेता जंच गया तो फिर वह उसे अपना प्रतिनिधित्व करने का अवसर देती
है। जनता नहीं चाहती या जो जनता के दिल से उतर जाता है, उससे मुंह मोड़
लेना जनता के लिए कठिन काम नहीं होता। कभी-कभी किसी पार्टी से भी जनता
खुश होती है तो उसके अयोग्य प्रत्याशी को भी वोट दे देती है। वह
प्रत्याशी को नहीं देखती बल्कि पार्टी नेतृत्व को देखती है लेकिन इसकी एक
सीमा होती है। बार-बार अवसर देने के बावजूद भी प्रतिनिधि में सुधार नहीं
होता तो फिर वह बड़े से बड़े वरिष्ठ नेता को भी धूल चटाने से परहेज नहीं
करती।

एक सीमा तक अच्छा नेता हो तो वह नेता के अहंकार को भी बर्दाश्त कर लेती
है लेकिन उसने सीमा का उल्लंघन किया तो वह सिर्फ नेता को अक्ल सिखाने के
लिए किसी अयोग्य व्यक्ति को भी अवसर दे देती है। डॉ. रमन सिंह की यही
खूबी है कि उन्होंने जात पात से परे सभी को एक दृष्टि से देखा और सबके
कल्याण के लिए योजनाएं बनायी। इसलिए वे सभी वर्ग में लोकप्रिय है। रमेश
बैस की छवि तो इसके विपरीत है। अभी तक लोग कहते थे कि वे अपनी जाति से
परे सोच नहीं रखते। अब स्वयं पिछड़े वर्ग का होने के आधार पर उन्होंने जो
पार्टी की अध्यक्षता मांगी है तो उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि उनकी
खासियत या गुण राजनीति में पिछड़े वर्ग का होना ही है। जब आप स्वयं किसी
चौखटे में स्वयं को फिट कर लेंगे तो दूसरों को समझने में आसानी ही होती
है कि आपकी सोच का दायरा कितना है?

प्रदेशाध्यक्ष या मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखना और कोई गलत बात नहीं है
लेकिन यह पद ऐसे नहीं है जो किसी संकीर्ण सोच के व्यक्ति को मिले।
मुख्यमंत्री किसी वर्ग, जाति या संप्रदाय का नहीं होता बल्कि प्रदेशों
में निवासरत सभी व्यक्तियों का होता है। यदि कोई संकीर्ण सोच का व्यक्ति
इस पद पर बन जाए और एक निश्चित वर्ग का अपने को माने तो सबके साथ न्याय
नहीं कर सकता। मुख्यमंत्री हो या प्रदेशाध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को होना
चाहिए जो सबको साथ लेकर चल सकें। छत्तीसगढ़ एक ऐसा प्रदेश है जहां हर
वर्ग, जाति, संप्रदाय के लोग निवास करते हैं। इसलिए सबके हित की सोच का
व्यक्ति ही यहां सफल हो सकता है। जैसे डॉ. रमन सिंह है। यह छत्तीसगढ़ का
सौभाग्य भी है कि नेताओं की सोच भले ही संकीर्ण हो लेकिन जनता की सोच में
संकीर्णता नहीं है। जातिगत संकीर्ण सोच की राजनैतिक पार्र्टियां
छत्तीसगढ़ में उभर नहीं सकी, यह इस सोच को ही प्रतिपादित करता है कि
संकीर्णता का प्रदेश में कोई स्थान नहीं है। कोशिश नहीं की गई और कोशिश
नहीं की जा रही है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन सफलता ऐसी कोशिशों को
नहीं मिली, यह तो पूरी तरह से स्पष्ट है। भाजपा आलाकमान भी संकीर्ण सोच
को पनपने का अवसर देगा, ऐसा तो नहीं लगता। इसलिए रमेश बैस के
प्रदेशाध्यक्ष बनने की संभावना नहीं दिखायी पड़ती।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 04.05.2010
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