यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 24 मार्च 2010

कनू सान्याल की आत्महत्या नक्सलियों को इशारा है कि उनका रास्ता गलत है

नक्सली आंदोलन के जनक कनू सान्याल ने फांसी के फंदे पर लटकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। 78 वर्षीय कनू सान्याल वैसे तो बुढ़ापे के रोगों से पीडि़त थे लेकिन आत्महत्या उनके सिद्घांतों पर प्रश्रचिन्ह तो लगाता ही है। वे यदि अपनी हिंसक क्रांति से संतुष्ट होते तो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था कि आज देश के बहुत बड़े इलाके में नक्सली फैल चुके हैं लेकिन प्रश्र यही खड़ा होता है कि वे इस स्थिति से प्रसन्न होते तो आत्महत्या क्यों करते ? कोई भी अपने कृत्य के परिणामों को फलता फूलता देखता है तो प्रसन्न ही होता है। उनके द्वारा की गई आत्महत्या इस बात की निशानी है कि वे प्रसन्न नहीं थे। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनका रोपित पौधा इस तरह से निर्दोषों की हत्या का कारण बनेगा और मुख्य उद्देश्य से भटक कर आतंक का पर्यायवाची बन जाएगा। आत्महत्या सीधे सीधे हताशा, निराशा और अवसाद का ही कारण दिखायी पड़ता है।

इतिहास में सैकड़ों उदाहरण हैं। हिंसा किसी भी समस्या का इलाज नहीं है। बंदूक की गोली किसी की जान तो ले सकती है लेकिन किसी के जीवन की रक्षा नहीं कर सकती। आज तो मनुष्य जीव जंतुओं की रक्षा की बात सोचता ही नहीं है बल्कि इसके लिए कानून भी उसने बनाया है। जानवर पागल हो जाए तब भी उसे पकड़कर उसका उपचार करने के विषय में सोचा जाता है न कि उसे मार डालने के विषय में। जब तक किसी की जान को ही खतरा न पैदा हो जाए तब तक किसी को भी मारना दंडनीय अपराध है। सरकार आज नक्सलियों के विरूद्घ ग्रीन हंट आपरेशन चला रही है तो यह सरकार की मजबूरी है। यह सरकार का शौक नहीं है। अपने निर्दोष शांतिप्रिय नागरिकों की जान माल और स्वतंत्रता की रक्षा करना सरकार का नैतिक कर्तव्य ही नहीं है बल्कि संवैधानिक दायित्व भी है। नक्सली तो हिंसा के लिए हिंसा कर रहे हैं। रेल पटरियों को उखाड़ देना, बम विस्फोट, नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार चलाने के लिए बंदूक का भय। इन सब कृत्यों को तो पाशविक भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पशु इस तरह का कृत्य नहीं करते।

जो व्यक्ति दूसरों की स्वतंत्रता का आदर नहीं करता, वह स्वयं की स्वतंत्रता का अधिकार भी खो देता है। कभी जमींदारों के विरूद्घ भूमि के अधिकार को लेकर चारू मजूमदार और कनू सान्याल ने हथियार उठाए थे। नक्सलबाड़ी से प्रारभ हुआ, यह हिंसक आंदोलन तो कब का समाप्त हो गया। चारू मजूमदार के बाद कनू सान्याल भी अब दुनिया छोड़कर चले गए। उनके हिंसक आंदोलन से किसका कितना हित हुआ? हित तो हुआ नहीं बल्कि हिंसा की अशांति ने जीवन दूभर अवश्य कर दिया। शायद कनू सान्याल को समझ में आ गया था कि वे गलत रास्ते पर थे। उनका जो प्रभाव युवा पीढ़ी पर पड़ा, उस कारण आज स्थिति ऐसी है कि मिला तो कुछ नहीं लेकिन बहुत से लोग मुख्य धारा से भटक गए। राजनीतिज्ञ कहते भी थे कि नक्सली हमारे ही भटक हुए भाई, बच्चे हैं और सही मार्ग पर बातचीत के द्वारा लाया जा सकता है लेकिन इस तरह की चर्चाओं ने नक्सलियों का मनोबल ही बढ़ाया। अच्छी बात भी कभी कभी बुरा असर दिखाती है, इसका उदाहरण है, नक्सलियों के प्रति सहानुभूति।

नक्सलियों ने इसका गलत अर्थ निकाला। वे समझने लगे कि सरकार झुक रही है, उनके सामने। वे और अकड़ गए। सरकार के पास इसके सिवाए कोई चारा ही नहीं बचा कि वह गोलियों का जवाब गोलियों से दे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने सबसे पहले इस बात को समझा कि नक्सली बातों की भाषा नहीं समझने वाले। निरंतर पुलिस जवानों की हत्या करके उनका मनोबल बढ़ा हुआ है। उनका प्रजातांत्रिक मूल्यों पर कोई भरोसा नहीं है। उनकी सोच स्पष्ट है कि वे जो सोचते हैं, वही उचित है। वे अपने प्रभावित क्षेत्र में विकास कार्यो के रास्ते का सबसे बड़ा अड़ंगा। जब आदिवासियों ने नक्सलियों के विरूद्घ सलवा जुडूम आंदोलन चलाया तो और स्पष्ट हो गया कि आदिवासी नक्सलियों से मुक्ति चाहते हैं। तब डा. रमन सिंह ने किसी बात की परवाह न करते हुए नक्सलियों से लडऩे का निश्चय कर लिया। आखिर उनकी नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी भी है कि वे अपने नागरिकों की हिंसा से रक्षा करें। दबाव से मुक्त कराएं। उन्होंने सलवा जुडूम को सरकार का समर्थन दिलाया। नक्सलियों से लडऩे के लिए बल तैयार करने के लिए जंगलवार विद्यालय खोला। केंद्र सरकार के दरवाजे बार बार खटखटाए।

तथाकथित बुद्घिजीवियों और कांग्रेस के एक वर्ग ने डा. रमन सिंह की नक्सल विरोधी गतिविधियों की जमकर आलोचना की। वे येन केन प्रकारेण डा. रमन सिंह को रोकना चाहते थे लेकिन दृढ़ संकल्पित डा. रमन सिंह को वे रोक तो नहीं पाए बल्कि डा. रमन सिंह केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम को समझाने में सफल हो गए कि नक्सली समस्या देश के लिए कितनी खतरनाक है और यह अकेले छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं है। केंद्र सरकार के सक्रिय होते ही राज्यों को हर तरह की मदद मिलना प्रारंभ हो गया। आज भले ही नक्सली रेल पटरियों पर विस्फोट कर रहे हैं लेकिन नक्सली नेता न केवल पकड़े जा रहे हैं बल्कि नक्सली अपना अंतिम हथियार आजमा रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि भले ही 3-4 वर्ष लगे लेकिन नक्सल समस्या को वे समाप्त करके ही रहेंगे। यही बात डा. रमन सिंह ने कल विधानसभा में कही कि नक्सलियों को छत्तीसगढ़ छोडऩा ही पड़ेगा।

डा. रमन सिंह जो कह रहे हैं, उनकी बात में दम है। क्योंकि छत्तीसगढ़ में तो नक्सल विरोधी अभियान ने नक्सलियों को बैकफुट पर ढकेल दिया है। पहले नक्सली सशस्त्र बल के सिपाहियों को मारते थे। अब उल्टा हो रहा है। सशस्त्र बल के सिपाही नक्सलियों को मार रहे हैं या फिर नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं। नक्सलियों के हथियार बनाने के कारखाने को भी सशस्त्र बल ने अबूझमाड़ में नष्ट किया। स्वाभाविक है कि इससे आदिवासियों में खुशी की लहर है और वे कांग्रेसी नेता अब चुप्पी लगा गए हैं जो कल तक सशस्त्र बल की कार्यवाही का विरोध करते थे। आपरेशन ग्रीन हंट में निर्दोष नागरिकों के मारे जाने का राग अलाप रहे थे। मुख्यमंत्री का दिल तो इतना बड़ा है कि वे उपलब्धि को अपनी बताने के बदले पक्ष और विपक्ष की उपलब्धि बता रहे हैं। जबकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि विपक्ष में बैठे कुछ लोगों ने इस मामले में पग पग पर कांटे बिछाने की कोशिश की।

दरअसल विपक्ष की राजनीति से सत्ता में आए डा. रमन सिंह समन्वय की राजनीति भी अच्छी तरह से जानते हैं। वे प्रतिपक्ष के अहंकार को भी फुसलाना अच्छी तरह से जानते हैं। नक्सल समस्या से प्रदेश मुक्तहोता है और जिसकी संभावना अब स्पष्ट दिखायी पड़ रही है तो श्रेय के हकदार सहज रूप से मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ही होंगे लेकिन वे श्रेय लेना जानते हैं तो श्रेय देने में भी कंजूसी नहीं करते। कनू सान्याल का विधानसभा में जिक्र करते हुए मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने कहा कि पिछले तीन वर्षों से जो लेख कनू सान्याल ने लिखे वे निराशाजनक थे। इसका सीधा अर्थ तो यही होता है कि नक्सल आंदोलन का जनक स्वयं आंदोलन से निराश था। हिंसा का यही परिणाम होता है। सृजन और विध्वंस का यही मूल अंतर है। डा. रमन सिंह प्रदेश के विकास के लिए सृजन में लगे है तो नक्सली विध्वंस में। सफल तो डा. रमन सिंह ही होंगे और सफलता की पगध्वनि सुनायी भी पड़ रही है।

- विष्णु सिन्हा
24-3-2010

2 टिप्‍पणियां:

  1. विष्णु जी नक्सलवादी आतंकवाद की अब जमीन नहीं बची है। कानू सान्याल स्वयं भी इसे आतंकवाद मानने लगे थे। अब आवश्यकता है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट सफल हो और इस आतंकवाद पर निर्णायक सफलता मिले।

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  2. नक्सलवाद आतंकवाद का दूसरा नाम बन चुका है। अब ये वक्त की मांग बन चुका है कि सरकार नकसलवाद के खात्मे के लिए कारगर कदम उठाए।

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