यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले भी 76 जवानों की हत्या के बाद चुप्पी लगाने के लिए बाध्य

आज छत्तीसगढ़ बंद है। 76 जवानों की नृशंस हत्या से उपजे आक्रोश के कारण छत्तीसगढ़ बंद है। कल जगदलपुर बंद था। बिना किसी आह्वन के बंद था। आज का बंद कांग्रेस के आह्वïन पर है और उसे समर्थन सभी संगठनों का मिल रहा है। यह समर्थन नक्सलियों के कृत्यों के कारण है। भाजपा की डा. रमन सिंह सरकार को बर्खास्त करने के लिए नहीं है। क्योंकि यह कटु सत्य सबको पता है कि नक्सलियों की समस्या से निपटने का पहली बार किसी सरकार ने प्रयास किया है तो वह डा. रमन सिंह की सरकार है। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम छत्तीसगढ़ आकर इस घटना के लिए सॉरी बोल गए हैं। उन्होंने माना है कि केंद्र और राज्य सरकार का नक्सल विरोध अभियान संयुक्त है। पुलिस और केंद्रीय सशस्त्र बल मिलकर नक्सलियों से लड़ रहे हैं। चिदंबरम स्वयं कह रहे हैं कि नक्सली युद्घ थोप रहे हैं लेकिन उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देंगे।

प्रधानमंत्री स्वयं कह रहे हैं कि नक्सलियों के विरूद्घ सारे विकल्प खुले हैं। थल सेना के उपयोग की अभी जरूरत नहीं है लेकिन आवश्यकता पडऩे पर वायु सेना के उपयोग पर विचार किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने 76 जवानों की हत्या कर सबसे बड़ा हमला किया है लेकिन पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, बिहार सभी जगह सशस्त्र बल के जवानों को नक्सली निशाना बना रहे हैं। झारखंड से तो पिछले दिनों समाचार था कि कांग्रेसियों को कांग्रेस छोडऩे के लिए नक्सली कह रहे हैं। नहीं तो जान गंवाने के लिए तैयार रहे। कुछ कांग्रेसियों के इस्तीफ देने के भी समाचार थे। पता नहीं छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी नेता किस दुनिया में रहते हैं। उन्हें नक्सलियों की नृशंस कार्यवाही में भी सत्ता की राजनीति दिखायी पड़ती है। वे उदाहरण देकर कहते हैं कि जिस तरह से मुंबई हमले के बाद मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री को बदला गया, उसी तरह से छत्तीसगढ़ में राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। वे कहने में हिचक रहे हैं कि केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम को हटाया जाए लेकिन उनके उदाहरण तो यही प्रतिध्वनित करते हैं।

शायद उन्हें केंद्रीय गृहमंत्री की टिप्पणी, पिछले 10 वर्ष में नक्सलियों के प्रति की गई कोताही के कारण नक्सलियों की ताकत बढ़ी, से नाराजगी हो। किसी भी प्रकार की घटना हो इन कांग्रेसी नेता के पास उसका एक ही उपचार होता है कि राज्य सरकार को भंग किया जाए। आज तो यह प्रश्न पूछा ही जा रहा है कि किसकी अनदेखी और लापरवाही के कारण नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का विस्तार हुआ। किसकी लापरवाही के कारण बस्तर के अबूझमाड़ में नक्सलियों का सुरक्षित ठिकाना बना। क्या यह सब डा. रमन सिंह की सरकार के कारण हुआ ? डा. रमन सिंह तो जब सरकार पर काबिज हुए तब नक्सलियों से लडऩे लायक पुलिस फोर्स भी छत्तीसगढ़ के पास नहीं थी। बार बार दिल्ली दरबार में हाजिरी देकर उन्होंने केंद्र सरकार को समझाया कि नक्सली सिर्फ छत्तीसगढ़ की समस्या नहीं है। जब तक केंद्र हस्तक्षेप नहीं करता और समस्याग्रस्त राज्य एक साथ नक्सलियों के विरूद्घ मुहिम नहीं चलाते तब तक नक्सल समस्या से मुक्त नहीं हुआ जा सकता।

यथार्थ और वास्तविकताएं तो अब सामने आ रही है। डा. रमन सिंह भी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की तरह नक्सली समस्या की उपेक्षा करते तो नक्सली ताकत का यथार्थ ही सामने नहीं आता। वह तो जब अबूझमाड़ में सशस्त्र बल के जवान गए तब पता चला कि नक्सलियों ने हथियार बनाने के कारखाने लगा रखे है। देश का ही एक भूभाग जो क्षेत्रफल में केरल राज्य से बड़ा है, का वास्तविक मानचित्र ही सरकार के पास नहीं है। नक्सलियों को सब पता है कि कहां क्या है? क्योंकि यह क्षेत्र पूरी तरह से सरकार के कब्जे में ही नहीं था। कितने ही गांव उजड़ गए लेकिन चिंता करने वाला कोई नहीं था। भाजपा आरोप भी लगाए कि नक्सली समस्या कांग्रेस की देन है तो कोई बात भी है लेकिन भाजपा के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह दोषारोपण के बदले समस्या से मुक्त कराने के काम में लगे हैं और जो वास्तव में दोषी हैं, वे आरोप लगा रहे है कि सरकार असफल हो गयी है। सरकार को बर्खास्त किया जाए। राïष्ट्रपति शासन लगाया जाए।

कांग्रेस आलाकमान को ऐसे कांग्रेसियों की नकेल खींचना चाहिए। देश का एक तिहाई हिस्सा हिंसा की बड़ी समस्या से जूझ रहा है। केंद्र सरकार अपनी तरफ से पूरा जोर लगा रही है कि देश को नक्सल समस्या से मुक्त कराए। पाकिस्तान से आने वाले आतंकवादियों से कम खतरनाक नहीं है, नक्सलवादी। दरअसल हिंसा ही खतरनाक है। वह भी संगठित हिंसा तो देश के लिए खतरे से खाली नहीं है। सरकार किसकी है, यह प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न यही है कि सब मिलकर नक्सली समस्या से देश को मुक्त कराएं। जिस तरह से पाकिस्तानी आतंकवादी देश को तोडऩे में कामयाब नहीं हुए, उसी तरह से नक्सलियों के मामले में भी एकजुटता जरूरी है और केंद्र और राज्य की अलग अलग दलों की सरकार भी जिस तरह से इस समस्या पर एकजुटता दिखा रही है, वह काबिले तारीफ है।

76 जवानों की हत्या के बाद जो लोग कल तक नक्सलियों के समर्थन में भी बात करते थे। कहते थे कि हमारे ही भटके हुए बच्चे हैं। उन सभी की जबान पर ताला लटक गया है। कोई भी नक्सलियों के कृत्य को सही ठहराने की हिम्मत नहीं कर रहा है। कल तक जो लोग कह रहे थे कि ऑपरेशन ग्रीन हंट में निर्दोष लोग मारे जाएंगे। वे भी अब जुबान नहीं खोल रहे हैं। मुंबई हमले के समय जैसा आक्रोश था, वैसा ही आक्रोश छत्तीसगढ़ के लोगों में तो दिखायी दे ही रहा है। यहां तक कि वामपंथी भी नक्सलियों के खिलाफ दिखायी दे रहे हैं। नक्सलियों की हालत तो यह है कि वे शहीद हुए जवानों के हथियार ही लूट कर नहीं गए उनके जूते और बुलेट प्रूफ जैकेट तक ले गए। 76 जवानों की जान लेकर नक्सली समझते हैं कि उन्होंने बड़ा मोर्चा फ तह कर लिया तो यह बहुत जल्द साफ हो जाएगा कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार मिलकर अब पूरी सतर्कता से नक्सलियों को पकडऩे या खदेडऩे या फिर मारने का काम करती है।

सरकार अब बड़ी तैयारी से अपने जवानों को मैदान में उतारेगी। यह भी समझ लेना चाहिए कि सरकार अभी भले ही फौज को उतारने की जरूरत नहीं समझती लेकिन जरूरत पड़ी तो सरकार फौज को भी मैदान में उतारेगी। राज्य सरकारों के साथ अब केंद्र का भी दायित्व है कि नृशंस हत्याओं से अपने निर्दोष, शांतिप्रिय नागरिकों की रक्षा करे। पी. चिदंबरम और डा. रमन सिंह ने आशा तो जनता में जगायी है कि नक्सलियों के फैलाए खौफ से वह डरने वाली नहीं है और जरूरत पडऩे पर सब कुछ करेगी। जब लंका जैसा छोटा सा देश अपने देश को आतंकवादियों से मुक्त करा सकता है तो भारत पूरी तरह से सक्षम है। नक्सलियों को भी समझ लेना चाहिए कि उनके प्रति किसी तरह की सहानुभूति किसी के मन में नहीं है।

- विष्णु सिन्हा
8-4-2010

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