यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 16 मई 2010

डा. रमनसिंह ने पानी की समस्या को गंभीरता से लिया है तो वे हल करके ही रहेंगे

मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने फावड़ा उठाकर पानी निपटने की रोको महाभियान
का प्रारंभ कर दिया है। समय रहते समस्या के मूल को पहचानने की जरूरत को
महसूस किया है। नक्सली समस्या आज भले ही बड़ी लगे लेकिन उसका हल तो हो ही
जाएगा। प्रेम प्यार से हो या बंदूक की गोली से। समस्या को हल होने में
समय भी लगे तो कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन जिस स्तर पर नक्सलियों से
निपटने की तैयारी सरकार ने की है, उसी स्तर पर जल समस्या से भी तैयारी
सरकार करती है तो सरकार बिन पानी सब सून की स्थिति निर्मित होने से
छत्तीसगढ़ को बचा लेगी। यह सौभाग्य की बात है कि छत्तीसगढ़ के
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह हैं। किसी भी समस्या से निपटने के लिए कार्य
के प्रति जिस समर्पण भाव की जरूरत होती है, वह रमन सिंह में कूट कूटकर
भरा हुआ है। वे यह भी नहीं देखते कि केंद्र सरकार मदद करेगी तब समस्या
का हल किया जाएगा। वे अपने दम पर भी समस्या से जूझने को तैयार रहते हैं।
जिस तरह से विश्व मंदी के दौर को और खाद्यान्न की बढ़ी कीमतों के दौर
को डा. रमन सिंह ने पहले ही पहचान लिया था ओर गरीबो के पेट भूखे न रहें
इसलिए 3 रू. किलो मे चांवल देने की योजना का आगाज किया था, उससे ही समझ
में आ गया कि डा. रमन सिंह की दूरदृष्टि कितनी पैनी है। आलोचना करने
वालों की कमी नहीं है कि सस्ता अनाज देकर लोगों को निकम्मा बना रहे हैं,
डा. रमन सिंह लेकिन यह आलोचना कर कौन रहे हैं? वे लोग जो गरीबों के श्रम
का शोषण करते हैं। आज गरीब का पेट भरा हुआ है तो वह किसी भी कीमत पर काम
करने को तैयार नहीं है। वह मनमाफिक मजदूरी चाहता है। जब बाजार में हर
वस्तु की कीमत आसमान पर हो तब मजदूर की मजदूरी ही सस्ती क्यों होना
चाहिए?आखिर बाजार से ही तो उसे भी हर वस्तु खरीदना पड़ता है। डा. रमनसिंह
ने इस बात को भी पहचाना कि गरीब का पेट भर दो। भूख उसकी मजबूरी न बने तो
उसका शोषण भी रूक सकता है और आज स्थिति ऐसी है कि मजदूर के न केवल काम के
घंटे कम हुए बल्कि उसे मजदूरी भी पर्याप्त मिलने लगी।

प्रधानमंत्री रोजगार योजना में भी लोग काम करने के लिए तैयार नहीं हैं।
क्योंकि प्रधानमंत्री रोजगार योजना में जो मजदूरी मिलती है, उससे अधिक
मजदूरी दूसरे काम में मिलती है। फिर नगद मजदूरी मिलती है। काम लेने वाला
जानता है कि आगे भी काम कराना है तो मजदूरी देने के मामले में बेईमानी
नहीं चलेगी। स्वाभाविक रूप से मजदूर के स्वाभिमान की इज्जत बढ़ी है।
नक्सली भी इस बात को समझते हैं कि डा. रमन सिंह की विकास योजनाएं उनके
प्रभाव वाले क्षेत्र में घुस गयी तो फिर बंदूक के बल पर आदिवासियों को
आतंकित करके अपने पक्ष में चुप रखना कठिन ही नहीं असंभव हो जाएगा। 2 रू.
किलो चांवल ने ही डा. रमन सिंह की लोकप्रियता में इतना इजाफा किया है कि
केंद्र सरकार तक 3 रू. किलो में अनाज देने के लिए बाध्य हुई। चुनाव के
पूर्व जब यह योजना लागू की गई थी तब कांग्रेसियों ने ही कम विरोध नहीं
किया था लेकिन आज जब पानी रोको अभियान डा. रमनसिंह चला रहे हैं तब तो कोई
चुनाव सामने नहीं है।

यह कोई चुनावी मुहिम नहीं है बल्कि यह भविष्य की तैयारी है। जिससे
छत्तीसगढ़ सब तरह का विकास तो कर ले लेकिन पानी के बिना सब तरह का विकास
बेमानी न साबित हो। पानी ही जीवन है और उसकी अनुपलब्धता कैसी स्थिति
निर्मित कर सकती है, इसकी कल्पना से ही रोगंटे खड़े हो जाते हैं। 1 माह
के लिए जो अभियान चलाया जा रहा था, उसे 3 वर्ष तक चलाने के लिए
मुख्यमंत्री सहमत हो गए है। पानी की सुरक्षा और संचय के लिए मुख्यमंत्री
बड़ा कानून बनाने पर भी विचार कर रह हैं। वाटर हार्वेस्टिंग लागू होने के
बावजूद नगरीय संस्थाएं कड़ाई से इसका पालन नहीं करा रही है। ऐसे में
सरकार को बाध्य होकर अब बिजली का कनेक्शन देने के मामले में वाटर
हार्वेस्टिंग को अनिवार्य करने का नियम बनाना पड़ रहा है। नलों में मीटर
लगाने की योजना पर भी नगर निगम काम कर रही है। जिससे जितना पानी कोई
उपयोग करे उससे उतना धन वसूला जा सके। यह सिर्फ धन वसूलने की बात नहीं है
बल्कि मुफत में मिलने वाली सुविधा का मूल्य न समझने के कारण मीटर लगाना
पड़ रहा है। जिससे जब पैसा देना पड़े तब समझ में आए कि अपव्यय का क्या
अर्थ होता है?

आगे स्थानीय संस्थाओ को इस पर भी विचार करना चाहिए कि जो पानी वे दे रहे
हैं, वह पीने के काम तो आता ही है, इसके साथ ही साथ दूसरे भी सभी काम
इसी पानी से लिए जाते हैं। भविष्य में दो अलग अलग तरह के पानी के प्रदाय
की भी व्यवस्था करना चाहिए। मीठे और खारे पानी का भेद भी समझा जाना
चाहिए। फिल्टर प्लांटों से जहां शुद्घ पानी दिया जाता है, वहीं कई
मोहल्ले में बोरिंग पानी भी स्थानीय संस्थाएं प्रदाय करती है। यह पानी
खारा होता है और कहीं कहीं यह बीमारी का कारण भी होता है। चिकित्सक
स्वयं मानते हैं कि बहुत सारी बीमारियों का कारण पानी की अशुद्घि है।
संपन्न लोग तो अपने घरों में फिल्टर की छोटी छोटी मशीनें लगा लेते हैं
लेकिन हर किसी के बस की बात तो यह है, नहीं। पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण
के कारण उसका असर पानी पर भी पड़ता है। भूगर्भ के पानी के प्रदूषित होने
के भी समाचार मिलते ही हैं। वाटर हार्वेस्टिंग के ही समय पृथ्वी के गर्भ
में प्रदूषित पानी न जाएं, इसकी पुख्ता व्यवस्था होना चाहिए।

शुद्घ पानी जीवनदायी है तो अशुद्घ पानी बीमारी का घर है। इसलिए 21 वीं
सदी में तो इस बात की और ज्यादा जरूरत है कि मनुष्य को शुद्घ पेयजल
उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए। आबादी कम होने के तो कोई लक्षण नहीं
दिखायी देते। गांवों में बढ़ती आबादी को अंतत: रोजी रोटी की तलाश में
शहरों की तरफ ही पलायन करना पड़ता है। छत्तीसगढ़ में रायपुर, भिलाई,
दुर्ग एक बहुत बड़ा आबादी का क्षेत्र आज ही है। वह दिन दूर नहीं जब नया
रायपुर के साथ आबादी इन क्षेत्रों में 50 लाख का भी आंकड़ा पार कर
जाएगी। कितने नगर निगम, नगर पालिका, नगर पंचायत इस क्षेत्र के अंदर होंगे
और तब वृहत रायपुर की कल्पना भी साकार होगी। आज भी इन स्थानो की यात्रा
हजारों लोग प्रतिदिन करते हैं। सरकार ने मेट्रो चलाने की भी घोषणा कर रखी
है। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों इसे सरकार को करना भी पड़ेगा। जिस
तरह से विकास हो रहा है, उससे तो स्पष्ट दिखायी देता है कि आने वाले कल
में पानी की बहत बड़ी मात्रा की जरूरत इस क्षेत्र को पड़ेगी। ऐसा भी समय
आ सकता है कि गंगरेल बांध का पूरा पानी इस क्षेत्र के नागरिकों की
आवश्यकता ही पूरा करने में खर्च हो जाए। नक्सली समस्या की तरह पानी की
समस्या पर भी युद्घ स्तर पर काम करने की जरूरत है। कभी भोपाल ताल
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के लिए काफी था लेकिन अब पानी कम पडऩे लगा।
पिछले वर्ष ही वृहत स्तर पर भोपाल ताल की सफाई और खुदाई का काम किया गया।
मुख्यमंत्री ने ध्यान दिया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि बिजली की तरह
पानी के मामले में भी छत्तीसगढ़ सरप्लस राज्य ही रहेगा। कोई कमी नहीं आने
दी जाएगी।

-विष्णु सिन्हा
16-05-2010
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