यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

पेट्रोल, डीजल भी अब खुले बाजार में जाने की तैयारी में

केंद्र सरकार पेट्रोल, डीजल से अपना नियंत्रण समाप्त करने के मामले में विचार कर रही है। नियंत्रण हटते ही यह दोनों अतिआवश्यक वस्तु बाजार के  हवाले हो जाएंगे। डीजल परिवहन का ऐसा आवश्यक साधन है कि जिसकी कीमत में बढ़ोतरी का मतलब होता हैं, बाजार में तमाम वस्तुओं के मूल्य में वृद्घि लेकिन एक बार परिवहन भाड़ा बढ़ जाता है तो फिर डीजल की कीमत कम होने पर भी परिवहन भाड़ा कम नहीं होता। इसके साथ भावों के उतार-चढ़ाव के सट्टे की इजाजत भी सरकार देती है। कल को डीजल, पेट्रोल भी इस सट्टे की जद में आ जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पेट्रोल डीजल पर से नियंत्रण हटने का मतलब है कि इनकी कीमतों का बढऩा रोजमर्रा का काम हो जाएगा। पूंजीवाद की पोषक सरकार वैसे  भी सब्सिडी के विरूद्घ है। भविष्य में रसोई गैस को भी सरकार बाजार के हवाले कर दे तो उसके लिए तैयार रहने की जरूरत है। वैसे ही महंगाई से जनता त्रस्त है और सरकार ने कानों में रूई ठूंसकर कान बंद कर लिया है।

कृषि एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री शरद पवार पहले तो रोज भावों के बढऩे की ही बात किया करते थे। फिर जब महंगाई के लिए उन पर दोषारोपण होने लगा तो उन्होंने जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर डाल दी। मंत्रिमंडल के सामूहिक निर्णय के बहाने बचने का प्रयास किया। फिर अचानक शक्कर के भाव थोक में कम भी हुए तो चिल्हर में घटने का नाम भी नहीं ले रहे। बंदरगाहों पर पड़ी कच्ची चीनी के बहाने मायावती सरकार को निशाने पर लिया गया। मायावती ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर शरद पवार को मंत्रिमंडल से हटाने का अनुरोध किया और ऐसी किसी भी बैठक में सम्मिलित होने से इंकार किया जिसमे शरद पवार हों। जब शरद पवार चारों तरफ से घिरने लगे तब उन्होंने कहा कि 10 दिन में महंगाई कम हो जाएगी। 10 दिन में महंगाई कम नहीं हुई लेकिन उसके  बाद अचानक दालों की कीमत में 25 प्रतिशत की कमी हो गयी। न तो दाल की आवक बढ़ी और न ही मांग और पूर्ति में कमी हुई लेकिन दाल की कीमतें गिर गयी। अब इसे लोग क्या समझें ?


व्यापारियों का हृदय परिवर्तन हो गया। वे घाटा खाकर माल बेचने के लिए तैयार हो गए या सरकारों का दबाव काम कर गया। खुले बाजार के हवाले कर भारतीयों को जिस तरह से व्यापारियों के हवाले कर दिया गया, वह किस तरह से एक जिम्मेदार सरकार का सही कृत्य कहा जा सकता है। कभी कहा जाता था कि दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ? रोटी तो रोटी दाल ही इतनी महंगी हो गयी कि अब भूखे पेट ही भजन गोपाला करना पड़ रहा है। क्योंकि भूखे पेट न होए भजन गोपाला की बात भी तो अब सार्थक नहीं दिखायी देती। महंगाई को लेकर अब सरकारें भी आंदोलन कर रही हैं। छत्तीसगढ़ की भाजपा ने 13 फरवरी को छत्तीसगढ़ बंद का आह्वान   महंगाई को लेकर करने का निश्चय किया है। छत्तीसगढ़ की कांग्रेस इसके  विरोध की योजना बना रही है।


डा. रमन सिंह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने 3 रू . किलो में 35 किलो  चांवल गरीबों को देने की शुरूआत की। अब वह 2 रू. और 1 रू. में दे रही है। स्कूली छात्रों को वह मुफत में शिक्षा, यूनिफार्म, पुस्तकें, कापियां दे ही रही है। लड़कियों को साइकल दे रही है। यह एक तरह का शाक आब्र्जवर है। गरीब भी जी सकें। उनके  बच्चे भी पढ़ लिखकर आगे बढ़ सकें। अब यही योजना केंद्र सरकार भी लाने जा रही है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा है कि गरीबों को 25 किलो गेहूं या चांवल मुफत मिलेगा। स्कूली छात्रों को शिक्षा के लिए सब कुछ मुफत मिलेगा। रोजगार गारंटी योजना के तहत जिस तरह से 100 दिन का रोजगार दिया जा रहा है, उसी तरह की यह योजना है। अच्छी योजना है। गरीबों के लिए ऐसी योजना  एक संवेदनशील सरकार की होनी भी चाहिए लेकिन बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो न तो गरीब हैं और न ही अमीर। उन्हें बाजार की व्यवस्था से बचाने के लिए सरकार के  पास कोई योजना है या उन्हें बाजार के हवाले छोड़कर नित्य तनावपूर्ण जीवन जीने के लिए छोड़ दिया है।


अधिक से अधिक 20 प्रतिशत लोगों को अमीर, कम अमीर माना जा सकता है। 50 प्रतिशत लोगों को गरीब माना जा सकता है। लेकिन सरकार जिन्हें मुफत में चांवल गेहूं देने की बात कह रही है, वे ये पूरे के पूरे 50 प्रतिशत लोग नहीं हैं। गरीबी रेखा से जो थोडा  ही ऊपर हैं, उन्हें बाजार के भरोसे छोडऩा तो उनके साथ पूरी तरह से अन्याय है। जिनकी दृष्टि  में महंगाई का बढऩा आर्थिक विकास है, वे नहीं समझ सकते कि आज निम्र मध्यम श्रेणी के परिवार किस हाल में गुजारा कर रहे है। युवा पीढ़ी का आकर्षण ग्लैमर में है। कितने पालक हैं जो अपने बच्चों के स्वप्नों  को पूरा करने की क्षमता रखते हैं। जब परिवार के लिए दो वक्त का भोजन ही भारी पड़ रहा है तब युवा पीढ़ी की आवश्यकताओं, इच्छाओं को पूरा करना एक पालक के  लिए कितना कठिन काम है, इसे समझने के लिए कौन तैयार हैं ? शिक्षा इतनी महंगी हो चुकी है कि सबके बस की तो बात रही नहीं कि वह अपने बच्चों को उनकी इच्छानुरूप उच्च शिक्षा दिला सकें।


इससे युवा पीढ़ी के मन में जो अवसाद पैदा हो रहा है, उसे दूर करने का उपाय तो दिखायी नहीं पड़ता। फिर युवा पीढ़ी ही क्यों उनके पालकों के मन में भी अवसाद घर बना रहा है। इन अवसादों के कारण घातक बीमारियों से ग्रस्त हो रही पीढ़ी को भी महंगा उपचार चाहिए। हृदय, किडनी, मधुमेह जैसी बीमारियों का उपचार हर किसी के बस की बात नहीं। क्या सरकार में बैठे लोग जानते हैं कि इन बीमारियों के पीछे बाजार भी एक बड़ा कारण हैै ? बुद्घिजीवी सलाह देते हैं कि बुढ़ापे के लिए जवानी में ही योजना बनाना चाहिए। आज से 20 वर्ष पूर्व किसी ने अपने बुढ़ापे के लिए 5 लाख का भी बीमा करवाया तो उस समय 5 लाख रूपये बड़ी रकम होती थी लेकिन आज 5 लाख रूपये मिलने पर भी वह एक छोटा सा आशियाना अपने लिए नहीं बना सकता। जबकि इस 5 लाख के लिए किश्तें जमा करने में उसने अपनी कितनी इच्छाओं को मारा, यह तो वह स्वयं ही जानता है।


सुरक्षा के साधन जितने बढ़े, आदमी उतना ही असुरक्षित होता गया। विकास का अर्थ तो होता सुरक्षा लेकिन विकास ने सुरक्षा को भी असुरक्षा में बदल दिया। आज हम पूरी तरह से बाजार के हवाले हैं। वह जैसा चाहे हमारा शोषण करें। एक मात्र आशा जनता की सरकार से होती है तो सरकार का यह हाल है कि वह खोज में लगी है कि और क्या बच गया है जो बाजार के हवाले नहीं है। अब पेट्रोल, डीजल की बारी है। सरकार को भी धन चाहिए। देश के नागरिक हो तो बिना ना नुकुर किए टैक्स भरो। सरकार के नाम पर दिया गया टैक्स भी पूरा का पूरा कहां सरकार के पास पहुंचता है। बीच में बिचौलिये हैं। वे वसूल तो पूरा करते है लेकिन जितना अपने पास रख सकते हैं, वह अपने पास ही रख लेते हैं। पिसता तो आम आदमी है। जिसका चुनाव में मत देने के सिवाय अन्य कोई उपयोग नहीं है। इस एकमात्र उपयोगिता के कारण ही सरकार उसकी परवाह का ढोंग रचती है।


- विष्णु सिन्हा


1-2-2010

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