उच्चतम न्यायालय प्रधानमंत्री से पूछ रहा है कि राजा के खिलाफ मुकदमा
चलाने के मामले पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? उच्चतम न्यायालय ने 3 माह
का समय दिया था लेकिन 16 माह बीत जाने के बाद भी निर्णय नहीं हुआ। उच्चतम
न्यायालय अपनी कार्रवाई आगे बढ़ाने के लिए भले ही सरकार का उत्तर चाहता
है लेकिन क्यों कार्रवाई नहीं की गयी, यह बात तो सभी को पता है। सरकार को
बनाए रखने के लिए बहुमत की आवश्यकता ने ही प्रधानमंत्री को रोके रखा।
राजा मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के ऐसे मंत्री थे जो प्रधानमंत्री की बात भी
नहीं मानते थे। करुणानिधि की जिद थी कि राजा इस्तीफा नहीं देंगे और उनसे
इस्तीफा लिया गया या उन्हें बर्खास्त किया गया तो वे सरकार से समर्थन
वापस ले लेंगे। करुणानिधि की इस बंदर घुड़की से ही सरकार दबी हुई थी
लेकिन जब करुणानिधि ने देख लिया कि राजा को इस्तीफा देना ही पड़ेगा और
सरकार अब राजा को बचा नहीं सकती तो उन्होंने इस्तीफा देने का निर्देश
राजा को दिया।
मनमोहन सिंह की कमजोरी यह थी कि वे मुकदमा चलाने की अनुमति देते तो
उन्हें राजा से इस्तीफा लेना पड़ता। इस्तीफा न देने पर बर्खास्त करना
पड़ता। संसद में विपक्ष के हंगामे के बाद भी राजा इस्तीफा देने के पहले
स्वयं को न केवल पाक साफ बताते रहे बल्कि इस्तीफे को सिरे से नकारते रहे।
फिर क्यों नहीं नकारते, जब उन्हें अपने दल के सुप्रीमो करुणानिधि का
आशीर्वाद मिला हुआ था। विपक्ष दृढ़ संकल्प से राजा को हटाने की और
संयुक्त संसदीय दल से जांच की मांग पर अड़ा रहा और उसने संसद नहीं चलने
दिया तब कहीं जाकर करुणानिधि राजा के इस्तीफे के लिए तैयार हुए। यह तो
ऊपर-ऊपर की कहानी है और इससे सभी परिचित हैं लेकिन अंदर की कहानी भी
स्पष्टï है। राजा का इस्तीफा करुणानिधि को भारी पडऩा था और पड़ रहा है।
देश भर में तो उनकी प्रतिष्ठा धूल धूसरित हुई ही। तमिलनाडु में भी उनके
लिए आसन्न विधानसभा चुनाव भारी पडऩे वाला हैं। 1 लाख 76 हजार रुपए का
भ्रष्टाचार उनकी मिट्टी पलीद करने के लिए पर्याप्त हैं।
क्योंकि यह बात कोई व्यक्ति या राजनैतिक पार्टी नहीं कर रही है बल्कि कैग
की रिपोर्ट कह रही है। जिसे संसद के पटल पर रख दिया गया है। प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह लोकसभा में इस संबंध में बयान देने वाले थे लेकिन फिर अचानक
राजा के इस्तीफा देने के बाद उन्होंने बयान नहीं दिया। निश्चित रुप से
मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं लेकिन राजा के कृत्य ने उनकी
ईमानदारी को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। सब कुछ जानते हुए कार्रवाई न
करना उन्हें न केवल नैतिक रुप से जिम्मेदार बनाता है बल्कि संवैधानिक रुप
से भी उनकी ही जिम्मेदारी थी कि वे राजा के कृत्य के लिए उसे न्यायालय के
हवाले करते। भारत में 120 करोड़ जनता के धन के साथ ऐसा लूटमार एक
प्रधानमंत्री कैसे देख और बर्दाश्त कर सकता है? इस मामले में निश्चय ही
मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी से भी निर्देश मांगा होगा। क्योंकि वास्तव
में वे ऐसे प्रधानमंत्री नहीं जो सब कुछ का निर्णय स्वयं लें। उनकी लगाम
सोनिया गांधी के हाथ में है और इस बात से तो कोई भी इंकार नहीं कर सकता।
आजकल समाचार पत्रों में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच न पटने के भी
समाचार प्रकाशित हो रहे हैं। इससे यह भी संदेश पैदा होता है कि कहीं
मनमोहन सिंह की छबि खराब करने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है। जिससे
उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हटाया जा सके। यदि यह सच है तो एक ईमानदार
व्यक्ति के साथ यह कोई अच्छी राजनैतिक चाल नहीं है। मनमोहन सिंह को जब
चाहें पूरी भलमनसाहत के साथ हटाया जा सकता है लेकिन शायद मन में डर हो कि
भले आदमी को बिना किसी वजह के पद से हटाना राजनैतिक रुप से नुकसानप्रद न
साबित हो। मनमोहन सिंह का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ता कद किसी न
किसी को तो बौनेपन का आभास करा रहा है। दुनिया की ताकतवर हस्ती जब मनमोहन
सिंह की तारीफ में कसीदे काढ़े तो किसी न किसी के हृदय में टीस उठती ही
होगी।
गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। गठबंधन में कौन सा दल रहे और कौन सा
नहीं, यह तय करना मनमोहन सिंह का नहीं सोनिया गांधी का काम है। फिर
गठबंधन के किस दल को मंत्रिमंडल में कितना स्थान और कौन सा विभाग मिले,
यह तय करना भी मनमोहन सिंह के हाथ में नहीं है। राजनैतिक रुप से कभी न
कभी मनमोहन सिंह ने कोशिश की और न ही सोनियागांधी ने अवसर दिया कि मनमोहन
सिंह देश की जनता के बीच एक राजनेेता की तरह प्रतिष्ठिïत हों। चुनाव
प्रचार में भी उनकी भूमिका एक टोकन की तरह रही। मनमोहन सिंह ने इस
व्यवस्था को लेकर कभी नाराजगी भी प्रगट नहीं की। वे अपनी भूमिका को अच्छी
तरह से जानते और समझते हैं। वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि वे
सोनिया गांधी के चुने हुए प्रधानमंत्री हैं। जब तक सोनिया गांधी चाहेंगी
वे पद पर बने रहेंगे। इसके बावजूद उन्होंने पिछले दिनों कहा कि अभी वे
अवकाश ग्रहण नहीं करना चाहते। उनकी स्थिति का आभास तो इसी बात से हो जाता
है कि उनकी ही मंत्रिपरिषद का सदस्य उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं था
और उसके बावजूद वे उसे अपने मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता नहीं दिखा सकते
थे। इस कमजोरी का असली कारण तो स्पष्टï है। बिना आलाकमान के निर्णय के वे
कुछ कर नहीं सकते। तमाम कारणों के बावजूद मनमोहन सिंह अपनी स्थिति के लिए
किसी दूसरे पर दोषारोपण कर बच नहीं सकते। संवैधानिक रुप से वे
प्रधानमंत्री की हैसियत से अपने मंत्री के कार्यों के प्रति जवाबदार है।
वे सुप्रीम कोर्ट में अपनी दयनीय स्थिति का बखान कर बच नहीं सकते कि उनका
मंत्री उनका कहा नहीं सुनता तो वे चुप्पी लगाते हैं। अर्थशास्त्र के इस
प्रकांड पंडित को प्रधानमंत्री बने रहने की ही ऐसी क्या मजबूरी है कि
इतना बड़ा आर्थिक घोटाला होते हुए वे न तो रोक सके और न ही उसे
मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर सके। वे यदि राजा को हटाने में अक्षम थे तो वे
स्वयं प्रधानमंत्री का पद छोड़ सकते थे। उनकी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के
रुप में सोनिया गांधी से ज्यादा राष्टï्र के प्रति थी और वे इस मामले में
अक्षम सिद्ध हुए, इसके लिए अब प्रमाण की जरुरत नहीं है।
लोकसभा चुनाव के समय जब लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि मनमोहन सिंह एक
कमजोर प्रधानमंत्री हैं तब तो मनमोहन सिंह ने बड़े गुस्से से कहा था कि
वे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं है लेकिन राजा के मामले में उच्चतम न्यायालय
के निर्देश का पालन न कर एक भ्रष्टï व्यक्ति को इतने दिनों तक अपने
मंत्रिमंडल में रख कर तो उन्होंने यह संदेश दिया है कि वे कमजोर
प्रधानमंत्री हैं। यह दूसरी बात है कि देश को आर्थिक रुप से सुदृढ़ करने
के मामले में उनकी सेवाएं अद्वितीय हैं लेकिन 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए
का नुकसान अपनी आंखों के सामने होता देखना, उनकी योग्यता पर भी
प्रश्रचिन्ह ही लगाता है। अब दें जवाब उच्चतम न्यायालय को पूरी ईमानदारी
से कि क्यों उन्होने मुकदमा चलाने की अनुमति 16 माह तक नहीं दी?
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 17.11.2010
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चलाने के मामले पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? उच्चतम न्यायालय ने 3 माह
का समय दिया था लेकिन 16 माह बीत जाने के बाद भी निर्णय नहीं हुआ। उच्चतम
न्यायालय अपनी कार्रवाई आगे बढ़ाने के लिए भले ही सरकार का उत्तर चाहता
है लेकिन क्यों कार्रवाई नहीं की गयी, यह बात तो सभी को पता है। सरकार को
बनाए रखने के लिए बहुमत की आवश्यकता ने ही प्रधानमंत्री को रोके रखा।
राजा मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के ऐसे मंत्री थे जो प्रधानमंत्री की बात भी
नहीं मानते थे। करुणानिधि की जिद थी कि राजा इस्तीफा नहीं देंगे और उनसे
इस्तीफा लिया गया या उन्हें बर्खास्त किया गया तो वे सरकार से समर्थन
वापस ले लेंगे। करुणानिधि की इस बंदर घुड़की से ही सरकार दबी हुई थी
लेकिन जब करुणानिधि ने देख लिया कि राजा को इस्तीफा देना ही पड़ेगा और
सरकार अब राजा को बचा नहीं सकती तो उन्होंने इस्तीफा देने का निर्देश
राजा को दिया।
मनमोहन सिंह की कमजोरी यह थी कि वे मुकदमा चलाने की अनुमति देते तो
उन्हें राजा से इस्तीफा लेना पड़ता। इस्तीफा न देने पर बर्खास्त करना
पड़ता। संसद में विपक्ष के हंगामे के बाद भी राजा इस्तीफा देने के पहले
स्वयं को न केवल पाक साफ बताते रहे बल्कि इस्तीफे को सिरे से नकारते रहे।
फिर क्यों नहीं नकारते, जब उन्हें अपने दल के सुप्रीमो करुणानिधि का
आशीर्वाद मिला हुआ था। विपक्ष दृढ़ संकल्प से राजा को हटाने की और
संयुक्त संसदीय दल से जांच की मांग पर अड़ा रहा और उसने संसद नहीं चलने
दिया तब कहीं जाकर करुणानिधि राजा के इस्तीफे के लिए तैयार हुए। यह तो
ऊपर-ऊपर की कहानी है और इससे सभी परिचित हैं लेकिन अंदर की कहानी भी
स्पष्टï है। राजा का इस्तीफा करुणानिधि को भारी पडऩा था और पड़ रहा है।
देश भर में तो उनकी प्रतिष्ठा धूल धूसरित हुई ही। तमिलनाडु में भी उनके
लिए आसन्न विधानसभा चुनाव भारी पडऩे वाला हैं। 1 लाख 76 हजार रुपए का
भ्रष्टाचार उनकी मिट्टी पलीद करने के लिए पर्याप्त हैं।
क्योंकि यह बात कोई व्यक्ति या राजनैतिक पार्टी नहीं कर रही है बल्कि कैग
की रिपोर्ट कह रही है। जिसे संसद के पटल पर रख दिया गया है। प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह लोकसभा में इस संबंध में बयान देने वाले थे लेकिन फिर अचानक
राजा के इस्तीफा देने के बाद उन्होंने बयान नहीं दिया। निश्चित रुप से
मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं लेकिन राजा के कृत्य ने उनकी
ईमानदारी को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। सब कुछ जानते हुए कार्रवाई न
करना उन्हें न केवल नैतिक रुप से जिम्मेदार बनाता है बल्कि संवैधानिक रुप
से भी उनकी ही जिम्मेदारी थी कि वे राजा के कृत्य के लिए उसे न्यायालय के
हवाले करते। भारत में 120 करोड़ जनता के धन के साथ ऐसा लूटमार एक
प्रधानमंत्री कैसे देख और बर्दाश्त कर सकता है? इस मामले में निश्चय ही
मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी से भी निर्देश मांगा होगा। क्योंकि वास्तव
में वे ऐसे प्रधानमंत्री नहीं जो सब कुछ का निर्णय स्वयं लें। उनकी लगाम
सोनिया गांधी के हाथ में है और इस बात से तो कोई भी इंकार नहीं कर सकता।
आजकल समाचार पत्रों में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच न पटने के भी
समाचार प्रकाशित हो रहे हैं। इससे यह भी संदेश पैदा होता है कि कहीं
मनमोहन सिंह की छबि खराब करने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है। जिससे
उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हटाया जा सके। यदि यह सच है तो एक ईमानदार
व्यक्ति के साथ यह कोई अच्छी राजनैतिक चाल नहीं है। मनमोहन सिंह को जब
चाहें पूरी भलमनसाहत के साथ हटाया जा सकता है लेकिन शायद मन में डर हो कि
भले आदमी को बिना किसी वजह के पद से हटाना राजनैतिक रुप से नुकसानप्रद न
साबित हो। मनमोहन सिंह का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ता कद किसी न
किसी को तो बौनेपन का आभास करा रहा है। दुनिया की ताकतवर हस्ती जब मनमोहन
सिंह की तारीफ में कसीदे काढ़े तो किसी न किसी के हृदय में टीस उठती ही
होगी।
गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। गठबंधन में कौन सा दल रहे और कौन सा
नहीं, यह तय करना मनमोहन सिंह का नहीं सोनिया गांधी का काम है। फिर
गठबंधन के किस दल को मंत्रिमंडल में कितना स्थान और कौन सा विभाग मिले,
यह तय करना भी मनमोहन सिंह के हाथ में नहीं है। राजनैतिक रुप से कभी न
कभी मनमोहन सिंह ने कोशिश की और न ही सोनियागांधी ने अवसर दिया कि मनमोहन
सिंह देश की जनता के बीच एक राजनेेता की तरह प्रतिष्ठिïत हों। चुनाव
प्रचार में भी उनकी भूमिका एक टोकन की तरह रही। मनमोहन सिंह ने इस
व्यवस्था को लेकर कभी नाराजगी भी प्रगट नहीं की। वे अपनी भूमिका को अच्छी
तरह से जानते और समझते हैं। वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि वे
सोनिया गांधी के चुने हुए प्रधानमंत्री हैं। जब तक सोनिया गांधी चाहेंगी
वे पद पर बने रहेंगे। इसके बावजूद उन्होंने पिछले दिनों कहा कि अभी वे
अवकाश ग्रहण नहीं करना चाहते। उनकी स्थिति का आभास तो इसी बात से हो जाता
है कि उनकी ही मंत्रिपरिषद का सदस्य उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं था
और उसके बावजूद वे उसे अपने मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता नहीं दिखा सकते
थे। इस कमजोरी का असली कारण तो स्पष्टï है। बिना आलाकमान के निर्णय के वे
कुछ कर नहीं सकते। तमाम कारणों के बावजूद मनमोहन सिंह अपनी स्थिति के लिए
किसी दूसरे पर दोषारोपण कर बच नहीं सकते। संवैधानिक रुप से वे
प्रधानमंत्री की हैसियत से अपने मंत्री के कार्यों के प्रति जवाबदार है।
वे सुप्रीम कोर्ट में अपनी दयनीय स्थिति का बखान कर बच नहीं सकते कि उनका
मंत्री उनका कहा नहीं सुनता तो वे चुप्पी लगाते हैं। अर्थशास्त्र के इस
प्रकांड पंडित को प्रधानमंत्री बने रहने की ही ऐसी क्या मजबूरी है कि
इतना बड़ा आर्थिक घोटाला होते हुए वे न तो रोक सके और न ही उसे
मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर सके। वे यदि राजा को हटाने में अक्षम थे तो वे
स्वयं प्रधानमंत्री का पद छोड़ सकते थे। उनकी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के
रुप में सोनिया गांधी से ज्यादा राष्टï्र के प्रति थी और वे इस मामले में
अक्षम सिद्ध हुए, इसके लिए अब प्रमाण की जरुरत नहीं है।
लोकसभा चुनाव के समय जब लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि मनमोहन सिंह एक
कमजोर प्रधानमंत्री हैं तब तो मनमोहन सिंह ने बड़े गुस्से से कहा था कि
वे कमजोर प्रधानमंत्री नहीं है लेकिन राजा के मामले में उच्चतम न्यायालय
के निर्देश का पालन न कर एक भ्रष्टï व्यक्ति को इतने दिनों तक अपने
मंत्रिमंडल में रख कर तो उन्होंने यह संदेश दिया है कि वे कमजोर
प्रधानमंत्री हैं। यह दूसरी बात है कि देश को आर्थिक रुप से सुदृढ़ करने
के मामले में उनकी सेवाएं अद्वितीय हैं लेकिन 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए
का नुकसान अपनी आंखों के सामने होता देखना, उनकी योग्यता पर भी
प्रश्रचिन्ह ही लगाता है। अब दें जवाब उच्चतम न्यायालय को पूरी ईमानदारी
से कि क्यों उन्होने मुकदमा चलाने की अनुमति 16 माह तक नहीं दी?
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 17.11.2010
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