यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

भाजपा का बंद ही साबित करता है कि महगाई से जनता कितनी परेशान है

महंगाई के विरोध में भारतीय जनता पार्टी का छत्तीसगढ़ बंद पूरी तरह से सफल रहा। कांग्रेस कितना भी प्रचार करे कि महंगाई का कारण राज्य सरकार है लेकिन आम जनता के गले से यह बात नीचे नहीं उतरती। क्योंकि राज्य सरकार के कारण सिर्फ महंगाई होती तो फिर राज्य विशेष में ही होती। अखिल भारतीय स्तर पर उसका प्रभाव नहीं होता। रसोई गैस की कीमत ही अब 100 रुपए अधिक मांगे जा रहे हैं। इसका कारण भी राज्य सरकार है, क्या? केंद्र की कांग्रेस सरकार कुछ करती है तो कुछ दिनों के लिए दालों की कीमत थोक बाजार में कम हो जाती है लेकिन चिल्हर  बाजार पर उसका जो असर पडऩा चाहिए वह नहीं पड़ता। दो चार दिन के बाद कीमतें फिर बढऩे लगती हैं। सरकार में बैठे लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि वास्तव में आम जनता का महंगाई ने किस प्रकार जीना मुश्किल कर रखा है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में शासन करने वाली भाजपा जब महंगाई के नाम पर राज्य बंद का आव्हान करती है, तब स्वस्फूर्त बंद हो जाता है। 

बंद को मिलने वाली सफलता से स्थानीय कांग्रेसियों को स्वाभाविक रुप से कष्ट होता है। वे टोकन रुप से राज्य सरकार और महंगाई का पुतला जला कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं कि वे भी महंगाई के विरुद्ध हैं और महंगाई उनकी केंद्र सरकार के कारण नहीं बल्कि राज्य सरकार के कारण है। यह बात जनता को हजम नहीं होती। प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह कहते हैं कि वायदा कारोबार खाद्यान्न का बंद किया जाए, तब केंद्र सरकार इस पर ध्यान देने को तैयार नहीं। खाद्यान्न पर जब तक खुले आम सट्ट होगा तब तक बाजार में भाव सटोरियों के अनुसार चलेंगे। जिनका न तो फसल पैदा करने में कोई हाथ है और खरीदी बिक्री में। वे ही जब भाव के उतार चढ़ाव में करोड़ों नहीं अरबों का खेल खेलते हैं तब भाव उनके नियंत्रण में चले जाते हैं। सट्टï शब्द ही समाज की दृष्टि में अच्छा नहीं है। एक संवेदनशील सरकार किस तरह से खाद्यान्न पर सट्टï करने का कानूनी अधिकार देती हैं? पेट के आग से बड़ी आग तो कोई नहीं होती। गरीबों को सस्ते दर पर खाद्यान्न देने का कार्यक्रम यदि सरकार बंद कर दे तब क्या हो सकता है, कुछ कहा नहीं जा सकता


मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने प्रधानमंत्री से यह भी कहा कि थोक और चिल्हर में लाभ का प्रतिशत तय कर दिया जाए तो मूल्य पर नियंत्रण किया जा सकता है। या तो केंद्र सरकार इसके लिए कानून बनाए या राज्य सरकार को इसका अधिकार दे। जिससे भाव तो बाजार में इस तरह से छलांग न लगाएं लेकिन केंद्र सरकार इसके लिए भी तैयार नहीं है। विकासशील देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए कृतसंकल्पित मनमोहन सिंह बहुत बड़े अर्थशास्त्री हैं लेकिन पेट की भूख किसी शास्त्र के अनुसार नहीं चलती। 115 करोड़ जनसंख्या का देश मांग और पूर्ति के अनुसार कीमत बाजार में निर्धारित कर लोगों को राहत नहीं दे सकता। राज्य की डॉ. रमन सिंह सरकार तो इतनी संवेदनशील है कि उसने महंगाई की मार का पहले ही आकलन कर लिया था। इसीलिए अपनी आधी जनसंख्या की वह 2 रु. किलो एवं 1 रुपए किलो में चांवल दे रही है। इसके लिए बजट का बड़ा हिस्सा जो विकास कार्य में लगना चाहिए, उसे इस काम में लगाया जा रहा है। डॉ. रमन सिंह कहते हैं कि उनके राज्य में कोई भूखा रहे, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं।
डॉ.  सिंह ने तो दाल भी केंद्र से मांगा हैं। जिससे गरीब आदमी भात के साथ दाल तो खा सके। कभी कहा जाता था कि दाल रोटी खाओ प्रभु के  गुन गाओ। आज स्थिति ऐसी है कि रोटी या भात के साथ दाल नसीब में नहीं है, गरीब आदमी के। सबसे महंगा खाद्यान्न दाल ही हो गया है। जहां तक शक्कर का प्रश्र है तो वह अब हर किसी के बस की बात नहीं रही। जो खाते हैं उनका जायका भी मीठा नहीं। बाकी जिन्हें नहीं मिलता, उनके विषय में सोचने की फुरसत किसे है। ऊपर से शरद पवार केंद्रीय कृषि मंत्री का समाचार पत्र तो शक्कर न खाने के लाभ बता रहा है। कोई जल कुकड़ा मधुमेह रोगी शक्कर महंगी होने से भले ही खुश हो, क्योंकि उस पर तो शक्कर खाने क्या चखने का भी प्रतिबंध है लेकिन आम आदमी की जिंदगी में खुशी के पल दो पल शक्कर की मिठास ही ले आती है। जो अब प्राप्त करना कठिन हो गया है।
निम्र मध्यम श्रेणी वर्ग का व्यक्ति अपने परिवार का पालन पोषण किस तरह से करता है, यह बड़े-बड़े पदों पर बैठ विरले ही समझ सकते हैं। विकास के नाम पर भोजन इतना महंगा हो जाएगा, यह तो सोच के भी बाहर की बात है। कहते हैं मंदी से भारत उबर गया। भारतीय कृषि ने भारत को मंदी से उबारने में सबसे बड़ी भूमिका निभायी। देश में भोजन के लिए खाद्यान्न की पर्याप्त व्यवस्था होने के कारण देश को आयात का कम सहारा लेना पड़ा। हालांकि इसके बावजूद भारत ने खाद्यान्न का निर्यात भी किया। जब निर्यात पर कुछ जिन्सों में पाबंदी लगायी गई तब भी व्यापारियों ने बड़ा हल्ला मचाया कि निर्यात की इजाजत दी जाए। क्योंकि विश्व बाजार में अच्छी मांग है और अच्छे भाव पर बिकवाली हो सकती है। सरकार की दूरदर्शिता कहे या बेवकूफी कि उसने शक्कर सस्ते में विदेशों को बेची और फिर महंगी कीमत पर देश की आवश्यकता पूर्ति के लिए खरीदी।


भारत जैसे प्रजातांत्रिक मुल्क में 115 करोड़ देशवासियों को बाजार के  हवाले करना सरकार की कितनी बड़ी दूरदर्शिता है, यह अब दिखायी देने लगा है। कृषि पर आधारित जीवन यापन करने वालों की संख्या ही इस समय 60 प्रतिशत से अधिक है। क्या बाजार में बढ़े मूल्यों का लाभ कृषकों को मिल रहा है तो कितना मिल रहा है? कोई भी किसान हर तरह की फसल तो नहीं उगाता। इसलिए बाकी के लिए उसे बाजार का शिकार होना ही पड़ता है। चावल, गेहूं तो सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदती है। गन्ने का भी समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए पिछले दिनों किसानों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया था लेकिन उत्पादक किसान भी तो बाजार से ही शक्कर खरीद कर उपयोग में लाता है।


60 प्रतिशत किसानों के बाद देश की जो 40 प्रतिशत आबादी है, वह निश्चित आय में ही गुजारा करती है। बहुतों को तो उसकी निश्चितता भी उपलब्ध नहीं है। बाजार में बढ़ती कीमत ने उसका बजट पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। शासकीय कर्मचारियों का वेतन सरकार ने बढ़ा दिया लेकिन सबके  वेतन तो उस अनुपात में नहीं बढ़े बल्कि कइयों को इस दौर में अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। कोई शिकायत करे भी तो किससे? फिर शिकायत करने से महंगाई कम हो जाती तो जनता शिकायत भी कर लेती। इसीलिए जब भाजपा ने महंगाई के विरुद्ध बंद का आव्हान किया तो बंद को व्यापक सफलता मिली। यह सही है कि इससे रोज कमाने खाने वालों को तकलीफ हुई लेकिन रोज की तकलीफ की तुलना में एक दिन की तकलीफ तो कोई मायने नहीं रखती। शरद पवार कहते हैं कि फसल अच्छी आएगी तो महंगाई कम हो जाएगी। मतलब साफ है कि भोगो महंगाई को और परमात्मा से ही प्रार्थना करो कि वह अच्छी फसल का अवसर दे। जिससे महंगाई से निजात मिले।
- विष्णु सिन्हा 


दिनांक 14.02.2010
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