यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 25 मार्च 2010

महिला आरक्षण के बहाने देश की संपूर्ण सत्ता प्राप्त करने की कोशिश

जनसंख्या के आधार पर जब विधानसभा क्षेत्र का परिसीमन किया गया तब अनुसूचित जनजाति की सीटें कम हुई। आदिवासी नेताओं ने मांग भी की कि उनकी सीटें कम न की जाए लेकिन न्याय पूर्ण तो यही था कि उनकी सीटें कम की जाएं। छत्तीसगढ़ में सीट कम हुई आदिवासियों की तो मध्यप्रदेश में बढ़ी थी। जिसे जो उसके हक के अनुसार मिलना चाहिए, वह अवश्य मिलना चाहिए लेकिन दूसरों का हक छीन कर अन्यों को देना न्यायपूर्ण नहीं है। जब संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया था तब उसकी समय सीमा 10 वर्ष रखी गयी थी। राजनैतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति ने समय सीमा में निरंतर वृद्धि की और आज 60 वर्ष पूरे होने के बावजूद संविधान निर्माताओं की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई। संविधान निर्माता समझते थे कि 10 वर्षों के आरक्षण के बाद समाज के सभी वर्ग समान हो जाएंगे लेकिन राजनैतिक व्यवस्था ऐसा करने में सफल नहीं हुई।

10 वर्ष में आरक्षण समाप्त होने की बात तो दूर, यह एक तरह से अधिकार बन गया। कितने ही लोग आरक्षण का लाभ प्राप्त कर शासकीय नौकरी प्राप्त कर अवकाश प्राप्त कर चुके लेकिन आरक्षित समाज का पिछड़ापन दूर नहीं हुआ बल्कि आरक्षण का दायरा ही बढ़ गया। मंडल आयोग की सिफारिशों को मानकर पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण दिया गया। पक्ष विपक्ष में कितने ही आंदोलन हुए और लोगों ने अपनी जान तक गंवायी लेकिन राजनीति को जब सत्ता प्राप्त करने के हथियार के रुप में आरक्षण मिला तो ऐसा मिला कि सब आरक्षण के गंगासागर में डुबकी लगाने के लिए तैयार दिखे। आरक्षण का बढ़ता दायरा महिलाओं तक भी जा पहुंचा है। प्रदेश सरकारों ने स्थानीय संस्थाओं में महिला आरक्षण दे दिया और यह 50 प्रतिशत तक पहुंच गया है। अब बारी लोकसभा और विधानसभा में महिला आरक्षण की है। कांग्रेस भाजपा वामदल महिलाओं को इन संवैधानिक संस्थाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण 15 वर्ष के लिए देने को तैयार हैं तो पिछड़े वर्ग के नेता मांग कर रहे हैं कि 33 प्रतिशत में पिछड़े वर्ग की महिलाओं को अलग से आरक्षण निश्चित किया जाए। आरक्षण के विरुद्ध कोई नहीं है लेकिन आरक्षण अपनी शर्तों पर सभी चाहते हैं।

विधि मंत्री मोइली कहते है कि लोकसभा और विधानसभा में पिछड़ों को आरक्षण देने का कोई कानून नहीं हैं, इसलिए महिलाओं के आरक्षण में इसे लागू नहीं किया जा सकता। मोइली अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि यदि महिला आरक्षण में पिछड़ों को आरक्षण दिया गया तो फिर सामान्य सीटों में भी पिछड़ों को आरक्षण देना पड़ेगा। सामान्य सीटों पर पिछड़ों को आरक्षण दे दिया गया तो फिर पूरी तरह से राजनीति का अंकगणित ही बदल जाएगा। फिर आरक्षण यहीं रुकने वाला नहीं है। अल्पसंख्यकों के लिए भी आरक्षण महिला आरक्षण में मांगा जा रहा है। शासकीय नौकरी में मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रस्ताव आंध्र सरकार ने दिया था। जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया। न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने को कोई प्रावधान नहीं है। आंध्र के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार भी मुसलमानों को शासकीय नौकरी में आरक्षण देने की बात कह रही है।

अंतहीन है, यह सिलसिला। एक बार किसी को कोई भी सुविधा मिल गयी तो फिर वह किसी भी कीमत पर उसे खोना नहीं चाहता। पेट्रोल-डीजल पर ही सरकार के द्वारा दी गई सब्सिडी जब सरकार खत्म करती है तो सरकार का विरोध प्रारंभ हो जाता है। सरकार भी चुनावी लाभ की दृष्टि से छूट का खेल खेलती है। आरक्षण तो उसका पुराना जांचा परखा हथियार है। कोई भी यह सोच विचार करने को तैयार नहीं है कि आरक्षण से चंद लोगों को भले ही लाभ हुआ लेकिन पूरे वर्ग को उसका क्या लाभ मिला। 60 वर्ष कम नहीं होते? एक पीढ़ी अपनी पूरी जिंदगी गुजार चुकती है। चंद लोगों को मिले लाभ का फायदा क्या पूरे समाज को मिलता है? यह लाभ मिलता भी है तो पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हीं को मिलता है जो आरक्षण का लाभ पहले से ही उठा चुके। होना यह चाहिए कि आरक्षण का लाभ प्राप्त करने वाले आरक्षित समाज के हित में ऐसा काम करें जिससे सबको आगे बढऩे में मदद मिले। आरक्षण का लाभ उठा चुकी पीढ़ी के बदले आरक्षण का लाभ अब दूसरों को मिले, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे सभी को कभी न कभी लाभ उठाने का अवसर मिले।

आज महिला आरक्षण से मुलायम सिंह जैसे दिग्गज नेता बेचैन है। वे कहते है कि आरक्षण का वर्तमान महिला विधेयक पारित हो गया तो बड़े उद्योगपति, अफसरों के परिवार की स्त्रियां चुनाव जीत कर आ जाएंगी और जिन्हें देख कर लड़के सीटी बजाएंगे। एक महिला मायावती ने मुलायम सिंह का राजपाठ छीन लिया। वह किस उद्योगपति या अफसर परिवार से आती हैं। उन्हें देखकर कौन सीटी बजाने की हिम्मत कर सकता है? चुनाव के विषय में उद्योगपतियों का अनुभव अच्छा नहीं है। जनता ने उन्हें चुनना पसंद नहीं किया। अब तो बड़े उद्योगपति चुनाव लडऩे नहीं लेकिन पहले लड़कर देख चुके हैं और चुनाव हारने का कटु अनुभव प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें तो राज्यसभा ही सुरक्षित लगते है और राज्यसभा में जाने के लिए जनता नहीं विधायक वोट देते है।

फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा को उन्हीं की पार्टी ने लोकसभा का टिकट दिया और वे जीती। जया बच्चन को राज्यसभा में मुलायम सिंह ने भी सदस्य बनाया लेकिन राज बब्बर के विरुद्ध वे अपनी बहू को लोकसभा का चुनाव नहीं जितवा सके। अमर सिंह को राजनीति में उन्होंने ही ऊंचा चढ़ाया। आज वे उनके विरुद्ध खड़े हैं और कह रहे हैं कि जब तक समाजवादी पार्टी को रसातल में नहीं मिला देंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे। मुलायम सिंह का अनुभव अच्छा नहीं रहा। इसका मतलब यह नहीं कि वे जो चाहें टिप्पणी करें। दरअसल महिला आरक्षण ऐसा राजनैतिक खेल है जिसमें कइयों को अपना भविष्य खराब दिखायी दे रहा है। मुलायम सिंह के साथ जो महिलाएं थी, वे उनका साथ छोड़ गयी और एक तिहाई महिला सीट हाथ से निकल गयी तो फिर सरकार में दोबारा आने का अवसर मिलता नहीं दिखायी देता। यह डर महिला आरक्षण के विरुद्ध खड़े होने के लिए उन्हें बाध्य करता है।

कहा जा रहा है कि महिला आरक्षण विधेयक अप्रैल में लोकसभा में रखा जाएगा और मतदान भी कराया जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि इस मुद्दे पर यदि सरकार गिर भी जाती है तो सोनिया गांधी इसके लिए भी तैयार हैं। वे मध्यावधि चुनाव करा कर कुल मतदाताओं के 50 प्रतिशत महिलाओं का समर्थन प्राप्त करना चाहती हैं। जिससे कांग्रेस को लोकसभा में पूर्ण बहुमत ही नहीं दो तिहाई बहुमत मिले और बिना किसी गठबंधन की उनकी सरकार केंद्र में बने। जिससे देश में गांधी परिवार फिर से सत्ता में स्थापित हो सके। होता क्या है, यह तो भविष्य तय करेगा लेकिन राजनैतिक प्रेक्षक महिला आरक्षण को इस दृष्टि से भी देख रहे हैं। कहीं पर निगाहें और कहीं निशाना।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 25.03.2010

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