आखिर बाबा रामदेव अपनी महत्वाकांक्षा छुपा नहीं पाए और गुड़ी पड़वा के दिन घोषणा कर ही दी कि वे भारत स्वाभिमान के नाम से राष्ट्रीय पार्टी बनाएंगे। अगला चुनाव उनकी पार्टी के बैनर तले 543 उम्मीदवार लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। वे अच्छे, ईमानदार लोगों को चुनाव के मैदान में उतारेंगे लेकिन बाबा स्वयं चुनाव नहीं लड़ेंगे। वे राजनीति से प्राप्त सत्ता के किसी पद पर नहीं बैठेंगे। पहले भी ऐसे महान पुरुष हुए हैं जिन्होंने राजनीति तो सक्रिय की लेकिन सत्ता का पद नहीं संभाला। महात्मा गांधी का नाम इस सूची में प्रथम लिया जा सकता है और दूसरा नाम जयप्रकाश नारायण का है। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की सत्ता वर्षों कांग्रेस के हाथ में रही तो उसमें पीछे से बहुत बड़ा हाथ महात्मा गांधी की पुण्याई का रहा लेकिन एक से एक ईमानदार अनुयायियों के बावजूद महात्मा गांधी के अनुसार या नीति सिद्धांतों पर तो कांग्रेस नहीं चली। महात्मा गांधी ने तो स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग कर देने तक की सलाह दी लेकिन उनकी सलाह नहीं मानी गयी।
आजादी की लड़ाई में जिन लोगों ने त्याग तपस्या का परिचय दिया, वे सभी सत्ता मिलते ही एकदम बदल गए। यहां तक कि गांधी जी की सलाह है भी उन्हें बोझ लगने लगे। स्वतंत्रता के बाद जल्द ही गांधीजी की हत्या कर दी गई और गांधीवाद से मुक्ति का रास्ता खुल गया। महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता माना गया लेकिन पिता का सम्मान 2 अक्टूबर गांधी जी के जन्मदिन तक सीमित हो गया। कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश में बड़ा आंदोलन हुआ। आंदोलन से भयभीत होकर देश में आपातकाल भी लगाया गया। हजारों नेताओं को स्वतंत्र भारत में बिना मुकदमे जेल में बंद कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण सहित, जिसने भी जयप्रकाश नारायण का समर्थन किया, उसकी जगह जेल ही बन गयी। फिर चुनाव हुआ और सभी विपक्षी दलों ने जिनके नेता जेल में थे, ने मिल कर जनता पार्टी बनायी और जनता के भरपूर समर्थन से जनता पार्टी की सरकार दिल्ली में बन गयी। सरकार बनी लेकिन नेताओं की अपनी महत्वाकांक्षा के कारण ढाई वर्ष में ही जनता के विश्वास पर खरी न उतरने के कारण सरकार गिर गयी। जो कल सत्ता के लिए एक हुए थे, वे सब के सब फिर अलग हो गए।
भ्रष्टïचार का आरोप लगा कर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी की सरकार के विरुद्ध जनता को तैयार किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की छवि एक ईमानदार नेता की थी लेकिन कांग्रेस के हाथ से सत्ता छीनने में तो वे सफल हो गए लेकिन गठबंधन और समर्थक दलों को अपने साथ नहीं रख पाए। 11 महिने में ही उनकी सरकार धराशायी हो गयी। फिर गठबंधन की अटल बिहारी की सरकार भी बनी। 6 वर्ष तक चली लेकिन फिर जनता ने उससे भी मुख मोड़ लिया। आज स्थिति यह है कि लोकसभा में किसी भी दल के पास पूर्ण बहुमत नही है। 20 वर्ष से अधिक समय हो गया। किसी भी दल की पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बनी। सरकार बचाने के लिए, बनाने के लिए सांसदों की खरीद फरोख्त तक होती रही। भ्रष्टाचार का विस्तार दिन दूना रात चौगुना होता गया। नौकरशाहों के यहां से ही सैकड़ों करोड़ रुपए पकड़े जाने लगे। एक पोस्ट मास्टर जनरल के यहां से तो विदेशी बैंक में जमा धन की भी पुष्टि हुई।
माना जाता है कि लाखों करोड़ रुपया देश का विदेशी बैकों में जमा है। जिसे वापस लाया जा सके तो देश की तकदीर बदल सकती है। चुनाव के समय जब बाबा रामदेव ने इस मुद्दे को उठाया तो कांग्रेस, भाजपा दोनों ने जनता से वायदा किया कि वे देश का धन देश में लाएंगे। जनता ने सत्ता कांग्रेस को सौपी है और यह जिम्मेदारी मनमोहन सिंह की है कि वे इस मामले में कार्यवाही करें लेकिन पेट्रोल डीजल की कीमत बढ़ा कर महंगाई को और बढ़ाने का काम तो सरकार कर रही है लेकिन इस मामले में वह कुछ विशेष कर सकी है, अभी तक, यह तो दिखायी नहीं पड़ता। एक आंकलन के अनुसार यदि सारा धन लाकर जनता में बांट दिया जाए तो प्रत्येक परिवार को लाखों रुपए दिए जा सकते है। देश को विकास के लिए विदेशी निवेशकर्ताओं की जरुरत ही न पड़े लेकिन इसके लिए जिस इच्छाशक्ति की जरुरत है, वह सरकार में दिखायी नहीं पड़ती।
बाबा रामदेव जिन मुद्दों को लेकर राजनीति में आना चाहते हैं, उनमें यह प्रमुख मुद्दा है लेकिन प्रश्र यही खड़ा होता है कि ऐसे ईमानदार व्यक्ति बाबा लाएंगे कहां से जो संसद में जाकर भी ईमानदार ही बने रहें। सत्ता में आकर भी जो भ्रष्ट होने से अपने को रोक सकें। पिछली लोकसभा में तो प्रश्र पूछने के लिए भी धन लेते सांसद देखे गए है। चुनाव में कालेधन का प्रयोग इस कदर बढ़ा हुआ है कि ईमानदार व्यक्ति तो चुनाव लडऩे और जीतने के विषय में सोच तो सकता है लेकिन वह जीत भी सकता है, इसके अवसर वर्तमान व्यवस्था में तो दिखायी नहीं देते। लोकसभा और विधानसभा की बात जाने दें, नगर निगम का पार्षद, गांव का पंच सरपंच तक का चुनाव अब लाखों रुपए मांगता हैं। कितने सांसद या विधायक हैं जिन्होंने फूटी कौड़ी खर्च न की हो और चुनाव जीत लिया हो। पार्र्टियों का ही खर्च सामूहिक रुप से करोड़ों का नहीं अरबों का है।
अभी शायद बाबा को चुनाव की असलियत का ज्ञान नहीं है। फिर मान भी लें कि बाबा की बात से प्रभावित होकर जनता ने बाबा के प्रत्याशियों को जितवा भी दिया तो सत्ता प्राप्त करने के बाद वे सब ईमानदारी से काम करेंगे, इसकी गारंटी क्या है? जब महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण जैसे नेता अपने अनुयायियों की बर्दाश्त के बाहर हो गए थे तब बाबा रामदेव का भी वही हाल नहीं होगा, ऐसा कैसे माना जा सकता है? आदर्शवाद स्वप्न के रूप में, सोच के रुप में अच्छा है लेकिन वास्तविकता के धरातल में वह टिकता तो नहीं। बाबा भले ही समझते है कि उनसे योग सीखने वाले योग के द्वारा ईमानदार और आदर्शवादी बन रहे हैं लेकिन अधिकांश तो अपनी बीमारियों से परेशान होकर बाबा के योग की शरण में है। योग और आयुर्वेद से रोग भाग जाए, यही बहुत बड़ी सेवा है, बाबा की लेकिन बाबा की यह सोच कि ये बीमारी दूर करने के लिए इकट्ठा हुए लोग राजनीति में भी उनके लिए उपयोगी होंगे, उनकी खामख्याली साबित हो सकता है।
वर्तमान राजनैतिक दलों से पूरी तरह से निराश यदि जनता हो जाए तो एक बार को वोट मिल सकते हैं लेकिन तब जनता की महत्वाकांक्षा पर खरा उतरना इतना आसान तो है, नहीं। भ्रष्ट व्यवस्था को तोडऩे की कोशिश में भ्रष्ट लोग यदि परेशान हुए तो उनकी शक्ति को भी कम नहीं आंकना चाहिए। वे हर तरह का षडय़ंत्र करना जानते हैं लेकिन यह बात तो तब लागू होगी जब सत्ता बाबा के अनुयायियों के हाथ में होगी। इसके पहले बाबा के अनुयायी जीत ही न पाएं, इसके लिए कम कोशिश नहीं की जाएगी। फिर भी इस अव्यवस्था में अच्छी व्यवस्था का स्वप्न देखने के लिए बाबा रामदेव को साधुवाद लेकिन कठिन डगर है, पनघट की।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक 17.03.2010
बुधवार, 17 मार्च 2010
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
mahatvakanksha me ati ek bimari hai
जवाब देंहटाएंप्रतिप्रश्न है कि क्या गुंडों के विरुद्ध एक अच्छे आचरण वाले आदमी का चुनाव करना गलत है, या यह हो सकता है वो हो सकता है की आशंकाओं में लटककर जो चीज सामने है, उसे भी छोड़ दिया जाये.
जवाब देंहटाएंहमारा साधुवाद भी..
जवाब देंहटाएं'आजादी की लड़ाई में जिन लोगों ने त्याग तपस्या का परिचय दिया, वे सभी सत्ता मिलते ही एकदम बदल गए।' आपका यह कथन सही नहीं है, कुर्बानी देने वाला कोई व्यक्ति नहीं बदला. किंतु सत्ता उन लोगों ने, विशेषकर नेहरू ने, हथिया ली जो स्वतंत्रता संग्राम के समय भी अँग्रेज़ों की शरण में वैभव भोग रहे थे.
जवाब देंहटाएंरही रामदेव की बात तो यह अपेक्षित था की वे राजनैतिक महत्वाकांक्षा रखते है और इसीलिए भ्रमों का प्रचार कर आर्थिक सत्ता हथियाने पुण्य कार्य किया. मेरा अब भी डॉवा है रामदेव के प्रचार से एक् व्यक्ति भी स्वस्थ नहीं हुआ है और भ्रमों की पैठ और अधिक गहराई तक हुई है.
हम लोग अक्सर ये सोच लेते है कि पार्टी बदल जाने से लोगो की तकदीर बदल जाएगी. अफ़सोस हर बार जनता गलत होती है. भ्रष्टाचार आज राजनीति में ही नहीं वरन अफसरशाही, नयायपालिका सब जगह व्याप्त है. अगर बाबा रामदेव की पार्टी बहुमत से जीत भी जाती है तो भी आप क्या समझते है ग्राउंड लेवल पर कार्य को अमलीजामा पहनाने वाले भ्रष्ट और हरामखोर अफसर, चपरासी और बाबु लोग अपना काम ठीक से करने लग जायेंगे. ये इतना जर्जर हो चूका तंत्र है जिसका अब कोई ईलाज नहीं दीखता. इसलिए देश का बहुत भला हो, ऐसा मुश्किल ही लगता है.
जवाब देंहटाएंबाबा जी सफ़ल ज़रूर होन्गे ! हमारा सहयोग और साधुवाद!
जवाब देंहटाएं