यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

नितिन गडकरी के तेवर चौकड़ी के लिए खतरे की घंटी बजा रहे हैं

भाजपा के राष्ट्रीय  अधिवेशन से जो समाचार आ रहे हैं, वे समाचार यदि सिर्फ बातें न रहकर क्रियान्वयन तक पहुंच गए तो भाजपा में सब कुछ बदला बदला सा दिखायी पड़ेगा। जब नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय  अध्यक्ष बनाया गया तब किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि दिल्ली में बैठी चौकड़ी नितिन गडकरी को अध्यक्ष के रूप में सफल होते देखना पसंद करेगी और वे लोग वह सब करेंगे जिससे गडकरी उनकी हाथ की कठपुतली बन जाएं। खाने के शौकीन मोटे से या कहें बेडौल नितिन गडकरी अपने व्यक्तित्व से भी ऐसा संदेश नहीं देते थे कि इतने स्मार्ट भी हो सकते हैं कि दिग्गजों की खाट खड़ी कर दें। जब उन्होंने कहा कि दूसरों की बड़ी लकीर को छोटा करने के बदले अपनी लकीर को बड़ा करना उद्देश्य होना चाहिए तब वह यह बात दूसरों के लिए कम और अपने लिए ज्यादा कह रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि छोटे दिल से बड़े काम नहीं हो सकते। मतलब पार्टी में काम दिल बड़ा रखकर करें।

नितिन गडकरी ने यह भी अच्छी तरह से समझ लिया है कि पार्टी का वोट बैंक यदि 10 प्रतिशत बढा  लिया जाए तो भाजपा कांग्रेस के बराबर खड़ी हो सकती है और इसके लिए सबसे पहले उन्होंने दलितों पर अपनी दृष्टि केंद्रित की है। दलित के घर भोजन कर और बाबा साहेब आम्बेडकर की प्रतिमा पर पुष्प माला चढ़ाकर उन्होंने इशारा भी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कर दिया है कि कार्यकर्ता अपना ध्यान किस तरफ केंद्रित करें। कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि अब जयश्री राम के बदले भाजपा जय भीम का नारा लगाते दिखायी पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पार्टी की मुख्यधारा को किस तरफ ले जाना है यह नितिन गडकरी अच्छी तरह से समझते हैं। मुसलमान कितना भाजपा पर विश्वास करेंगे, यह अलग बात है लेकिन नितिन गडकरी मुसलमानों को भी अपने पाले में लाने का चिंतन तो कर रहे हैं और उम्मीद की जा रही है कि इस तरफ भी पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया जायेगा।


ब्राह्मण, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक कभी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करता था। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुसलमानों को जहां विकल्प मिला, उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। जहां तक दलितों का प्रश्र है तो कांग्रेस का यह वोट बैंक बसपा ने अपनी तरफ कर लिया। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों का आदिवासी आज भाजपा के पाले में है। बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि के कारण ब्राह्मण भाजपा की तरफ  आकर्षित हुआ लेकिन भाजपा उसे संभाल नहीं सकी तो उत्तरप्रदेश जैसे प्रदेश में ब्राह्मण भी मायावती के साथ चला गया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जाति तोड़ो की बात कह रहे हैं लेकिन यह हिंन्दू समाज में आसान काम नहीं है। शहरों में तो वैसे भी जाति का महत्व कम होता जा रहा है लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि में अभी भी जातियों की पकड़ मौजूद है


यही कारण है कि हिंदुओं को एक करने की कोशिश में भाजपा को सफलता नहीं मिली। भाजपा को पहली बार हिंदुओं के एक बड़े वर्ग का समर्थन मिला तो उसका कारण राम जन्मभूमि आंदोलन रहा लेकिन अब वह बात तो रही नहीं। सरकार में आने के बाद जब भाजपा राम जन्मभूमि पर मंदिर नहीं बना सकी तो फिर उत्तरप्रदेश में ही उसकी हालत खराब हो गयी। यहां तक कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस मृतशैय्या से उठ खड़ी हुई लेकिन भाजपा का हाल आज सबसे खराब है। यह दूसरी बात है कि आज भाजपा देश के 9 राज्यों में सत्ता पर है लेकिन कुछ राज्यों में उसके  पास संपूर्ण सत्ता नहीं है। भाजपा ने जिन दलों के साथ मिलकर राजग बनाया था उनमें से जनता दल यू जैसे कुछ दलों को छोड़कर अधिकांश उससे अलग हो चुके हैं। इसके साथ यह भी सच है कि छत्तीसगढ़ , मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, उत्तराखंड राज्य में संपूर्ण सत्ता भाजपा के पास है तो कई राज्यों में वह पुन: सत्तारूढ़ हुई है तो उसका कारण वहां के मुख्यमंत्रियों के क्रियाकलाप हैं। इन राज्यों में भी भाजपा सरकार को प्रतिपक्ष के कारण कोई नुकसान नहीं है लेकिन पार्टी के ही दिग्गज सत्ता के  लालच में तरह तरह के उद्यम कर पार्टी को कमजोर करने का प्रयास तो कर ही रहे हैं।


इनके विरूद्घ सख्त कार्यवाही की जरूरत है लेकिन पार्टी इनके  विरूद्घ कुछ कर नहीं पा रही है। यह निर्णय तो पार्टी का उचित है कि पार्टी से निष्कासित नेताओं को पार्टी में नहीं लिया जाएगा। इस मामले में पार्टी गुण दोष के आधार पर विचार करे तो ज्यादा अच्छा रहेगा। यह अवश्य देखा जाना चाहिए कि नेता या कार्यकर्ता पार्टी के विरूद्घ चुनाव लडऩे के  लिए तैयार होते हैं तो असल में वे दोषी हैं या पार्टी के नेता ही उन्हें उकसाते हैं और उनका उद्देश्य भी स्पष्ट होता है कि वे बागी होने के लिए उकसा कर पार्टी को नुकसान पहुंचाएं। यदि किसी कार्यकर्ता के साथ पार्टी का कोई नेता अन्याय करता है तब उस पर भी तो कार्यवाही होना चाहिए।


एक बात तो स्पष्ट दिखायी दे रही है कि नितिन गडकरी को वरिष्ठ नेता उस तरह से दबा नहीं पाएंगे जिस तरह का खेल उन्होंने राजनाथ सिंह के साथ खेला। लालकृष्ण आडवाणी कह रहे हैं कि कमियों को दूर करने की जरूरत है। यह कोई ऐसी बात नहीं है कि जिसे गडकरी नहीं समझते। बड़े नेताओं को तो वैसे भी खटका दिखायी दे रहा है। गडकरी सुनने वाले सबकी है लेकिन कार्यकारिणी के गठन से ही स्पष्ट हो जाएगा कि गडकरी अपने मन की करने वाले हैं। गडकरी के हाव-भाव से तो यही लगता है कि वे आमूल चूल परिवर्तन के मूड में हैं और निष्ठïवान, सक्रिय कार्यकर्ता को पार्टी तवज्जो देने वाली है। संगठन में दिग्गजों को लूप लाईन में डाल दें गडकरी तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके पक्ष में सबसे बड़ी बात तो यही है कि राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ का पूरा वरदहस्त उन पर है।


और मोहन भागवत ने पहले ही कह दिया है कि राख से उठ खड़े होने का दम भाजपा में है। संघ की सक्रियता भी मोहन भागवत के सरसंघचालक बनने के बाद बढ़ी है। भाजपा को चुस्त दुरूस्त और विस्तारित करने का दायित्व नितिन गडकरी पर है तो संघ को चारों दिशाओं में फैलाने और सशक्त करने का काम मोहन भागवत के पास है। मतलब दोनों संगठन को मजबूत करने का काम करने वाले हैं। प्रतिपक्ष की सत्ता पर भले ही आडवाणी और उनके अनुयायी काबिज रहें लेकिन असली ताकत तो संगठन ही है और संगठन पर जिस तरह से नितिन गडकरी का शिकंजा कसता जा रहा है, उसके  बाद दर्शनीय हुंडियों का क्या महत्व रह जाएगा, यह भी स्पष्ट दिखायी दे रहा है। अब जोड़ तोड़ की राजनीति से उच्च पदस्थ होने का वक्त बीत रहा हैै। चापलूसी के बदले कार्यकुशलता काम आने वाली है तो भाजपा चौकड़ी से या तो मुक्त हो जाएगी या फिर  चौकड़ी को ही अपने रंग ढंग बदलने पड़ेंगे।


- विष्णु सिन्हा
18-2-2010
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