यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 13 मार्च 2010

महिला आरक्षण के कारण स्थापित नेताओं की नींद उड़ गयी है

लालू प्रसाद यादव के कथन में पूरी तरह से सत्यता है कि पुरूष सांसदों को अपने मौत के वारंट पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा जा रहा है। वर्तमान स्थिति में ही 33 प्रतिशत महिलाओं के  लिए आरक्षण का अर्थ ही होता है कि करीब 181 पुरूष सांसदों को महिला आरक्षण के कारण लोकसभा चुनाव लडऩे का अधिकार गंवाना पड़ेगा। महिलाएं प्रसन्न हो सकती हैं कि उनके लोकसभा, विधानसभा में पहुंचने के अवसर बढ़ जाएंगे लेकिन वर्तमान मे पदों पर बैठे लोग खुशी-खुशी किस तरह से अपने हाथ अपना हक गंवा दें। सोनिया गांधी महिला हैं और महिलाओं को आरक्षण देकर वे महानतम महिला होने का सुख प्राप्त करने के लिए कटिबद्घ दिखायी दे रही हैं लेकिन कांग्रेस के ही पुरूष सांसद खुलकर बोलने की भले ही हिम्मत न करें किंतु वे जानते तो हैं कि उनसे क्या करने के लिए कहा जा रहा है।

भाजपा की सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी के साथ कदमताल करती दिखायी पड़ रही है। भाजपा में भी अंदर के  खाने कम खींचतान नहीं है। सांसद विद्रोह की मुद्रा में हैं लेकिन अभी खुलकर अभिव्यक्ति नहीं हो रही है। लोकसभा में राज्यसभा की तरह जस का तस कानून पास कराने की कोशिश की गई तो व्हिप के विरूद्घ भी सांसद जा सकते हैं, इसकी संभावना से भय भी व्याप्त है। पिछले कार्यकाल में व्हिप की अवहेलना कर भाजपा के  सांसद मनमोहन सिंह की सरकार का समर्थन कर चुके हैं। कांग्रेसी सांसद भी कर सकते हैं, महिला आरक्षण का विरोध, मतदान के समय। इस परिस्थिति के कारण ही तुरत-फुरत लोकसभा में विधेयक मतदान के लिए नहीं रखा जा रहा है और प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि सभी दलों से चर्चा की जाएगी।


दरअसल अब इस विधेयक के बीच सोनिया गांधी की नाक फंस गयी है। अब यह सोनिया गांधी की व्यक्तिगत इज्जत का भी प्रश्र बन गया है। यदि वे यह विधेयक लोकसभा से पारित करवाने में असफल सिद्घ होती है तो उनकी सत्ता की कमजोरी ही इससे साबित होगी। कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी के समर्थन के  बाद इस विधेयक को पारित होने में यदि असफलता मिलती है तो यही कहा जाएगा कि सरकार की स्थिति सोचनीय न हो जाए, इसलिए सोनिया गांधी पैर वापस खींच रही है। विधेयक पर मतदान के बाद असफल होने पर यह कहना कि समर्थन सांसदों का न मिला, इसलिए विधेयक पारित नहीं हो सका, बेमानी होगा। यह नहीं चलेगा कि हमारी नीयत तो साफ थी। जनता हमें दो तिहाई बहुमत देगी तब ही विधेयक पारित होगा।


लेकिन अभी समय है। कहा जा रहा है कि सरकार विधेयक अप्रेल में प्रस्तुत करेगी। विधेयक में संशोधन की बात भी हो रही है। ऐसा फार्मूला निकाला जाए कि वर्तमान सांसदों का हक भी न मारा जाए और महिलाओं को आरक्षण भी मिल सके। कहा जा रहा है कि 181 सीटें लोकसभा की बढ़ा दी जाएं, महिलाओं के  लिए। इससे महिलाओं को आरक्षण देने का काम भी हो जाएगा और पुरूषों का अधिकार भी नहीं मारा जाएगा लेकिन यह 181 सीटें हर 5 वर्ष में अन्य लोकसभा सीटों पर स्थानांतरित होगी तो एक बार सांसद रही महिला को दोबारा सामान्य सीट से ही चुनाव लडऩा पड़ेगा। वैसे भी यह आरक्षण 15 वर्ष के लिए देने की बात है। जिसका मतलब होता है कि 3 राऊंड में सभी सीटों पर एक एक बार महिलाओं को लडऩे का हक मिल जाएगा लेकिन जिन 181 सीटों पर महिलाएं लड़ेंगी वहां से पुरूष भी सांसद होगा तो हर बार ऐसी 181 सीटें होंगी जहां से पुरूष और महिला दो सांसद होंगे। स्वाभाविक है कि जब एक सीट पर दो सांसद होंगे तो एक ही दल के भी हो सकते हैं और अलग अलग दल के भी। तब क्षेत्रों में नया शक्ति केंद्र उभरेगा और श्रेय को लेकर तकरार और टकराव दोनों होने के अवसर बढ़ेंगे।


वैसे भी महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देना न्यायपूर्ण नहीं है। पुरूषों और महिलाओं का देश में करीब करीब अनुपात समान है। उन्हें बराबरी का हक मिलना चाहिए। हक का यह अर्थ नहीं होता कि किसी का हक छीनकर किसी दूसरे को दिया जाए। आरक्षण के कारण जो वैमनस्यता होती है, उसके पीछे भी यही सोच काम करती है कि किसी का हक छीनकर दूसरे को दिया जा रहा है। सोच का संबंध अपने अपने हितों से होता है। हर किसी की समझ यही है कि जो मेरे हित में है, वही उचित और  न्यायपूर्ण है। तब योग्यता और गुणवत्ता एक किनारे कर दी जाती है। ईमानदारी से सोचे तो हर लोकसभा और विधानसभा सीट से दो प्रतिनिधि चुने जाने चाहिए। एक पुरूष तो एक महिला। जिससे दोनों को प्रतिनिधित्व और अवसर समान मिले। पुरूष और महिला दोनों के नेतृत्व को उभरने का समान अवसर मिले। अभी की स्थिति में 181 सीटें बढ़ा कर भी आरक्षण दिया जाता है तो अगली बार अवसर का लाभ न मिलने से महिला नेतृत्व का अवसर एक ढकोसले के सिवाय कुछ नहीं। स्थानीय संस्थाओं में ही आरक्षण के कारण अगली बार अवसर मिले न मिले की अनिश्चितता ने जनप्रतिनिधियों को गैर जवाबदार बना दिया है। क्योंकि अगली बार अवसर की अनुपलब्धता जनता के प्रति जवाबदेह उस तरह से नहीं बनाती, जिस तरह से अगले चुनाव में जनता के पास फिर से जाने पर जवाबदेही का बोध होता है।


स्थानीय संस्थाओं में आरक्षण के  कारण गैर संवैधानिक पदों का सृजन हुआ है। पार्षद पति, सरपंच पति, महापौर पति जैसे पद राजनीति में महिलाओं के पीछे सक्रिय हैं। लोकसभा से आरक्षण का विधेयक पारित हो गया तो कल को सांसद पति, विधायक पति के साथ मंत्री पति, मुख्यमंत्री पति, प्रधानमंत्री पति जैसे पद भी सृजित हो जाएंगे। महिला आरक्षण के कारण जिनकी चुनाव लडऩे की पात्रता छीनेगी, वे अपनी पत्नियों को निश्चित रूप से टिकट दिलाना और चुनाव जितवाना चाहेंगे। सत्ता सुख ऐसा सुख है कि जनता ही पीछे पड़ जाए कि नहीं जितवाना है तो बात अलग है, नहीं तो खुद नहीं लड़ सकते तो पत्नी, बहू, बेटी किसी के भी माध्यम से कब्जा तो अपना रहना ही चाहिए।


जहां तक खानदानी राजनीति का प्रश्र है तो इससे कोई बरी नहीं है। महिला आरक्षण का विरोध करने वाले लालूप्रसाद यादव को भी जब कोर्ट के कारण मुख्यमंत्री की गद्दी छोडऩी पड़ी थी तो उन्होंने अपनी पत्नी को ही मुख्यमंत्री बनाया था। पार्टी के किसी अन्य वफदार नेता को नहीं। महिला आरक्षण विधेयक पारित हो गया तो निश्चित रूप से और किसी को लाभ हो न हो लेकिन वर्तमान पदाधिकारियों के परिवार की महिलाओं को भी सीधे सत्ता सुख तो प्राप्त होगा ही। विधायक, सांसद, तो यहां तक कह रहे हैं कि वेतन वृद्घि भले ही न करें लेकिन पेंशन ही सरकारें बढ़ा दें। जिससे कम से कम जीवन भर जनप्रतिनिधि कभी रहने का लाभ उन्हें मिलता रहे। देखें आगे महिला आरक्षण के नाम पर और कितने गुल खिलते हैं


विष्णु सिन्हा
13-3-2010

1 टिप्पणी:

  1. बिलकुल सही विश्लेशण किया है। अभी तो पता नही क्या होता है इस बिल का। शुभकामनायें

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