यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 5 मई 2010

अंदर बाहर दोनों तरफ से आंतकवादी खतरा, ऐसे में तो राजनीति को दूर रखें

कल दिल्ली में एक दंपत्ति को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। कहा जा रहा है
कि ये नक्सली हैं और गरीबों के बीच रह कर नक्सलवाद का प्रचार करते थे।
कहां छत्तीसगढ़ और कहां दिल्ली। देश की राजधानी दिल्ली। वहां तक अपना
नेटवर्क नक्सलियों ने फैला रखा है। ये तो पति पत्नी गिरफ्त में आए हैं।
पता नहीं और कितने लोग देश की राजधानी में नक्सलवाद का प्रभाव बढ़ाने में
लगे हैं। आरोप लगाने वाले आरोप लगा सकते हैं कि छत्तीसगढ़ की भाजपा
सरकार नक्सल समस्या से निपटने में असफल रही, इसलिए नक्सलियों का प्रभाव
क्षेत्र दिल्ली तक पहुंच गया। दिल्ली तक ही क्यों? देश के बड़े हिस्से
में भी नक्सली अपना नेटवर्र्क फैला चुके हैं और क्षेत्र को विस्तारित कर
रहे है तो कारण तो छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ही है। प्रश्र पूछने में
क्या जाता है कि हमारे शासनकाल में कितने जवान मारे गए और आपके शासन में
कितने। अभी भी समस्या को गंभीरता से लेने के बदले राजनीति में काठ की
हांडी को गर्म किया जा रहा है।

खबर है कि 30-35 आतंकवादी समुद्र के रास्ते देश में घुस आए हैं और वे
पूरे देश में फैल गए हैं। असम तक पहुंचने की खबर है। यह आतंकवादी कहा जा
रहा है कि गुजरात के समुद्र किनारे से देश में दाखिल हुए है। सैकड़ों
आतंकवादी सीमा पर अवसर की तलाश में है कि रास्ता मिले तो देश में घुसें।
खबर यह भी है कि अमेरिका ने पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक को
आतंकवादी मानते हुए गिरफ्तार किया है और उसके 8 साथी करांची में
पाकिस्तान के द्वारा गिरफ्तार किए गए हैं। गनीमत है कि आरोप लगाने वाले
यह नहीं कह रहे हैं कि यह सब भी छत्तीसगढ़ में भाजपा के कारण हो रहा है।
केंद्र सरकार कहती है कि नक्सली समस्या से निपटने की जिम्मेदारी राज्य
शासन की है और केंद्र सरकार सहयोग कर रही है। देश में अंदर और बाहर
दोनों तरफ से आतंकवादी कहर बरपाने की कोशिश में हैं।

तब देश में राजनेताओं को आपस में तर्क कुतर्र्क करने के बदले समस्या पर
ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नक्सल समस्या किसके कारण अपने पैर देश में
सर्वत्र फैला रही है, इस तरह के राजनैतिक दोषारोपण के बदले देश के
शांतिप्रिय नागरिकों को कैसे सुरक्षित रखा जाए, इस बात पर ध्यान देने की
जरुरत है। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह कह रहे हैं कि जनमत संग्रह करा लें।
जनमत संग्रह के बिना भी सबको मालूम है कि आम आदमी नक्सलियों के क्या किसी
भी तरह की हिंसा या आतंकवाद के पक्ष में नहीं है। किसी को भी गलत या सही
सिद्ध करने से समस्या का निपटारा नहीं होगा। अक्सर समस्याओं से ध्यान
हटाने के लिए राजनीति इस तरह के स्वांग रचती है। जबानी जमा खर्च से ही
समस्या सुलझती तो कब की सुलझ जाती। यदि आप समझते हैं कि समस्या को
सुलझाने का यही सही तरीका है तो उस पर आगे बढ़ें। जनता ने जनादेश भी दिया
है कि आप समस्याओं से निजात दिलाएं। जनता ने जिन्हें नहीं चुना है, इस
काम के लिए उनकी बेकार की बात में उलझने की कोई जरुरत नहीं है।
लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीवादी व्यवस्था को यदि सरकार ने
अपनी आर्थिक नीति उदारीकरण के नाम पर बनाया है तो उसके परिणाम क्या आ रहे
हैं? क्या उदारीकरण से जनता खुशहाल हो रही है या उसकी समस्याओं में इजाफा
हो रहा है? एक तरफ धन का ढेर लगे और दूसरी तरफ गरीबी भी बढ़े तो वर्ग
संघर्ष की भूमि ही तैयार होती है। अमीर और गरीब के बीच खाई चौड़ी होती गई
तो उसके परिणाम में राजनैतिक बीजारोपण होता है। प्रजातंत्र वोट तंत्र पर
आधारित है और वोट गरीबों का अधिक होगा तो सरकार भी उसके अनुरुप बनेगी।
गरीबी को अमीरी के विरुद्ध खड़ा करना और अधिक से अधिक वोट भी तो राजनीति
का ही हथियार है। लोकसभा में जनगणना में जाति आधारित जनगणना
पर जो जोर दिया जा रहा है, उसके पीछे भी किसी की भलाई कम अपना हित ही
ज्यादा है। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जो जोर दे रहे है
कि पिछड़ी जाति की भी गणना की जाए, उसके पीछे छिपा उद्देश्य जग जाहिर है।
ये कहते हैं कि जाति एक हकीकत है और इससे बचा नहीं जा सकता। इन सबसे आगे
बढ़कर मायावती तो कहती है कि पूरा सिस्टम ही जाति आधार पर आरक्षण का हो।
मतलब जिसकी जाति के लोग सबसे ज्यादा उसे उतना ज्यादा सत्ता में अधिकार।
हर भारतीय को एक समान मानने वाले संविधान की अपने अनुसार व्याख्या के
कारण ही विचारों की अपने हित के अनुसार विभिन्नता है। कहने में सुनने में
कितना अच्छा लगता है कि काश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत एक है। यह
स्वप्न भी है हर भारतीय का लेकिन राजनीति अपने स्वार्थ के लिए तरह-तरह के
विभाजन करती है। निराश हताश लोग हिंसा की तरफ, अपराध की तरफ आकर्षित हो
जाते है। गांधी, बुद्ध और महावीर के देश में आतंकवादी हिंसा की जड़ तलाश
करने की कोशिश ही नहीं की जाती। श्रेय लेने की दौड़ और दूसरे पर आरोप
मढऩे का भटकाव देश को किस तरफ ले जा रहा है। सबको सत्ता चाहिए तो
नक्सलियों को भी सत्ता चाहिए। यह बात दूसरी है कि नक्सलियों को सत्ता
बैलेट से नहीं बुलेट से चाहिए। वे भी 2050 तक दिल्ली की गद्दी पर बैठने
का ख्वाब देख रह हैं और देश की राजधानी में उन्होंने दस्तक दे दी है।
देश में 30-35 आतंकवादी घुस आए हैं तो खतरा तो है कि मुंबई जैसा कांड फिर
न दोहराया जाए। एक तरफ कसाब की सजा कोर्ट तय करने वाला है और दूसरी तरफ
देश में आतंकवादी। कहीं यह कसाब की सजा का जवाब देने की तैयारी तो नहीं।
कानून को अंगूठा दिखाने की तैयारी तो नहीं। तुम एक कसाब को ज्यादा से
ज्यादा क्या सजा दे सकते हो? फांसी। हम मरने से नहीं डरते। एक कसाब क्या
यहां कसाबों की कमी नहीं है। अति दुस्साहस दिखाया इन घुसे हुए
आतंकवादियों ने तो ऑर्थर रोड जेल जहां कसाब कैद है वहां भी हमला कर सकते
हैं। कोर्ट अभी कल सजा सुना भी देता है तो कल ही तो सजा नहीं दी जाएगी।
हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और फिर राष्टपति के पास दया याचना लंबी
प्रक्रिया है। जिन्होंने मुंबई हमले में अपना खोया, वे बड़ी बेचैनी से
फैसले का इंतजार कर रहे हैं। सबकी मांग है कि कसाब को फांसी दी जाए।
आतंकवादियों को भी मालूम है कि यदि वे पकड़े गए तो तुरत फुरत कोई सजा
नहीं मिलने वाली है। न्याय की प्रक्रिया से उन्हें गुजरना होगा और सबूत
के आधार पर ही सजा होगी। यही इस देश का कानून है। सीधे-सीधे मुठभेड़ में
नहीं मारे गए तो फिर जिंदगी लंबी भी हो सकती है। यही बात नक्सली भी जानते
हैं कि वे मुठभेड़ में नहीं मारे गए तो उन्हें जेल में रहना होगा। मकुदमा
लडऩा होगा। सबूत नहीं मिले तो न्यायालय उन्हें छोड़ देगा। कई नक्सली छूट
भी गए हैं। ऐसे में आतंकवादियों का मनोबल बढ़ा हुआ हो तो आश्चर्य की बात
नहीं। ऐसी परिस्थिति में पुलिस को काम करना पड़ता है तब राजनेताओं का तो
कर्तव्य है कि वे समस्या की गंभीरता को समझें। न कि आपस में ही उलझते
रहें।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 05.05.2010

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