फिर किसी जनता की समस्या को लेकर मंत्री नाराज होते तो एक बार सहानुभूति के हकदार भी होते लेकिन मंत्री किसी जनता की समस्या से रुष्ठ नहीं थे बल्कि अपनी सुख-सुविधा को लेकर नाराज थे। उनके लिए कमरा उचित स्थान पर आरक्षित क्यों नहीं किया गया, इसको लेकर नाराज थे। इसे एक तरह से उन्होंने अपना अपमान समझा कि मंत्री रहते उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। मंत्री हैं तो उनका खास ध्यान रखा जाना चाहिए। अधिवक्ता परिषद की ई-लायब्रेरी व वेबसाइट के उदघाटन के लिए आए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राज्य के विशेष मेहमान थे। स्वाभाविक है कि प्रोटोकाल का ध्यान मेहमानों के प्रति ज्यादा होगा। ऐसे में घर के आदमी को अपनी उपेक्षा का नहीं, मेहमानों की उपेक्षा न हो इसका ध्यान रखना चाहिए था। यदि मेहमानों के स्वागत सत्कार में किसी शिकायत से मंत्री नाराज होते तो उनकी नाराजगी एक बार जायज भी मानी जा सकती थी लेकिन जिसे स्वयं की चिंता सबसे ज्यादा हो, वही अधिकारी को मारने जैसी हरकत कर सकता है।
कल ही डॉन ग्रुप के नाम पर शहर में बम फोडऩे के आरोप में पुलिस ने कुछ युवकों को न्यायालय में प्रस्तुत किया। इन युवकों ने न्यायालय में कहा कि वे बेकसूर है और उनसे मारपीट कर पुलिस ने जुर्म कबूल कराया है। न्यायालय ने युवकों को डॉक्टरों से जांच कराने का आदेश दिया है। यह बात स्मरणीय है कि पुलिस को भी पकड़े गए आरोपियों से मारपीट का कोई कानूनी अधिकार नहीं है लेकिन पुलिस मारपीट करती है और कभी-कभी तो आरोपियों की मृत्यु भी हो जाती है, मारपीट से, यह भी तथ्य हैं परंतु कानून के दायरे में यह पुलिस के द्वारा किए गए अपराध की श्रेणी में आता है। कानून किसी को भी किसी के साथ मारपीट करने का अधिकार नहीं देता। इस तरह का अधिकार मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री क्या राष्ट्रपति को भी नहीं है। ऐसे में किसी मंत्री के द्वारा किसी अधिकारी को तमाचा मारना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
मंत्री का व्यवहार तो समाज के लिए उदाहरण होना चाहिए। जब मंत्री ही कानून का सम्मान नहीं करेगा तब वह लोगों से कानून का सम्मान करने की अपेक्षा कैसे कर सकता है? फिर वह विधि मंत्री भी हो तो उस पर तो कानून की पाबंदी की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है। विधि मंत्री ही कानून तोड़ेगा तो फिर कानून के पालन की उम्मीद किससे की जा सकती है। अपने अपमान का यह अर्थ नहीं है कि मंत्री अधिकारी का अपमान तमाचा मार कर करे। फिर मंत्री के अपमान का कोई उद्देश्य एक सामान्य से डिप्टी कलेक्टर के पास क्या हो सकता है? वह जानबूझकर ऐसा करने की तो सोच भी नहीं सकता। जिस अधिकारी को मंत्री, ने तमाचा जड़ा, वह तो अपमान का घूंट पीकर अपने घर चला गया। उसने तो मीडिया को भी बयान नहीं दिया कि उसके साथ क्या हुआ? उसका भी दिमाग आऊट आफ कंट्रोल हो जाता और वह भी पलट कर मंत्री जी के तमाचे के जवाब में तमाचा लगा देता तो क्या होता? क्या मंत्री जी ऐसी स्थिति बर्दाश्त कर सकते थे। तब जो बवंडर मचता और आए हुए मेहमानों को पता चलता कि एक अधिकारी ने मंत्री के तमाचे के जवाब में मंत्री को तमाचा जड़ दिया तो मंत्री जी का तो जो अपमान होता, वह होता ही, भाजपा और उनकी सरकार की छवि क्या बनती?
अधिकारी की तो तारीफ ही की जानी चाहिए कि उसने अपनी बुद्धि से नियंत्रण नहीं खोया। वह मंत्री जी के पदचिन्हों पर नहीं चला। मन मसोस कर रह गया। अपने अपमान के कड़वे घूंट को पी गया। वह जब अपने
अधीनस्थ कर्मचारियों, पत्नी, बच्चों के सामने खड़ा होता है तो कहीं न कहीं उसके दिल में चुभन तो होती ही होगी कि बिना किसी कसूर के उसे पीटा गया। यह दुख किसी भी व्यक्ति के लिए कमतर नहीं है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि निरपराध व्यक्ति अन्याय का शिकार हो जाए। मानसिक प्रताडऩा से बड़ी कोई तकलीफ नहीं होती। एक अधिकारी के गाल पर पड़ा तमाचा सारे कर्मचारियों के लिए सोच का विषय तो बन ही जाता है कि क्या अब ऐसे दिन आ गए है कि मंत्री उन्हें तमाचा जड़ेंगे। दुख में सोच की कोई लंबाई नहीं होती।
मंत्री जी में जरा सी भी इंसानियत है तो उन्हें अधिकारी से क्षमा मांगने में शर्म महसूस नहीं करना चाहिए। क्षमा मांगने वाला बड़ा इंसान होता है। अपनी गलती को महसूस करना और ईमानदारी से महसूस कर क्षमा मांगने से कोई छोटा नहीं होता बल्कि इससे उसका बड़प्पन ही झलकता है। क्षमा मांगना और क्षमा करना ये दोनों इंसानी सदगुण है। किसी भी बड़े से बड़े व्यक्ति को भी छोटे से छोटे व्यक्ति का अपमान करने का अधिकार नहीं है। ये वही मंत्री जी हैं जो मुख्यमंत्री से शिकायत करते हैं कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते। उन्हें स्वयं विचार करना चाहिए कि उनमें क्या कमियां है जो अधिकारी उनकी नहीं सुनते। डांट-डपट और मारपीट से अधिकारियों से अपने मनमाफिक काम नहीं करवाया जा सकता। अपने कर्मचारियों से काम लेने की कला उन्हें सीखनी चाहिए।
अधिकारियों के द्वारा बुलायी गई रैली में शिरकत कर और उस रैली में जहां सरकार के विरुद्ध नारे लगते हैं, अधिकारियों को काम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। सरकार में मंत्री का पद मिलना ही बड़ी उपलब्धि नहीं है। उपलब्धि बड़ी तो तब होगी जब आप काम करने की क्षमता भी रखेंगे। मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखना कोई गलत बात नहीं हैं लेकिन यह भी तो देख लेना चाहिए कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ कर पूरे प्रदेश का राजकाज चलाने के लिए धैर्य की जरुरत होती है। सहनशक्ति की जरुरत होती है। जब मंत्री रह कर ही धैर्य नहीं रखा जाता और मात्र ठहरने की व्यवस्था सही नहीं होने पर अधिकारी के गाल पर तमाचा जड़ा जाता है। तब और बड़े पद पर बैठ कर अधैर्यवान व्यक्ति कैसे सुचारु रुप से राजकाज चलाएगा?
-विष्णु सिन्हा
दिनांक 21.03.2010
vishnu sinha ham patrkaaro ke margdarshak rahe hai. mai unhe bahut mantaa ho. ve boss ki tarah rahate hai. idhar-udhar kaheen bhi nahi jaate. bus, apne kamare men baithe-baithe jagat ko dekhate rahate hai, aur bebak tippaniyaan arate hai. unke lekho ka sangrah aanaa chahiye, 'soch ki lakeere' naam se. iss blog k bahaane unke vichaar door-door tak jayenge. iss hetu aapko dhanyvaad.
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