विकास प्राधिकरण अभी तक जिन लोगों की जमीन लेता था, उन्हें बदले में जमीन का कुछ हिस्सा विकसित प्लाट के रूप में देता था और उस पर विकास शुल्क भी लेता था। इस मामले में पुराना भूस्वामी विकास प्राधिकरण का पट्टेदार हो जाता था। मजबूरी में लोगों ने इस योजना को स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह नीति जमीन मालिकों के हित में तो नहीं थी। भूस्वामी अधिकार खोकर और विकास शुल्क देकर पट्टेदार बनना सरकारी शोषण की ही गाथा कहा जाएगा। उस समय तो मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ के लोगों को रहना पड़ता था और भोपाल इतनी दूर था कि हर किसी के बस की बात नहीं थी कि वह न्याय के लिए सरकार का दरवाजा खटखटा सके। इसलिए जमीन के बदले मुआवजा देने की नीति के तहत जमीन के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत बिना विकास शुल्क के और 40 प्रतिशत विकास शुल्क के साथ देने की नीति लागू की गई। बहुतेरे किसान तो जमीन के बदले नगद मुआवजा सोलह हजार रूपये एकड़ ही लेने के लिए बाध्य हुए।
प्रजातंत्र में सरकारी शोषण का यह अनुपम उदाहरण रहा है। विकास प्राधिकरण ने अपनी कालोनियां देखरेख के लिए तो नगर निगम को सौंप दी और नगर निगम भी प्राधिकरण के निवासियों से संपत्ति कर, जल मल कर वसूलने लगे लेकिन प्राधिकरण को भूभाटक के रूप में भी धन तो देना ही पड़ता है। यहां तक कि जो कालोनियां नगर निगम को हस्तांतरित कर दी गई वहां भी विकास प्राधिकरण का शिकंजा कम नहीं हुआ। यदि कोई पट्टेदार अपना मकान बेचना चाहता है तो उसे विकास प्राधिकरण से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करना होगा और यह अनापत्ति प्रमाण पत्र उसे तब ही प्राप्त होगा जब बिकने वाले मकान का 10 प्रतिशत वह विकास प्राधिकरण के कार्यालय में जमा करे। किसी भी दृष्टि से देखें तो विकास प्राधिकरण से जमीन, मकान लेने वाले बंधुआ मजदूर से कम नहीं दिखायी पड़ते। इसका सीधा साफ मतलब तो यही है कि विकास प्राधिकरण से जो एक बार मकान ले लेता है, वह ताजिंदगी विकास प्राधिकरण के शिकंजे से मुक्त नहीं हो सकता।
फिर भी लोग इन कानूनी प्रावधानों को मानने के लिए बाध्य है लेकिन यदि किसी को किसी भी कारण से अपना मकान या भूमि बेचना है तो विकास प्राधिकरण से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करना आसान नही है। तरह तरह से परेशान करने में अधिकारी और कर्मचारी पीछे नहीं हैं। जब मंत्रिपरिषद ने इससे मुक्ति का निर्णय लिया तो लगा था कि सरकार दर्द को समझ गयी है और शीघ्र ही मुक्ति दिलाएगी लेकिन अभी तक तो कुछ हुआ नहीं। कमल विहार योजना से भी लोग भयभीत है तो उसका प्रमुख कारण शासकीय व्यवस्था है। शासकीय व्यवस्था के दुष्चक्र में फंसकर अपनी संपत्ति को विवादास्पद बनता तो व्यक्ति देखता ही है, साथ ही पुराना अनुभव उसे विरोध करने के लिए प्रेरित करता है। कमल विहार योजना में जो प्राधिकरण 35 प्रतिशत जमीन भूस्वामियों को देने वाला है, उस जमीन पर भूस्वामी मालिकाना हक रखेगा या वह अपनी जमीन में ही प्राधिकरण का पट्टेदार हो जाएगा। कौन ऐसा व्यक्ति है जो भूस्वामी हक खोकर अपनी ही जमीन के एक तिहाई से कुछ अधिक का किरायेदार बनना पसंद करेगा? यह स्थिति स्पष्ट होना चाहिए। शोषण का नया काला अध्याय नहीं लिखा जाना चाहिए। प्राधिकरण 65 प्रतिशत जमीन तो हड़प लेगा। जिस पर भूस्वामी का किसी भी तरह का हक नहीं रह जाएगा और 35 प्रतिशत उसे भूमि जो मिलेगी, उस पर कानूनी पाबंदी के साथ भूस्वामी किरायेदार हो जाएगा तो उसे प्रति वर्ष प्राधिकरण को भूभाटक अर्थात भूमि का किराया पटाना पड़ेगा।
सरकार की तरफ से जो वक्तव्य आ रहे हैं, उसमें कहा जा रहा है कि सरकार भूस्वामियों को भूमाफियाओं एवं दलालों से मुक्त कराना चाहती है। अवैध प्लाटिंग से जनता को बचाना चाहती है। यह सब ऊपर ऊपर से तो अच्छी बातें लगती है लेकिन प्राधिकरण के अभी तक के कृत्य किन भूमाफियाओं से कम है। उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। कितने ही किसानों की जमीन पर पूर्व में बिना अधिग्रहण ही प्राधिकरण ने कब्जा कर लिया। सड़कें बना दी। प्लाट बनाकर बेच दिए। अधिग्रहण का केस भी प्राधिकरण हार गया लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ता। एक आम आदमी और वह भी किसान कितना कोर्ट कचहरी में लड़े। 20-20 साल हो जाते है और उसके हाथ कुछ लगता नहीं। उसकी जमीन पर मकान बन जाते है और लोग रहने लगते हैं। वह सिर्फ देख सकता है और लड़ नहीं सकता। तब मजबूर होकर वह प्राधिकरण से समझौता कर लेता है। लाखों रूपये विकास शुल्क पटाकर अपनी ही भूमि के 40 प्रतिशत का वह पट्टेदार बन जाता है।
तब उसे नोटिस थमा दी जाती है कि फलां तारीख तक मकान निर्माण का काम प्रारंभ नहीं किया तो उसकी जमीन पर प्राधिकरण कब्जा कर लेगा। अब किसान अपना सब कुछ गंवाकर प्राधिकरण के निर्देश को देखकर दंग रह जाता है। वह कोई भवन निर्माता तो है, नहीं। वह करे तो क्या करे? वह जमीन बेचने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र मांगता है तो उसे अनापत्ति प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया जाता है। विनिमय के आधार पर उसे जो जमीन दी जाती है उसका क्षेत्रफल ही कम होता है। वह और जमीन की मांग करता है तो उस पर ध्यान देने के लिए प्राधिकरण के पास समय ही नहीं है। अकथ कथा है, प्राधिकरणों की। किसी भी भूमाफिया से कम नहीं है, प्राधिकरण। सरकार तो जितने जल्दी प्राधिकरण से हितग्राहियों को मुक्त कराएगी, उतनी ही धन्यवाद की पात्र होगी।
- विष्णु सिन्हा
23-3-2010
विकास प्राधिकरण को लेकर शंकाएं जायज हैं।
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