यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 20 मार्च 2010

कानून का भय होता तो न तो महंगाई बढ़ती और न ही सरकार को रोज नए कानून बनाने पड़ते

केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों एवं पेंशनरों का महंगाई भत्ता 27 से बढ़ा कर 35 प्रतिशत कर दिया। इसका स्पष्ट अर्थ होता है कि सरकार ने माना की महंगाई बढ़ी है। केंद्र सरकार के कर्मचारियों को तो 8 प्रतिशत महंगाई भत्ता बढऩे से राहत मिलेगी लेकिन करोड़ों लोग जिन्होंने सरकार को चुना उनको महंगाई की मार से कौन बचाएगा? जनता के द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार अपने कर्मचारियों की तकलीफ तो समझती है लेकिन जनता की तकलीफ समझने के लिए उसके पास फुरसत नहीं है। जब पेट्रोल डीजल की बढ़ी कीमत वापस लेने के लिए विपक्ष सरकार से आग्रह करता है तो सरकार के वित्त मंत्री एक्सक्यूज मी कह कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। केंद्र सरकार ने जब अपने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ा दिया तब राज्य सरकारों को भी देर अबेर बढ़ाना तो पड़ेगा। जिसका अर्थ होगा विकास की योजनाओं एवं जनता के लिए खर्च की जाने वाली रकम में कटौती । केंद्र सरकार ने छठवां वेतन आयोग की सिफारिश लागू कर राज्य सरकार को भी उसे मानने के लिए बाध्य किया। प्रत्यक्ष रुप से न सही लेकिन अप्रत्यक्ष रुप से राज्य सरकारों पर दबाव डालने की स्थिति तो निर्मित हो ही जाती है।

देश की कुल आबादी का अधिक से अधिक 2 प्रतिशत शासकीय कर्मचारी है। एक कर्मचारी के परिवार में 5 सदस्य भी मानें तो शासकीय नौकरी का लाभ 10 प्रतिशत जनता को होता है। लेकिन 90 प्रतिशत जनता तो असुरक्षित क्षेत्र से ही अपनी आजीविका कमाती है। महंगाई का असर सबसे ज्यादा इन्हें ही भोगना पड़ता है। इनमें से भी 20 प्रतिशत जनता को संपन्न मान लिया जाए तो 70 प्रतिशत जनता की आय के क्षेत्र एकदम निश्चित नहीं है। खासकर कृषि क्षेत्र में लगे लोगों की। हालांकि सरकार विभिन्न योजनाओं के द्वारा इन्हें लाभ पहुंचाने की कोशिश करती है लेकिन फिर भी उत्पादन तो बहुत सारी बातों पर निर्भर करता है। खाद के भाव बढ़ गए। गेहूं की बंपर फसल है तो भाव उचित मिलने की संभावना कम हो जाती है। ऊपर से कृषि मंत्री शरद पवार कहते है कि वे अर्थशास्त्री नहीं है। वे तो किसान हैं। यदि वास्तव में वे किसान हैं तो किसानों के दुख तकलीफों से सबसे ज्यादा वाकिफ उन्हें ही होना चाहिए। वे बड़ा मजाकिया जवाब देते हैं कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। मीडिया वालों ने महंगाई बढ़ायी। जो वे कहते हैं मीडिया उसे आम जनता के सामने खबरों के रुप में प्रस्तुत करता है। मीडिया के हाथ में महंगाई बढ़ाना या कम करना होता तो फिर मीडिया ही सब कुछ हो जाता। मीडिया ही महंगाई का कारण है तो मीडिया बढ़ती महंगाई का रोना क्यों रोता है?

असफलताओं और गल्तियों के कारण शक्कर की कीमत बढ़ी। पहले वह इसका ठिकरा राज्य सरकारों के सर फोड़ती रही लेकिन जब बात हजम नहीं हुई तब मायावती के सर मढऩे की कोशिश की गयी। तब भी दाल न गली तो अब मीडिया को महंगाई का कारण बताया जा रहा है। 3 लाख से अधिक कमाने वालों को आयकर में छूट दी जा रही है और पेट्र्रोल डीजल की कीमत बढ़ाकर आम आदमी को महंगाई के हवाले किया जा रहा है। 4 दिन महंगाई नीचे आती है तो फिर अपनी जगह पहुंचने के लिए जी तोड़ कोशिश करने लगती है। दरअसल कमायी का ऐसा चस्का है कि भाव गिरना व्यापारी बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। विपक्ष मांग करता है कि खाद्यान्न का सट्टा बंद किया जाए लेकिन सरकार के कान पर जूं भी नहीं रेंगती।

महंगाई का सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ता है। क्योंकि आज भी घर तो उन्हें ही चलाना पड़ता है। महिलाओं को महिला आरक्षण के नाम पर फुसलाया जा रहा है। उनकी तरक्की के स्वप्न दिखाए जा रहे हैं। अच्छा है। गलत नहीं है। शायद महिलाओं के ही हाथ में सत्ता की चाबी आए तो भ्रष्टïचार पर लगाम लगे। यह बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि बढ़ी हुई महंगाई में भ्रष्टाचार का भी बहुत बड़ा हाथ है। साढ़े बारह रुपए किलो शक्कर निर्यात की जाती है और 35-36 रुपए किलो कच्ची शक्कर आयात की जाती है। अब गेहूं की बंपर फसल हुई है और सरकार के पास पहले से ही बपर स्टाक है। तब कहा जा रहा है कि निर्यात की अनुमति नहीं दी जाएगी। क्यों? इसलिए कि किसानों का गेहूं व्यापारियों, दलालों के गोदाम में सस्ते में खरीद कर भरा जा सके। वक्त आने पर महंगी कीमत पर देश में ही नहीं विदेशों को भी निर्यात किया जा सके। किसान बेचारा तो इस खेल को समझता नहीं और उसके श्रम को लूट कर अपना खजाना भरने वालों की कमी नहीं है।
लोगों का ध्यान किस तरह से मूल समस्या से हटे, इसके लिए महिला आरक्षण, कैपिटेशन फीस ली तो जेल जैसे मुद्दे उछाले जाते हैं। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल लोकसभा में विधेयक पेश कर रहे हैं कि जो संस्थाएं कैपिटेशन फीस लेंगे तो उन्हें 5 से 50 लाख जुर्माना के साथ 3 वर्ष की जेल भी हो सकती है। कैपिटेशन फीस कोई आम आदमी भर कर तो अपने बच्चों को पढ़ाता नहीं। धनी लोग ही अपने अयोग्य बच्चों को येन-केन-प्रकारेण पढ़ाना चाहते हैं। ऐसे लोग खुशी-खुशी कैपिटेशन फीस देते हैं। उन्हें दी गई फीस की रसीद भी नहीं चाहिए। वे तो अपने बच्चों को परीक्षा में उत्तीर्ण कराने के लिए भेंट पूजा देने से भी पीछे नहीं रहते। लेने वाला भी खुश और देने वाला भी खुश। मैनेजमेंट के पास जो सीटें होती हैं उसे बेच कर ही तो कॉलेज प्रबंधन अपना घर भरता है। यह लाभ न मिले तो अच्छे कॉलेजों का खुलना ही बंद हो जाए। जब लाभ नहीं होगा तो कौन कॉलेज खोलना चाहेगा?

देश में हर तरह के अपराध के लिए कानून हैं लेकिन क्या कानूनों से अपराध की रोक थाम हुई या उसमें इजाफा ही हुआ। भ्रष्टाचारी को किसी तरह का भय नहीं सताता। वह जानता है कि धन में बहुत बड़ी ताकत है । यदि धन है उसके पास तो बचने के रास्ते भी निकाल लेता है। एक विख्यात उपन्यासकार मारियो पूजो ने तो लिखा है कि बिना अपराध के धन के ढेर नहीं लगते। कानून की आड़ में कमजोरों को धमकाया चमकाया तो जा सकता है और उनसे अपने मनमाफिक काम करवाए जा सकते हैं लेकिन अपराध को जड़ मूल से नष्ट नहीं किया जा सकता। कभी नैतिक मूल्य ईमानदारी की बड़ी कीमत थी लेकिन अर्थ प्रधान युग में अर्थ की ही सबसे बड़ी कीमत है। इसीलिए तो धन कमाने वाले नैतिक मूल्यों को एक ताक रख देते हैं। ऐसा नहीं होता तो न तो महंगाई बढ़ती और न ही तरह-तरह के कानून बनाने की सरकार को जरुरत पड़ती।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 20.03.2010

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