यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

सचिन की उपलब्धि से पूरा राष्ट्र प्रसन्न होता है लेकिन ममता के रेल बजट से क्यों नहीं ?

एक तरफ सचिन तेंदुलकर का दोहरा शतक है तो दूसरी तरफ ममता का रेल बजट। जिंदगी के भी दो पहलू है एक भावनाओं का, एक यथार्थ का। भावनाओं का संबंध हृदय से होता है। क्रिकेट एक खेल है। इस खेल में दोहरा शतक लगाने से जिंदगी का यथार्थ नहीं बदलता लेकिन भावनाओं के संसार को यह उपलब्धि भरा पूरा कर देती है। सचिन तेंदुलकर वन डे क्रिकेट में दोहरा शतक लगाकर विश्व रिकार्र्ड बनाते हैं। दुनिया के वे ऐसे क्रिकेट खिलाड़ी बन जाते हैं जिसके मुकाबले कोई नहीं। इससे सचिन खुश हों, यह तो स्वाभाविक है लेकिन सारे भारतीयों को सचिन की उपलब्धि खुशी प्रदान करती है। कारण सचिन भारतीय हैं। उनका यह कथन भी याद आता है कि मुझे महाराष्ट्रीयन होने पर गर्व है लेकिन पहले मैं भारतीय हूं। बाल ठाकरे जैसे लोगों को सचिन का कथन नहीं सुहाता लेकिन सारा भारत उनके कथन से गर्व महसूस करता है। सारे भारतीयों को सचिन अपने लगते हैं और सारा देश उनकी उपलब्धि पर होली दीवाली एक साथ मनाता है। 

लोकसभा में बैठे पूरे भारत के सांसद टेबल ठोंक कर बधाई देते हैं, बिना किसी भेदभाव के। सचिन का जन्म भी महाराष्ट्र में हुआ और ठाकरों की कर्मभूमि भी महाराष्ट्र है लेकिन कितना फर्क है, दोनों की सोच में। पूर्व क्रिकेट के महान खिलाड़ी सुनील गावस्कर कहते है कि सचिन के चरण स्पर्श करने का मन करता है। सचिन से बहुत बड़े हैं उम्र में सुनील गावस्कर। जब बड़ों का मन छोटों के चरण स्पर्श का करें तो इसी से समझ में आता है कि सुनील ने कितना आत्मिक सुख दिया है। ममता का रेल बजट आज की प्रमुख खबर नहीं है बल्कि सचिन का दोहरा शतक प्रमुख खबर है। जबकि रेल बजट प्रमुख समाचार होना चाहिए। क्योंकि रेल बजट सीधे-सीधे लोगों को प्रभावित करेगा। ममता ने इतनी ममता तो दिखाई है कि किराए भाड़े में वृद्धि नहीं की है। कुछ छूट दे दी हैं लेकिन सुविधाओं और विकास का सुख जिस तरह से कोलकाता और अमेठी की तरफ कर रखा है, उससे कम से कम छत्तीसगढ़ के लोगों की तो उपेक्षा स्पष्ट दिखायी पड़ती है। सर्वाधिक राजस्व देने वाले बिलासपुर जोन की उपेक्षा की कथा नई नहीं है। 


सब तरह की लफ्फाजी है, बजट में। स्कूल, अस्पताल और न जाने क्या-क्या रेल के धन से ममता करने वाली हैं। छत्तीसगढ़ में मेडिकल कॉलेज खोलने का आश्वासन भी पुराना हैं लेकिन अभी तक उसका कुछ अता-पता नहीं है। धमतरी रेल लाईन को बड़ी लाईन में परिवर्तित करने के लिए सर्वेक्षण भी हो चुका लेकिन उसके विषय में भी बजट चुप है। एक सीधी सी बात है कि जो ज्यादा कमा कर दे उसे सबसे ज्यादा न सही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में लेकिन न्यायोचित हक तो मिलना चाहिए। यह एक अलग तरह की परिपाटी बन गई है कि बिहार का रेल मंत्री बने तो सब कुछ बिहार ही ले जाने की सोचता है और बंगाल का बना तो बंगाल ले जाने की। संकीर्णता से ऊपर उठने की जो जरुरत केंद्रीय मंत्रियों में होना चाहिए, वह नहीं दिखायी पड़ती। यही कारण है कि ममता भी बंगाल से बाहर ज्यादा सोच नहीं पाती। बंगाल के ही माक्र्सवादी नेता कह रहे हैं कि यह चुनावी बजट है। ममता को पश्चिम बंगाल की सत्ता चाहिए। अगले वर्ष वहां चुनाव होने जा रहा है। यदि पश्चिम बंगाल की जनता ने तृणमूल  कांग्रेस को सत्ता सौंपी तो ममता पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनना ज्यादा पंसद करेंगी बनिस्बत की रेल मंत्री बने रहने के।


छत्तीसगढ़ से कभी कोई रेल मंत्री बनेगा तभी छत्तीसगढ़ में रेल के विकास के विषय में कुछ हो सकेगा लेकिन क्या कभी ऐसी स्थिति आएगी? उम्मीद तो नहीं है। इसलिए दो बड़े स्टेशनों के बीच में छत्तीसगढ़ का जितना हिस्सा आएगा, वहां से गुजरने वाली ट्रेनों में जितनी सीट मिल जाए, उसी पर छत्तीसगढ़ को संतोष करना पड़ेगा। यदि छत्तीसगढ़ में कुछ करने से बंगाल को फायदा होता है तब भी उम्मीद की जा सकती है। बरुवाडीह चिरमिरी लाईन पर काम करने की घोषणा तो रेल बजट में है। इससे कोलकाता और मुंबई की दूरी 400 किलोमीटर कम हो जाएगी। कोलकाता से रायपुर और पास आ जाएगा। स्पष्ट दिखायी देता है कि यह छत्तीसगढ़ की हित चिंता नहीं है बल्कि कोलकाता की हित चिंता है। रावघाट के लिए जो अत्यंत आवश्यक है, कोई चिंता नहीं की गई है। ममता को ही क्यों दोष दिया जाए? जब राजनीति में सोच का दायरा अपने पक्ष में वोट मात्र हो। 


यही तो फर्क है खेल और राजनीति का। राजनीति बांट कर देखती है और खेल जोड़ता है। सचिन पर हर भारतीय को गर्व होता है लेकिन ममता पर गर्व करने के लिए सब तैयार नहीं है। राजनीति में तो कोई भी ऐसा महापुरुष नहीं दिखायी देता जिस पर सब सहमत हों और एक स्वर से गर्व महसूस कर सकें लेकिन खेलों पर भी राजनीतिज्ञों ने अपना शिकंजा कस रखा है। कोई भी खेल संघ हो अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई न कोई राजनीतिज्ञ या नौकरशाह बैठा दिखायी देता है। ईमानदारी से देखें तो राजनीतिज्ञों से जूझते हुए खिलाड़ी देश को गर्व करने का अवसर देते हैं तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है। क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के ही अध्यक्ष भारत सरकार में कृषि मंत्री शरद पवार हैं। कृषि, नागरिक आपूर्ति मंत्री शरद पवार देश के लोगों को तो महंगाई की मार से नहीं बचा सके बल्कि हमेशा यही कहते पाए गए कि अभी शक्कर की कीमत और बढ़ेगी, दूध की कीमत बढ़ेगी। वे तो जब ऐसा कहते थे, तब लगता था, जैसे अपनी कोई बड़ी उपलब्धि गिना रहे हैं। 


इसीलिए तो क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष होने के बावजूद क्रिकेट टीम की जीत का श्रेय सचिन तेंदुलकर, महेन्द्र सिंह धोनी, वीरेन्द्र सहवाग को दिया जाता है, कोई शरद पवार को इसके लिए श्रेय देने के लिए तैयार नहीं है। यह बात दूसरी है कि पूरी बेशर्मी से जब भारत ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप जीत कर आता है तो वे मंच पर मुख्य आसन में विराजमान हो जाते हैं। जनता उनका नहीं खिलाडिय़ों का स्वागत करना चाहती हैं और करती भी है। लोग कहने में नहीं हिचकते कि सचिन तेंदुलकर क्रिकेट का भगवान है लेकिन कोई यह नहीं कहता कि शरद पवार क्रिकेट के भगवान हैं। कभी भारतीय हॉकी विश्व की सबसे महान टीम थी लेकिन आज अपना मेहनताना पाने के लिए उसे हड़ताल करना पड़ता है। जहां-जहां राजनैतिक संतों के कदम पड़े तहां-तहां बंटाधार ही हुआ।


क्योंकि राजनीतिज्ञ अपने स्वभाव से बाज तो नहीं आते। जो राजनीति में करते हैं, वही खेल में भी करना चाहते हैं। इसके बावजूद कोई सचिन तेंदुलकर इस मकाम तक पहुंच जाता है तो यह उसके ही बस की बात है। खिलाड़ी राष्ट्रीय  होता है लेकिन नेता स्थानीय ही रह जाते है। खिलाड़ी की जीत सबकी जीत होती है लेकिन राजनेता की जीत सबकी जीत नहीं हो पाती। एक तोड़ता है तो दूसरा जोड़ता है। तब जोडऩे वाले के सम्मान में पूरा राष्ट्र नतमस्तक हो जाए तो यही होना चाहिए और इसी की देश को जरुरत है।


- विष्णु सिन्हा
दिनांक 25.02.2010

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