यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

भाजपा सत्ता में रहते हुए उकता गयी है छत्तीसगढ़ में तो उसे अवश्य रमेश बैस को पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहिए

पार्टी चाहे तो रमेश बैस प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं। यह बात स्वयं रमेश बैस कह रहे है। पत्रकारों से कह रहे हैं। पार्टी के कार्यकर्ता, नेता यह बात कहे कि रमेश बैस को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए तो उसका कोई मतलब भी होता। रमेश बैस जैसा नेता जब स्वयं अपने नाम का सिफारिश करे तो बात सम्मानजनक तो नहीं लगती। फिर पार्टी को यदि आत्महत्या ही करना हो तो वह रमेश बैस को पार्टी अध्यक्ष बनाए। एक रायपुर नगर निगम का चुनाव तो टिकट बांट कर वे जितवा नहीं सके। जो उनके ही संसदीय क्षेत्र में आता है। पूरे प्रदेश में भाजपा को वे अध्यक्ष बन गए तो कैसी फजीहत कराएंगे, यह पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता हैं? उनकी सोच का दायरा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी 32 प्रतिशत हैं और पिछड़े वर्ग के लोग 52 प्रतिशत हैं। रमेश बैस स्वयं को पिछड़े वर्ग का मानते हैं। इसलिए वे अध्यक्ष बनने की पात्रता रखते हैं।

राष्टरीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत कहते है कि जात पात तोड़ो और लोकसभा में पार्टी का सचेतक अपनी योग्यता का मापदंड पिछड़ा वर्ग का होने को बताता है। कभी आदिवासी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करते थे और आज राज्य में भाजपा की जो सरकार है, उसका बहुत बड़ा कारण आदिवासियों का भाजपा को समर्थन देना है। आदिवासी इसलिए भाजपा को समर्थन नहीं दे रहे हैं कि भाजपा ने किसी आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाया है। यदि जात पात के नाम पर ही वोट पड़ते तो डॉ. रमन सिंह को आदिवासी समर्थन नहीं देते। यदि जात पात ही जीत का आधार होता तो दुर्ग से सरोज पांडे को नहीं जीतना चाहिए था। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ब्राह्मण प्रत्याशी खड़े किए थे और भाजपा से ही निष्कासित ताराचंद साहू पिछड़े वर्ग का मुकाबला कर रहे थे। ताराचंद साहू तो कई बार भाजपा के ही सांसद रह चुके थे लेकिन मतदाताओं ने उनके बदले ब्राह्मण भाजपा प्रत्याशी सरोज पांडे को चुना।

रमेश बैस भी जो कुछ है, भाजपा के कारण है। रायपुर लोकसभा सीट से वे बार-बार जीत रहे हैं तो उसका कारण पिछड़े वर्ग का होना ही नहीं है बल्कि भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं का अथक प्रयास उनकी जीत के पीछे हैं। ताराचंद साहू तो भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं लेकिन पार्टी से बाहर होने के बाद उनकी स्थिति आज क्या है? रमेश बैस तो ताराचंद साहू की कद काठी के नेता भी नहीं है। रमेश बैस को अपनी शक्ति का आंकलन करना है तो एक बार निर्दलीय लड़कर देख लें। पता चल जाएगा कि उनकी स्थिति क्या है? उनकी स्थिति का पता तो इसी से चलता है कि अध्यक्ष पद के लिए स्वयं का नाम वे ही प्रस्तावित करते है। दरअसल कहा यही जाता है कि रमेश बैस की इच्छा मुख्यमंत्री बनने की है और चूंकि मुख्यमंत्री का पद डॉ. रमन सिंह की योग्यता के कारण खाली होने की कोई संभावना नहीं दिखायी पड़ती, इसलिए रमेश बैस संगठन के ही सर्वोच्च पद पर आसीन हो जाना चाहते हैं।

जब वे केंद्रीय मंत्री थे, अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में तब उन्हें ही सबसे पहले प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए कहा गया था लेकिन सत्ता सुख भोगते हुए रमेश बैस को छत्तीसगढ़ भाजपा का अध्यक्ष बनना गंवारा नहीं हुआ। क्योंकि उस समय भाजपा के पास छत्तीसगढ़ में सत्ता तो थी नहीं। ऊपर से पार्टी के विधायक, कार्यकर्ता, पदाधिकारी पार्टी छोड़कर अजीत जोगी के मोह जाल में फंस रहे थे। अध्यक्ष के रुप में सरकार के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाना और उस पर विधानसभा चुनाव जितवाना आसान काम तो था, नहीं। मीडिया में अजीत जोगी छाए हुए थे और दूसरी तरफ उनके विरोध का बिगुल विद्याचरण शुक्ल बजा रहे थे तो भाजपा के हाथ सत्ता लगेगी, यह रमेश बैस के लिए सोचना कठिन काम था। तब डॉ. रमन सिंह को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष का पद भार सौंपा। डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में पार्टी चुनाव मैदान में उतरी और पार्टी को बहुमत मिल गया। जीत का श्रेय डॉ. रमन सिंह के खाते में दर्ज हुआ और वे मुख्यमंत्री बन गए। तब रमेश बैस ने प्रयास तो किया था कि मुख्यमंत्री उन्हें बनाया जाए लेकिन उनकी किसी ने सुनी नहीं।

लोकसभा का चुनाव हुआ और रमेश बैस चुनाव तो जीत गए लेकिन दिल्ली में भाजपा की सरकार नहीं बन पायी। सत्ता रमेश बैस के हाथ से निकल गयी। इसके बाद अपनी तरफ से डॉ. रमन सिंह को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कांग्रेस से ज्यादा रमेश बैस ने किया। येन-केन-प्रकारेण वे चाहते रहे कि आलाकमान डॉ. रमन सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारे तो उनको बैठने का अवसर मिले लेकिन सभी प्रकार के प्रयास निष्फल ही साबित हुए। डॉ. रमन सिंह की लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गयी और विधानसभा और लोकसभा दोनों का चुनाव डॉ. रमन सिंह ने जीता। इसलिए उनकी गद्दी की दावेदारी के तो अवसर शेष नहीं रहे। अब एक अवसर यही दिखायी देता है कि बिल्ली के भाग्य में छींका टूटे तो शायद प्रदेशाध्यक्ष ही बनने का अवसर मिल जाए। क्योंकि भाजपा का प्रदेशाध्यक्ष बन कर भी तो सरकार पर अपनी मनमर्जी थोपी जा सकती है। सरकार को तरह-तरह से परेशान किया जा सकता है। तब शायद कोई मौका मिले डॉ. रमन सिंह को हटाने का और प्रदेशाध्यक्ष के रुप में मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने का। जहां तक स्वप्न देखने का संबंध है तो उसे देखने में कोई आड़े नहीं आ सकता लेकिन पार्टी कोई भी निर्णय किसी के स्वप्न साकार करने के लिए तो लेती नहीं।

अभी तक सरगुजा के सांसद मुरारी सिंह का नाम ही प्रदेशाध्यक्ष के लिए लिया जा रहा था। रमेश बैस ने अपना स्वयं का नाम प्रस्तावित कर कोर ग्रुप के सदस्यों को हैरान कर दिया। किसी ने कुछ नहीं कहा। इसका मतलब तो स्पष्ट है कि कोई भी उनके समर्थन में नहीं है। नहीं तो एक दो लोग तो कम से कम रमेश बैस के पक्ष में बोलते कि रमेश जी चाहते हैं प्रदेशाध्यक्ष की जिम्मेदारी तो उन्हें ही अवसर दिया जाए। दिल्ली में बड़े नेताओं के साथ संबंधों की आड़ में यदि रमेश बैस समझते हैं कि वे अध्यक्ष की कुर्सी पा जाएंगे तो ऐसा मुमकिन तो नहीं दिखायी पड़ता। क्योंकि मुख्यमंत्री से उनकी राय अवश्य ली जाएगी। सौदान सिंह से भी राय ली जाएगी और हो सकता है कि छत्तीसगढ़ के भाजपा सांसदों से भी राय ली जाए तो ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो रमेश बैस का समर्थन करेगा? एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं दिखायी पड़ता जो रमेश बैस का समर्थन करे।

दिल्ली के नेता छत्तीसगढ़ में पार्टी को पूरी तरह से सत्ताच्युत करना चाहते हैं तो उन्हें रमेश बैस को अवश्य प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहिए। जीती बाजी को हार में भाजपा के कैसे बदला जा सकता है, यह रमेश बैस अच्छी तरह से जानते हैं। रायपुर नगर निगम का चुनाव इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। यह भूल कर कि कल रायपुर लोकसभा सीट से ही चुनाव लडऩा है और ऐसे में रायपुर नगर निगम पर भाजपा के बदले कांग्रेस का कब्जा हो गया तो क्या होगा? जो व्यक्ति निर्णय लेने में हिचक महसूस नहीं करता, वह पूरी पार्टी को हार का भी रास्ता प्रदेशाध्यक्ष बन कर प्रशस्त करे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ऐसी गलती भाजपा आलाकमान करेगा तो फल भी पार्टी को ही भोगना पड़ेगा।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 19.04.2010

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