यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

छत्तीसगढ़ ने 10 वर्ष पूरे कर लिए लेकिन आगे का रास्ता तय करना अभी बाकी है

शासकीय कार्यक्रमों  में जनता की रूचि वैसी नही  होती जैसी राज्योत्सव
में दिखायी दी। सलमान खान से लेकर सलोनी तक ने मंच पर कार्यक्रम दिए और
छत्तीसगढ़ राज्य के दस वर्ष आज पूरे हो गए। सरकार के राज्योत्सव के कार्यक्रम
में जनता ने भी खुलकर भाग लिया। डा. रमन सिंह की सरकार गरीबों के पेट में अनाज का दाना ही नहीं डाल रही है बल्कि जनता के मनोरंजन के लिए भी फिक्रमंद है। यह सब बिना
संपन्नता के तो संभव नहीं। यह कर्ज का भी उत्सव नहीं बल्कि सरकार और जनता
दोनों की बढ़ती संपन्नता का प्रतीक है। डा. रमन सिंह ने अपने शासनकाल में
दो लाख से अधिक लोगों को सरकारी नौकरी से नवाजा तो उद्योगों के विकास की
राह सुगम कर भी  लाखों के लिए रोजगार की व्यवस्था की। बढ़ती संपन्नता की
गति को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नक्सली धीमी करने में भले ही सफल
रहे लेकिन  रोक नहीं सके।

10 वर्ष में छत्तीसगढ़ ने क्या खोया, क्या पाया? खोता वही है, जिसके पास
हो। खोने के लिए होना जरूरी है। छत्तीसगढ़ स्थापना के समय 2 से 5 हजार
रूपये एकड़ में पड़ती जमीन मिल जाती थी और उसे भी खरीदने वाले नहीं मिलते
थे। आज उन जमीनों का भाव लाखों रूपये एकड़ हो गया। कभी देवेन्द्र नगर
बनाने के लिए रायपुर विकास प्राधिकरण ने किसानों की जमीन 16 हजार रूपये
एकड़ में ली थी और किसानों ने मुआवजा प्राप्त कर सेजबहार में 5 से 10
हजार एकड़ में जमीन खरीदी थी। देवेन्द्र नगर से विस्थापित होकर किसान
आसपास के गांवों में आसानी से बस गए थे। आज सेजबहार और आसपास गांव में ही
जमीन की कीमतें 50 लाख से 1 करोड़ रूपये हो गयी। नया रायपुर बसाने के लिए
ही सरकार ने किसानों से 6 से 8 लाख रूपये एकड़ में जमीन खरीदी है। कमल
विहार विकास प्राधिकरण की येजना में ही जमीन की कीमतें 50 लाख रूपये
एकड़ से अधिक है। रायपुर शहर के अंदर यदि कोई 1 हजार रूपये फुट में जमीन
चाहे तो उसे नहीं मिल सकती। यदि जमीन की बढ़ती मांग और कीमतें विकास का
पर्यायवाची है तो निश्चय ही छत्तीसगढ़ ने 10 वर्षों में बहुत तरक्की की
है।

किसानों को बिचौलिये से मुक्ति भी मिली है। सरकार स्वयं धान खरीदती है और
भुगतान चेक के माध्यम से होता है। राज्य सरकार 50 रुपए क्विंटल बोनस भी
दे रही है। वह चाहती है कि केंद्र सरकार ढाई सौ रूपये प्रति क्विंटल बोनस
दे लेकिन केद्र की सरकार इसके लिए अभी तक तो तैयार नहीं है। फिर भी
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले से आज स्थिति ज्यादा संतोषजनक है। सबसे
बड़ी बात तो यही है कि सरकार का दामन अब जनता की पकड़ से बाहर नहीं है।
सरकार जनता की तकलीफों को अनदेखी नहीं कर सकती। पहले सरकार भोपाल में
होती थी और वर्ष में एक दो बार ही मुख्यमंत्री के दर्शन कुछ समय के लिए
हो जाए तो बड़ी बात थी। आम जनता के बस की बात तो थी नहीं कि वह भोपाल
जाकर सरकार के दरबार में गोहार लगा सके। इसलिए छत्तीसगढ़ की जितनी
उपेक्षा संभव थी, सरकार मध्यप्रदेश की करती थी।

अब वह स्थिति तो है, नहीं। सरकार ने उपेक्षा की जनता की तो उसे अपना
बोरिया बिस्तर बांध लेना पड़ेगा। इसलिए सरकार को टिके रहना है सत्ता पर
तो उसे जनआकांक्षा पर खरा उतर कर ही दिखाना पड़ेगा। कहते हैं कि जहां
गुड़ होता है, वहां चींटिया बिन बुलाए मेहमान की तरह हाजिर हो जाती हैं।
आज छत्तीसगढ़ का भी यही हाल है। छत्तीसगढ़ गुड़ है तो देश भर से चींटिया
गुड़ को चट करने के लिए इकट्ठा  हो रही हैं। गुड़ पर पहला अधिकार निश्चय ही
छत्तीसगढिय़ों का है। सरकार को सतर्क रहने की जरूरत है। क्योंकि जनता से
कुछ छुपा तो रहता नहीं। यह तत्र सर्वत्र चींटियों की फौज दिखायी पड़ रही
है। बड़ी बड़ी अट्टïलिकाएं खड़ी हो रही हैं लेकिन इन अट्टïलिकाओं में
मजदूर के रूप में तो छत्तीसगढ़ी दिखायी भी दे जाता है लेकिन रहने और
मालिक होने का हक तो छत्तीसगढिय़ों का दिखायी नहीं पड़ता। इस तरफ भी ध्यान
देने की जरूरत है। सही समय पर ध्यान नहीं दिया गया तो इससे स्थानीयता और
बाहरी लोगों के बीच खाई बनने लगेगी और खाई चौड़ी हुई तो राजनैतिक असर भी
दिखायेगी।

अभी तक राजनीति दो पार्टियों के बीच ही सीमित है। मतदाता या तो कांग्रेस
को चुनता है या फिर भाजपा को। 10 वर्षों में सरकार की स्थिरता भी विकास
के लिए सही वातावरण निर्मित करने में सहयोगी रहा है। दो दो बार भाजपा को
सत्ता सौंपकर छत्तीसगढ़ के लोगों ने छत्तीसगढ़ के गठन का अहसान तो चुका
दिया है। कोई भी उपकार ऐसा नहीं होता जिसकी कीमत ताजिंदगी वसूल की जाए।
कांग्रेस ने जो छत्तीसगढ़ के साथ किया, उसका फल वह भोग रही है। भाजपा ने
जो किया, उसका फल वह भोग रही है। कांग्रेस से  नाराज मतदाता भाजपा से भी
नाराज हुए तो जरूरी नहीं कि वह सत्ता की जिम्मेदारी कांग्रेस को ही पुन.
सौंपे। भाजपा से ही नाराज ताराचंद साहू, वीरेन्द्र पांडे जैसे लोग जन
जागरण की नई मुहिम में व्यस्त है। जिस दिन भी कंग्रेस और भाजपा में से
किसी को भी विधानसभा में बहुमत नहीं मिला, उस दिन छत्तीसगढ़ की पूरी
राजनीति ही बदल जाएगी। छत्तीसगढ़ आंदोलन से जुड़े लोग छत्तीसगढ़ में अपने
को पूरी तरह से उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के तथाकथित बाहर से
आए बड़े समाचार पत्र सरकारी खजाने का पूरी तरह से दोहन कर रहे हैं और
नित्य एक टेबुलाइड निकालकर जनता को बता रहे हैं कि प्रशासन में
भ्रष्टïचार और अव्यवस्था के सिवाय कुछ नहीं है। सीधे सीधे सरकार को
कठघरे में न खड़ा कर भी छवि तो सरकार की ही खराब कर रहे हैं।
इन्हें अपनी प्रसार संख्या बढ़ाना है। इसके लिए तमाम तरह के उपाय करने के
बाद अब ये जनहितैषी होने का मुखौटा लगा रहे हैं। जिससे पाठकों में इनकी
स्वीकार्यता बढ़े और प्रसार संख्या के आधार पर यह धन कमाने का अपना उल्लू
सीधा कर सके। डा. रमन सिंह की व्यक्तिगत तारीफ और सरकार प्रशासन की
आलोचना से जो आखिरी मतलब निकलता है, वह तो यही है कि डा. रमन सिंह के बस
का नहीं सरकार चलाना। इतनी चतुराई से ये मूर्ख बना रहे हैं और सरकार में
बैठे लोग प्रसन्न होकर खजाने का मुंह इनकी तरफ खोले हुए हैं। छत्तीसगढ़
की मूल पत्रकारिता इनके धन के सामने पीछे होती जा रही है। प्रशासनिक
अधिकारियों की तरह इनका भी व्यक्तिगत रूप से किसी डा. रमन सिंह से कोई
लेना देना नहीं है। छत्तीसगढ़ से ही क्या लेना देना है? मतलब धन कमाने से
है और इस मामले में ये पूरी तरह से सफल हैं।

तीन राज्य एक साथ बने और इसमें से भी छत्तीसगढ़ ने विकास की गति जो पकड़ी
वह शेष दो राज्यों को नहीं मिली। इसका सबसे बड़ा कारण तो छत्तीसगढ़ में
स्थिर सरकार है और डा. रमन सिंह का मुख्यमंत्री होना है। आज डा. रमन सिंह
को जो बड़े समर्थक दिखायी दे रहे हैं, ये वे ही लोग है जो कभी अजीत
जोगी सरकार की तारीफों की कसीदे काढ़ते थे। राजनीति में जिसे व्यक्ति और
अवसर की पहचान नहीं होती, वह चक्रव्यूह में फंस ही जाता है। अजीत जोगी ही
छत्तीसगढ़ में इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। जिनके पीछे पूरा का पूरा
विधायक दल चलता था। आज दो धन दो चार विधायक ही रह गए हैं। डा. रमन सिंह
कह रहे हैं कि 2020 तक प्रदेश को गुजरात और केरल से ज्यादा विकसित राज्य
वे बनाएंगे तो सोच समझकर ही आगे कदम बढ़ाएं।

- विष्णु सिन्हा
01-11-2010