यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 14 मई 2010

नितिन गडकरी ने अभद्र भाषा का प्रयोग कर पार्टी की छवि ही खराब की

नितिन गडकरी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो बन गए लेकिन अभी उन्हें
बहुत कुछ सीखना बाकी है। सबसे पहले तो भाषा की मर्यादा ही उन्हें समझना
पड़ेगा। जिस तरह से उन्होंने चंडीगढ़ में मुलायम सिंह यादव और लालू
प्रसाद यादव के विषय में कहा कि ये कुत्ते की तरह सोनिया गांधी के तलवे
चाटते है, पूरी तरह से अमर्यादित था। यह बात दूसरी है कि गलती का आभास
होने पर उन्होंने दूसरे ही दिन न केवल खेद प्रगट किया बल्कि अपने शब्द भी
वापस ले लिए। इससे मुलायम सिंह ने उन्हें माफ कर दिया लेकिन लालू प्रसाद
यादव अड़े हुए है कि जब तक नितिन गडकरी कान पकड़ कर उठक बैठक लगाते हुए
माफी नहीं मांगते तब तक वे माफ नहीं करेंगे। कुछ दिन पहले भाजपा के ही
नेता अनंत कुमार ने लालू प्रसाद यादव को लोकसभा में ही गद्दार तक कहा है।
लगता है कि राजनीति में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा मिट गयी है।
इसके पहले बिहार में चुनाव के समय खुले मंच से लालू प्रसाद यादव की
धर्मपत्नी राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जद के एक नेता को
साले बहनोई कह कर अभद्रता का व्यवहार किया था। उन पर मानहानि का मुकदमा
दर्ज कराया गया है और राबड़ी देवी के विरुद्ध न्यायालय ने समंस भी जारी
कर दिया है। इसके पहले विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगडिय़ा ने तो सोनिया
गांधी के लिए कुतिया शब्द का भी प्रयोग किया था। छत्तीसगढ़ के ही पूर्व
मुख्यमंत्री अजीत जोगी अपने भाषणों में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को लबरा
मुख्यमंत्री कहते रहे हैं। भावावेश या क्रोध में जनता के सामने अति
उत्साहित होकर जो नेता भद्रता की सभी सीमाओं को लांघ जाते हैं, यह स्वस्थ
प्रजातंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है लेकिन यह हो रहा है। सबको दिखायी दे
रहा है। सोनिया गांधी ने ही गुजरात के चुनाव के समय नरेंद्र मोदी को मौत
का सौदागर कहा। यह वक्तव्य भी भद्रता की सीमा को लांघने वाला हैं।
लेकिन ऐसे वक्तव्यों से जनता को प्रभावित किया जा सकता है, यह सोच
निरर्थक है। चंद लोगों को भले ही यह ठीक लगे, उत्साहवर्धक लगे लेकिन आम
आदमी अपने नेताओं से मर्यादा की ही उम्मीद करते है। कुछ वर्ष पूर्व बसपा
भी नारा लगाती थी कि तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूता चार। महात्मा
गांधी की भी आलोचना अच्छे शब्दों में नहीं की जाती थी लेकिन देर अबेर
उहें समझ में आ गया कि तिलक, तराजू और तलवार को जूते मारने से सत्ता
नहीं मिलने वाली है तो उन्होंने सर्व समाज के हित की बात कहनी प्रारंभ की
और बसपा में सभी को प्रतिनिधित्व दिया। उन्हें परिणाम भी मिला और आज
उत्तरप्रदेश में उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार है। हमारा देश ऐसा है कि यहां
सबको जो पार्टी साथ लेकर चलेगी, वही सत्ता पर काबिज हो सकी है। वर्गभेद,
जातिभेद, संप्रदाय भेद की राजनीति करने वालों के हाथ असफलता ही लगती है।
नितिन गडकरी को सीखना होगा कि जोश में होश न खो दें। जबान से निकली बात
परायी हो जाती है और व्यक्ति की मानसिकता को उजागर कर जाती है। आम आदमी
अपनी निजी जिंदगी में किसी भी तरह की भाषा का उपयोग करें लेकिन वह अपने
नेताओं से भद्र, मर्यादित भाषा और व्यवहार ही चाहता है। पूर्व
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भाषा देखें। आलोचना करने में वे कभी
पीछे नहीं रहे लेकिन अमर्यादित, असंसदीय शब्दों का उपयोग उन्होंने कभी
नहीं किया। लालकृष्ण आडवाणी को ही नितिन गडकरी देखें। उन्होंने आलोचना की
और स्वयं आलोचना का शिकार हुए लेकिन फिर भी भाषा की मर्यादा का पालन
किया। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही देखें। पूरी तरह से
मर्यादित भाषा का उपयोग करते हैं और अपने बड़प्पन का सबूत देते हैं। बात
आपकी तथ्यपूर्ण हो तो अभिव्यक्त करने के लिए अमर्यादित भाषा की आवश्यकता
नहीं पड़ती। तथ्य और सत्य स्वयं इतने प्रभावशील होते हैं कि भाषा कमजोर
हो तब भी व्यक्त हो जाते हैं।

कितने ही नेता इस देश में बड़े-बड़े पदों पर बैठे। वे अच्छे वक्ता भी
नहीं माने जाते। फिर भी उनके कृत्यों ने उन्हें सम्मान का हकदार बनाया।
बातों की लफ्फाजी ही सब कुछ नहीं होती। यदि बातों की लफ्फाजी लोगों को
प्रभावित करती तो डॉ. रमन सिंह की सरकार कब का जनादेश खो देती। क्योंकि
उनके विरोधियों ने चुनाव में डॉ. रमन सिंह के विरुद्ध कम लफ्फाजी नहीं की
लेकिन असलियत के जानकार लोग लफ्फाजी से प्रभावित नहीं हुए। डॉ. रमन सिंह
अपने भाषणों में, वक्तव्यों में मर्यादित भाषा का उपयोग करते है। वे बात
से ज्यादा काम पर विश्वास करते हैं। समस्या प्रदेश में कैसी भी हो, वे
समस्या को समाप्त करने के लिए कृत संकल्पित रहते है और परिणाम आता है।
अक्सर तो वे विपक्ष की आलोचना का जवाब शब्दों में न देकर काम से देते है।
नितिन गडकरी को उनसे ही सीखना चाहिए। मेरी जेब में 10 रुपए का नोट न हो
तब भी मैं 5 हजार करोड़ की कंपनी खड़ा कर सकता हूं जैसे वक्तव्य सिर्फ
अहंकार का ही द्योतक हैं। कितनी कंपनी सफलतापूर्वक चलायी, इससे
राष्ट्रीय पार्टी को भी अच्छी तरह से संचालित कर लेंगे, यह जरुरी नहीं
हैं।

इस देश में अरबों खरबों की कंपनी चलाने वाले लोग हैं। कंपनियों की तरह
राजनैतिक पार्टियां चलती तो आज किसी न किसी कंपनी का देश में शासन होता।
बिरला तो लोकसभा का चुनाव नहीं जीत पाए थे। कुछ कंपनी चलाने वाले
राज्यसभा में अवश्य पहुंच जाते हैं लेकिन कैसे और क्यों पहुंचते हैं, यह
सबको पता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कारण नितिन गडकरी भाजपा के
अध्यक्ष बने। हालांकि यह बात वे स्वीकार नहीं करते। जब मोहन
भागवत ने कहा था कि दिल्ली के चार बड़े नेताओं में से कोई भी पार्टी
अध्यक्ष नहीं बनेगा तब इतने बड़े देश में फैले लाखों भाजपा कार्यकर्ताओं
के बीच से नितिन गडकरी का चयन किस प्रक्रिया से हुआ? न समझ में आने वाली
प्रक्रिया के बावजूद नागपुर के एक कार्यकर्ता का चयन तो स्पष्ट कर ही
देता है कि संघ के कारण हुआ। यदि चुनाव होता तो पार्टी में लडऩे वालों की
कमी नहीं थी। लडऩे वालों को चुप कराने की ताकत सिर्फ संघ के पास हैं और
उसने अपनी शक्ति का उपयोग किया।

इसका सीधा अर्थ है कि धूल से उठा कर पार्टी को सत्ता सिंहासन तक पहुंचाने
की जिसे जिम्मेदारी सौंपी गयी है, उसकी असफलता पार्टी को धूल से उठने
नहीं देगी। पहले महंगाई के विरुद्ध दिल्ली में प्रदर्शन के दौरान बेहोश
होकर गिर जाना, शारीरिक अक्षमता का पता दे गया। अब लालू-मुलायम को कुत्ता
कहना मानसिक कमजोरी का भी परिचय दे गया। पार्टी को उत्साह से भरने के
बदले अपनी बात पर माफी मांगते अध्यक्ष से क्या उम्मीद करना चाहिए? क्या
गडकरी समझते हैं कि इस तरह की भाषा का प्रयोग कर वे पार्टी में नई
प्राणवायु फूंक सकेंगे। जब लालू कहते हैं कि गडकरी कान पकड़ कर उठक बैठक
कर माफी मांगें तब कैसा संदेश सबको मिलता है? अभी चुनाव में समय है लेकिन
ऐसी ही गलती गडकरी करते रहे तो संघ और पार्टी को उनसे जो आशा है, वह तो
पूरी नहीं हो सकेगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 14.05.2010
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