मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010
मराठियों के नाम पर सत्ता प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा रखने वाले कभी सफल नहीं होंगे
मोहन भागवत के मुंबई सबकी है, कहने के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने पहले तो इस विषय में मोहन भागवत से चर्चा करने की बात कही लेकिन बाद में उन्होंने भी वही कहा जो मोहन भागवत ने कहा था। इससे यह बात भी सही साबित हो गयी कि संघ के स्टैंड पर ही भाजपा चलती है। संघ और भाजपा दो नहीं हैं। नीतिन गडकरी भले ही कहें कि भाजपा अलग संगठन है लेकिन उनकी स्वयं की नियुक्ति अध्यक्ष पद पर संघ के कारण ही हुई है। अब तो भाजपा के राजनैतिक कार्यकर्ताओं को भी संघ की तरह 3 वर्ष का प्रशिक्षण देने की बात कही जा रही है। यह व्यवस्था लागू हो गयी तो भाजपा के रास्ते शॉर्ट कट से राजनीति करने का रास्ता वैसे ही बंद हो जाएगा। पदाधिकारियों का कार्यकाल भी संविधान में परिवर्तन कर 3 वर्ष के बदले 5 वर्ष करने की योजना है जिससे पदाधिकारी अपने पूरे कार्यकाल का फल चुनाव के माध्यम से देख सकें। साफ मतलब है कि भाजपा अगला लोकसभा और विधानसभा का चुनाव नीतिन गडकरी के नेतृत्व में ही लडऩे का इरादा रखती है और इस मामले में संघ की पूरी तरह से सहमति है।
शिवसेना का कार्यक्षेत्र मुंबई और उससे विस्तृत होकर महाराष्ट्र तक ही है तो उसकी सोच का दायरा भी मुंबई से बाहर नहीं जाता। मोहन भागवत के मुंबई सबकी है, के वक्तव्य के जवाब में शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने कहा कि संघ मुंबई की चिंता करना छोड़ दे और वह दक्षिण भारतीयों को हिन्दी पढ़ाए। स्पष्ट है कि शिवसेना अपने मराठी मामले से पीछे हटने वाली नहीं है। वह हट भी नहीं सकती। क्योंकि इसके सिवाय उसके पास और कुछ है, भी नहीं। राज ठाकरे कह रहे हैं कि मराठी जानने से ही काम नहीं चलेगा। इसके लिए तो मराठी सीखने के लिए उत्तरप्रदेश, बिहार में स्कूल ही खुल जाएंगे। मुंबई और महाराष्ट्र में वही नौकरी प्राप्त कर सकेगा जो महाराष्ट्र में ही जन्म लेगा। यह मामला भी बहुत दिनों तक चलने वाला नहीं है। क्योंकि लाखों की संख्या में उत्तर भारत से जाकर लोग महाराष्ट्र में रह रहे हैं। उनके बच्चों ने महाराष्ट्र में ही जन्म लिया है। ठाकरे परिवार स्वयं मध्यप्रदेश से आकर मुंबई में बसा है। शायद यही कारण है कि जन्म के कारण दोनों ठाकरे भाई मराठी है। इसलिए स्वयं को मराठी साबित करने के लिए जन्म का राग राज ठाकरे अलाप रहे हैं।
मतलब जो खुद को मुफीद लगे, वह परिभाषा मराठी की। राजनैतिक स्वार्थ सोच को कितना नीचे ले जा सकता है, इसका उदाहरण हैं, ठाकरों का विचार। कभी वामपंथियों की ताकत को कम करने के लिए कांग्रेस ने शिवसेना को टेका लगाया था। तब उनका नारा था कि लुंगी उठाओ पूंगी बजाओ। दक्षिण भारतीयों को मुंबई से भगाने का आंदोलन शिवसेना ने चलाया था। फिर वह बात आयी गयी हो गई। शिवसेना हिंदुओं की हितचिंतक बन गयी। इसी सोच ने भाजपा को सेना के करीब लाया। सब ठीक ठाक ही चल रहा था लेकिन राज ठाकरे के विद्रोह ने शिवसेना को फिर वहीं लौटने के लिए मजबूर कर दिया। दो भाइयों के राजनैतिक द्वन्द का शिकार उत्तर भारतीय लोग मुंबई और महाराष्ट्र में बने। कांग्रेस मुस्कराती रही। लोग सड़कों पर पिटते रहे और कांग्रेस को अपना भविष्य उज्जवल दिखायी देता रहा। कांग्रेस इस खेल की माहिर खिलाड़ी तो है ही और चुनाव परिणामों ने बता भी दिया कि राज ठाकरे के बहाने कांग्रेस ने किला फतह कर लिया। उसकी सीटों में इजाफा भी हो गया। राज ठाकरे ने भी शिवसेना से कुछ सीटें झटक ली।
यह बात दूसरी है कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण बाद में अपनी बात से पलट गए लेकिन पहले तो उन्होंने निर्णय सुना ही दिया था कि मुंबई में टैक्सी का लाइसेंस परमिट उसे ही मिलेगा जिसे मराठी पढऩा, लिखना, बोलना आएगा। अब केंद्रीय गृहमंत्री पी.चिदम्बरम कह रहे हैं कि मुंबई सबकी है और उत्तर भारतीयों की पूरी तरह से सुरक्षा की जाएगी। कांग्रेस की मुंबई में सरकार होने के बावजूद जब सड़कों पर रेहड़ी वाले, टैक्सी वाले मार खाते रहे तब उनकी सुरक्षा तो सरकार नहीं कर सकी। प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित होने गए, युवा मार खाते रहे लेकिन उनकी सुरक्षा न की जा सकी। दरअसल मोहन भागवत के स्पष्ट कथन के बाद जब भाजपा ने भी स्पष्ट कर दिया कि वह मोहन भागवत के विचारों से सहमत है तब कांग्रेस के पास भी अपनी स्थिति स्पष्ट करने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा। फिर देर से ही सही भाजपा और कांग्रेस ने अपनी राय प्रगट की तो यही उनका कर्तव्य भी था। आखिर वे राष्ट्रीय पार्टियां हैं और कम से कम उनकी सोच तो राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। तात्कालिक लाभ के लिए विष रोपण को प्रोत्साहित करने से न केवल बचना चाहिए बल्कि ऐसा करने वालों के विरुद्ध खड़े होने का दम भी दिखाना चाहिए।
कल ही बिहार में राहुल गांधी ने कहा कि जब मुंबई पर आतंकवादी हमला हुआ तब मुंबई को बचाने के लिए गए कमांडो उत्तरप्रदेश और बिहार के थे। उत्तरप्रदेश और बिहार के ही नहीं थे, पूरे देश के थे। मुंबई पर हमला कोई व्यक्तिगत मुंबई पर हमला नहीं था बल्कि भारतीयों की अस्मिता पर हमला था और पूरा देश एक था। काश्मीर जिस तरह से भारत का अविभाज्य अंग है, उसी तरह से मुंबई और महाराष्ट्र भी भारत का अविभाज्य अंग है। नफरत की सोच काश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकती तो मुंबई पर व्यक्ति विशेष या समाज के एकाधिकार को कैसे स्वीकार कर सकती है? आश्चर्य तो तब होता है जब एक से एक मराठा वीरों की जननी महाराष्ट्र जिसने राष्ट्र भक्ति का संदेश पूरे भारत को दिया, वहां संकीर्ण विचारों को पुष्पित पल्लवित किया जाता है और मराठी के नाम पर बेकसूरों के साथ अन्याय को न्याय की संज्ञा दी जाती है। छत्रपति शिवाजी को अपना नायक मानने वाले लोग अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए नफरत के बीज बोते हैं। वीरांगना लक्ष्मी बाई झांसी की रानी भी महाराष्ट्र की ही पुत्री थी और उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया। लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक को क्या देश भूल सकता है? मराठियों का तो लंबा इतिहास है।
आज जो मुंबई को मराठियों की बता रहे है, उन्हें इतिहास का भी अध्ययन कर लेना चाहिए। तुगलकी फरमानों का इतिहास में क्या हश्र हुआ है, इसे भी समझ लेना चाहिए। चमड़े के सिक्के इस देश में नहीं चलने वाले हैं तो गलत विचारों की यात्रा भी बहुत दूर तक नहीं हो सकती। दूर तक क्यों जाएं? पिछले चुनाव में ही दोनों भाइयों की पार्टियों को मिले मत ही स्पष्ट करते हैं कि 80 प्रतिशत से ज्यादा जनता उनके साथ नहीं है। बाल ठाकरे दाऊद इब्राहिम माफिया सरगना के समधी जावेद मियांदाद को तो घर बुलाकर दावत देते हैं और शाहरुख से कहते हैं कि पाकिस्तानी खिलाडिय़ों के साथ खेलना है तो पाकिस्तान में जाकर खेलें। कब किधर पलटी मार जाए, कुछ पता नहीं चलता। सत्ता में काबिज होने के लिए जो विचार हित कर दिखायी दें, अपनी सोच से, उसके बाहर सोच जाती ही नहीं। सहिष्णु भारत को संकीर्णता के दलदल में घसीटने की कोशिश पहले भी सफल नहीं हुई तो अब क्या सफल होगी?
- विष्णु सिन्हा
दिनांक 02.02.2010
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बिलकुल यही होगा… इनकी करतूतों में माइकल जैक्सन का शो प्रायोजित करने तथा मध्य मुम्बई में करोड़ों की ज़मीन धमकाकर दबा लेने को भी जोड़ लीजिये… :)
जवाब देंहटाएंअफसोसजनक सोच है उनकी.
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