यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 29 मार्च 2010

उड़ीसा का मुख्यमंत्री निवास उड़ाने की धमकी के बाद डा. रमन सिंह की सुरक्षा व्यवस्था को भी चाक चौबंद करने की जरूरत

नक्सलियों ने एक ई मेल के द्वारा धमकी दी है कि वे उड़ीसा के मुख्यमंत्री निवास को उड़ा देंगे। नक्सली कह रहे हैं कि वे अन्य प्रमुख प्रतिष्ठानों को भी विस्फोट से उड़ा देंगे। यह वे तब करेंगे जब सरकार नक्सलियों के विरूद्घ ग्रीन हंट आपरेशन प्रारंभ करेगी। मतलब साफ है कि ग्रीन हंट आपरेशन से नक्सली डरे हुए है और वे मुख्यमंत्री सहित सरकार को डराना चाहते हैं लेकिन क्या मुख्यमंत्री और सरकार नक्सलियों के डर से ग्रीन हंट आपरेशन बंद कर देगी? उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को ही तय करना है कि वे इस तरह से नक्सली धमकी से डर कर ग्रीन हंट आपरेशन से परहेज करेंगे या फिर राज्य को नक्सलियों से मुक्त कराने की मुहिम में अपनी पूरी शक्ति लगाएंगे। क्योंकि केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम तो कृतसंकल्पित हैं कि वे 2-3 वर्ष में नक्सलियों से देश को मुक्त करा देंगे। आज जो सहयोग केंद्र सरकार के गृहमंत्री नक्सली समस्या से निजात देने के लिए राज्यों को कर रहे हैं, ऐसा पहले ही हो गया होता तो नक्सली समस्या इतने बड़े भूभाग में फैलती ही नहीं। फिर भी पुराना रोना रोने से तो कोई फायदा नहीं। जो होना था वह हो चुका लेकिन आज गृहमंत्री सहयोग कर रहे हैं तो राज्य सरकारों का तो दायित्व बन जाता है कि वे नक्सलियों को स्पष्ट संदेश दें कि वे किसी धमकी के आगे न तो झुकने वाले हैं और न ही किसी से डरते हैं।

नक्सली कह रहे हैं कि किशन जी और विकराम को लगी एक एक गोली का जवाब दिया जाएगा। ऐसा क्या जवाब देंगे जो पहले नहीं दे रहे थे। वही विस्फोट, वही खून खराबा। इसके सिवाय नक्सलियों के पास है, क्या ? बंदूक के दम पर अपनी बात को सही समझाने की कोशिश वही करता है जिसकी बात लोग समझने के लिए तैयार नहीं। जहां तक सरकार का प्रश्र है तो सरकार ने कम अवसर नहीं दिया, नक्सलियों को। आज नहीं कल वे समझ जाएंगे और हिंसा का त्याग कर सही रास्ते पर आ जाएंगे लेकिन सरकार की शराफत को नक्सलियों ने सरकार की कमजोरी समझा और उसी का परिणाम है कि वे समझते हैं कि सरकार उनकी धमकियों से डरकर घर में छुपकर बैठ जाएगी। अपने नेता किशन जी और विकराम को लगी गोली का इतना दुख क्यों हो रहा है, नक्सलियों को ? गोली तो जिसे भी लगती है, उसे दर्द होना स्वाभाविक है। नक्सली जब पुलिस जवानों को, मुखबिर के नाम पर आम आदमी को गोली मारते हैं तब उन्हें भी उतना ही कष्ट होता है जितना किशन जी और विकराम को हो रहा है। यह तो वही बात हो गयी कि तुम्हारा खून, खून है और बाकियों का पानी।

गृह मंत्रालय के अधिकारी कह रहे हैं कि नक्सली अपने संगठनों में बेरोजगार युवकों युवतियों को तीन हजार मासिक वेतन पर भर्ती करते हैं। साथ ही वसूली पर एक निश्चित कमीशन देते हैं। मतलब किसी सिद्घांत नीति से प्रभावित होकर लोग नक्सली सेना में भर्ती नहीं होते। स्पष्ट है कि नक्सल आंदोलन जैसी कोई बात नहीं है। यह तो माफिया के तरीके से संगठन चलाया जा रहा है। उड़ीसा में नक्सलियों से पीडि़त शहरों में निवास करने वाले युवकों का कहना है कि नक्सली पहले आते थे तो खाना मांगते थे, चंदा मांगते थे लेकिन इसके साथ ही वे बहन, बेटियों की भी मांग करने लगे, तब उन्होंने विरोध किया तो गोलियों से उड़ाने की धमकी दी गई। जो इन नक्सलियों को राजनैतिक आंदोलन बताते थे, यह तो उनके ही सोच का विषय है कि यह किस तरह का राजनैतिक आंदोलन है। कहा जा रहा है कि वार्षिक उगाही नक्सलियों की करीब चौदह सौ करोड़ रूपये है। उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, शासकीय अधिकारियों से यह वसूली की जाती है।

स्पष्ट रूप से देखा जाए तो यह सब किसी आर्थिक साम्राज्य से कम नहीं है। धंधे की दृष्टि से देखा जाए तो बड़ा धंधा है। अब जब सरकार इस धंधे को उखाड़ फेंकने के लिए आमादा है तो जिसका धंधा छीना जा रहा है, वह हर तरह से कोशिश तो करेगा कि धंधे को बचाए। छत्तीसगढ़ में डा. रमन सिंह ने सबसे पहले नक्सलियों को अपने क्षेत्र से पलायन करने के लिए मजबूर किया। वैसे भी बस्तर का वृहत क्षेत्र नक्सलियों का सुदृढ़ गढ़ था लेकिन सशस्त्र बलों के निरंतर प्रयासों से नक्सली अब छत्तीसगढ़ में वैसा उत्पात नहीं कर पा रहे है जैसा वे पहले किया करते थे। छत्तीसगढ़ से लगा उड़ीसा उन्हें सुरक्षित ठिकाना लगता है लेकिन अब वहां भी सशस्त्र बलों ने दस्तक देना प्रारंभ कर दिया है। नक्सली समझ रहे हैं कि सशस्त्र बलों का दबाव बढ़ा तो उन्हें उड़ीसा से भी पलायन करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। पहले नक्सलियों की एक तरफा कार्यवाही चलती थी। बारूदी सुरंगें बनाकर वे सशस्त्र बलों पर हमला करते थे लेकिन अब वह बात तो रही नहीं बल्कि अब नक्सलियों को सशस्त्र बल से मुकाबला करना पड़ता है और मुकाबले में वे सशस्त्र बल के सामने टिकते नहीं तो फिर जान बचाकर भागना पड़ता है और भागना भी ऐसा पड़ता है कि अपने मारे गए साथियों को भी वे अपने साथ नहीं ले जा पाते। पहले वे अपने साथियों की लाश सशस्त्र बल के हाथ नहीं लगने देते थे। भागो नहीं तो मारे जाओगे की स्थिति जब खड़ी होती है तब गोला बारूद भी छोड़कर भागते हैं।

सशस्त्र बलों को भी स्पष्ट निर्देश है कि अपनी तरफ से हमला न करें। इसलिए निर्दोष लोगों के मारे जाने का भय दिखाकर सशस्त्र बलों की कार्यवाही रोकने का जो प्रयास प्रारंभ में आपरेशन ग्रीन हंट के पहले तथाकथित पदाधिकारियों एवं बुद्घिजीवियों ने किया, उसमें भी कोई दम नहीं था। यह बात अब निश्चित हो चुकी है। किशन जी जैसे नेताओं को मुठभेड़ में गोली लगना भी इस बात की निशानी है कि सशस्त्र बलों ने दबाव पूरी तरह से बनाया हुआ है। नित्य कहीं न कहीं से खबर आती है कि नक्सली पकड़े गए या मारे गए। आज जो 3 हजार वेतन में भर्ती की बात है, वह कभी 2 हजार थी लेकिन शायद अब 2 हजार रूपये में मरने मारने के लिए युवा मिल नहीं रहे हैं। क्योंकि सरकार ने ही नक्सलियों को 2 से ढाई हजार रूपये मासिक समर्पण करने वालों को देने की घोषणा कर रखी है। सशस्त्र बलों का दबाव यदि उसी तरह से बढ़ता गया तो वह दिन भी आ सकता है जब बड़ी संख्या में नक्सली मरने के बदले आत्मसमर्पण के लिए बाध्य हो जाएं।

नवीन पटनायक के निवास स्थान को उड़ाने की धमकी नक्सली दे रहे हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए कि डा. रमन सिंह नक्सलियों की हिट लिस्ट में टाप पर हैं। ऐसा नहीं कि धमकी उड़ीसा के मुख्यमंत्री को दी जा रही हो और टारगेट छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हो। हरिद्वार में मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह गंगा में जिस तरह से स्नान कर रहे थे, वह सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है। कभी भी ऐसी स्थिति उन्हें सरल टारगेट बना सकता है। क्योंकि आज नक्सलियों के विरूद्घ छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में जो आपरेशन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है, उसका बहुत बड़ा कारण डा. रमन सिंह ने ही सबसे पहले नक्सलियों के विरूद्घ अभियान चलाया। केंद्रीय गृहमंत्री को यथार्थ से अवगत कराया। तब यह स्थिति निर्मित हुई है कि सभी नक्सल प्रभावित राज्यों में आपरेशन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है। इसलिए डा. रमन सिंह की सुरक्षा में किसी तरह की लापरवाही नही होना चाहिए।

- विष्णु सिन्हा
29-03-2010

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुरक्षा तो उचित कर ही देना चाहिये!!

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  2. ये बात बिल्कुल सही है कि सुरक्षा मे किसी तरह की चुक नही होनी चाहिये खासकर जब नक्सली बौरा कर दुःसाहस पर उतर आये हों।छत्तीसगढ वैसे भी अटा पड़ा है नक्सलियों से और उनके सम्पर्क सूत्र राजधानी से पकड़े जा चुके हैं ऐसे मे मुख्यमंत्री की सुरक्षा मे किसी तरह का सम्झौता नही किया जाना चाहिये।

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