यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

मनमोहन इस्तीफा दें या न दें लेकिन राजा का भ्रष्टïचार कांग्रेस के लिए भारी नुकसानप्रद साबित होगा

कहा जा रहा है कि मनमोहन सिंह इस्तीफा नहीं देंगे। लोग उम्मीद ही क्यों
कर रहे हैं कि मनमोहन सिंह इस्तीफा दे देंगे? लाल बहादुर शास्त्री अकेले
ऐसे राजनेता थे जिन्होंने रेल दुर्घटना पर रेल मंत्री का पद छोड़ दिया
था। अब तो रोज दुर्घटनाएं होती हैं। कोई रेल मंत्री इस्तीफा नहीं देता।
नैतिकता और आदर्श की बातें अब छोटों के लिए भले ही आवश्यक हों लेकिन
उच्चतम पद पर बैठे लोग इस तरह की बातों पर विश्वास नहीं करते। महाधिवक्ता
कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री की चुप्पी के विषय में उच्चतम न्यायालय का
प्रश्र प्रधानमंत्री के लिए अपमानजनक नहीं हैं। अपमानजनक तो अब कुछ भी
नहीं रह गया है। लोगों को मुफत में अनाज सड़ाने के बदले बांटने का उच्चतम
न्यायालय का आदेश भी कहां शर्मिंदगी पैदा करता है बल्कि उच्चतम न्यायालय
के निर्देश को मानने से इंकार कर न्यायालय के औचित्य पर ही प्रश्रचिन्ह
लगाया जाता है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। इस बात को सारी दुनिया
मानती है लेकिन एक व्यक्ति बिना जनता से जनादेश प्राप्त किए संवैधानिक
प्रावधानों के तहत देश का सर्वोच्च पद सुशेाभित कर सकता है, यह भी भारतीय
प्रजातंत्र की ही देन है। मंत्रिपरिषद का एक मंत्री प्रधानमंत्री के आदेश
की भी उपेक्षा कर अरबों के भ्रष्टïाचार को प्रोत्साहित करता है और
प्रधानमंत्री टुकुर टुकुर देखते रहने के सिवाय कुछ कर नहीं सकते। इससे
बड़ी विडंबना क्या होगी? मंत्री प्रधानमंत्री के कहने से इस्तीफा भी देने
के लिए तैयार नहीं होता और प्रधानमंत्री उसे हटा भी नहीं सकते, यह बडी़
से बड़ी विडंबना है। न्यायालय पूछने के लिए बाध्य होता है कि मुकदमा
चलाने की अनुमति 16 माह तक क्यों नहीं दी गयी तो इससे सरकार की नीयत पर
ही संदेह खड़ा होता है। स्पष्टï प्रथम दृष्टिï में तो यही दिखायी देता है
कि प्रधानमंत्री अपने मंत्री को संरक्षण दे रहे हैं।
भ्रष्टïाचार के मामले में न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जाता है लेकिन
प्रधानमंत्री के कान पर जूं भी नहीं रेंगती। जब कैग की रिपोर्ट ही इस
संबंध में आ जाती है कि करीब 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान सरकारी खजाने
को पहुंचाया गया है और विपक्ष सांसद में हंगामा करता है तब भी मंत्री
पूरी बेशर्मी से कहता हैं कि मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। प्र्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह 79 वर्ष के हो गये। वे कहते हैं कि अवकाश ग्रहण करने की उनकी
इच्छा नहीं है तो युवा मंत्री कैसे सोच सकता है कि वह राजपाठ का त्याग कर
दे। जब अशोक चव्हाण से आदर्श घोटाले के नाम पर इस्तीफा ले लिया जाता है
और निर्णय सोनिया गांधी करती हैं तब मनमोहन सिंह भी अशोक चव्हाण की तरह
अपना इस्तीफा सोनिया गांधी को ही देने से क्यों हिचक रहे हैं? सोनिया
गांधी स्वीकार करें या न करें लेकिन पहल तो उन्हें करना ही चाहिए।
खुद का ईमानदार होना ही पर्याप्त नहीं होता। वे सामूहिक रूप से अपने
मंत्रियों के कामों के लिए भी जिम्मेदार हैं। फिर यह मामला तो सीधा और
साफ है। सब कुछ जानते बुझते हुए भी सिर्फ सरकार बनी रहे और वे
प्रधानमंत्री बने रहें, इसलिए उन्होंने राजा को मंत्रिमंडल से बर्खास्त
करने की हिम्मत नहीं दिखायी। यह उनकी कमजोरी का ही परिचायक है। सब कुछ
जानते समझते हुए इतने बड़े भ्रष्टïाचार को रोकने में असफल रहना,
प्रधानमंत्री की स्वयं की असफलता है। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जमे रहने
के लिए वे हर तरह का समझौता करने के लिए तैयार हैं। अर्जुनसिंह ने उनके
मंत्रिमंडल में रहते हुए जब राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य
करार दिया तो मनमोहन सिंह ऐसे नाराज हुए कि दूसरी बार सरकार बनाते समय
अपने मंत्रिमंडल में सम्मिलित करने के लिए तैयार नहीं हुए। उनके स्थान पर
कपिल सिब्बल को मानव संसाधन मंत्री बनाया और राजा के इस्तीफा देने पर
संचार मंत्रालय का कार्यभार भी सिब्बल को ही सौंप दिया।
वे महान अर्थशास्त्री हैं लेकिन इतने ही बड़े इंसान हैं, यह तो साबित
नहीं होता। नरसिंह राव के मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री बनकर उन्होंने
राजनीति में प्रवेश किया था। नरसिंहराव ऐसे कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए
जिन पर तरह तरह के आरोप लगे। बाबरी मस्जिद विध्वंस तक में सहयोगी होने का
आरोप उन पर लगा। सांसदों की खरीद फरोख्त का आरोप लगा। जब हवाला का आरोप
उनके मंत्रियों पर लगा तो उन्होंने मंत्रियों से इस्तीफा ले लिया लेकिन
खुद पर लगे आरोपों के कारण इस्तीफा नहीं दिया। मनमेाहन सिंह तो अपने
मंत्री से भी इस्तीफा नहीं ले सके। मंत्री ने इस्तीफा भी दिया तो अपनी
पार्टी के नेता के कहने पर दिया। नरसिंहराव को भी विद्वान व्यक्ति माना
जाता था और मनमोहन सिंह को भी विद्वान माना जाता है। उनकी आर्थिक विद्वता
के कारण ही नरसिंहराव ने उन्हें वित्त मंत्री बनाया था। नरसिंहराव की
सरकार चले जाने के बाद अपनी सज्जनता से मनमोहन सिंह ने सोनिया गांधी का
विश्वास अर्जित किया। मनमोहन सिंह कांग्रेस के नेता ऐसे रहे जिनका कभी
कोई गुट नहीं रहा। ठीक वैसे ही जैसे नरसिंहराव का भी कोई गुट नहीं था।
कांग्रेस के आलाकमानों की दृष्टिï में ये ऐसे नेता रहे जिन्होंने
हार्मलेस होने की छवि अपनी बनायी। आलाकमान का विश्वास जीतने का यह सौ
फीसदी आजमाया हुआ नुस्खा है। जब कोई गुट ही नहीं है। कोई अपना आदमी नहीं।
आलाकमान के प्रति वफादारी ही एकमात्र सिद्घांत तो विश्वसनीयता का इससे
बड़ा तरीका और क्या होगा? महाराष्टï्र के नवनियुक्त मुख्यमंत्री
पृथ्वीराज चव्हाण भी इसी छवि के व्यक्ति हैं और महाराष्टï्र में सर्वोच्च
पद के हकदार बन गए। आलाकमान के नाम की माला जपी तो एक दिन बरदान मिलता ही
है। ऐसा ही वरदान छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी को भी मिला था। पद में आने के
बाद फिर अपने लोग पैदा हो ही जाते हैं और पद बचाने के लिए हर तरह के
कृत्य जायज लगने लगते हैं।
जनसेवा का राग कितना भी राजनेता गाएं लेकिन असली उद्देश्य तो सत्ता होती
है। एक बार सत्ता की आसंदी पर बैठने का अवसर मिल जाए तो आसंदी से ऐसे
चिपकते हैं कि उठने का नाम ही नहीं लेते। जमे रहने के लिए हर तरह का
कृत्य जायज लगता है। नाजायज भी लगे तो भी बर्दाश्त किया जाता है। पद पर
पदारूढ़ होना इतना सम्मानजनक लगता है कि बड़े से बड़ा अपमान भी कोई बहुत
मायने नहीं रखता। नहीं तो क्या कारण है कि जो एक ईमानदार व्यक्ति भ्रष्टï
व्यक्ति को अपने मंत्रिमंडल में बर्दाश्त करता है। वह कैग को ही उपदेश
देता है कि भूल से किए गए काम और जान बूझकर किए काम में उसे भेद करना
चाहिए। 150 वर्ष हो गए, कैग को अस्तित्व में आए। कैग की रिपोर्ट नहीं आती
तो राजा आज भी मंत्री पद पर जमे रहते। क्योंकि कैग की रिपोर्ट ने झूठ की
पोल खोल दी और विपक्ष इसे गले से नीचे उतारने में स्वयं को सक्षम नहीं
महसूस कर सका। उसके पास इसके सिवाय कोई चारा नहंी था कि वह राजा के
इस्तीफे के लिए सरकार को बाध्य करे। उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद
तो विपक्ष का हक बनता है कि वह प्रधानमंत्री से भी इस्तीफा मांगे। सोनिया
गांधी को बाध्य करे कि वे मनमेाहन सिंह का इस्तीफा ले लें। या फिर
कांग्रेस पार्टी राजा के पाप के बोझ को ढोए। बोफोर्स ने कांग्रेस की क्या
हालत की थी, यह आलाकमान सहित सबको अच्छी तरह से पता है। वह तो सौ करोड़
से भी कम का मामला था लेकिन यह मामला तो 1 लाख 76 हजार करोड़ का है और यह
चुनावी मुद्दा बना तो कांग्रेस की लुटिया डूबा सकता है।
- विष्णु सिन्हा
18-11-2010