यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 13 नवंबर 2010

कमल विहार योजना का विवाद सरकार की लोकप्रियता के लिए अच्छी बात नहीं है

मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह कह रहे हैं कि कमल विहार योजना पर मंत्रियों
में मतभिन्नता है लेकिन किसी प्रकार का मनभेद नहीं है। यदि यह सत्य 
है तो मतभिन्नता क्यों है ? कोई भी योजना जब किसी क्षेत्र में
क्रियान्वित हो तब उस क्षेत्र के विधायक की सहमति तो आवश्यक समझी जानी
चाहिए। तब तो और जब विधायक भी सत्तारूढ़ पार्टी का हो। वैसे तो विपक्ष का
भी विधायक हो तब उसकी सहमति भी आवश्यक समझी जानी चाहिए। बहुमत के आधार पर
सरकार चलाने का अधिकार मिल जाने का प्रजातंत्र में यह अर्थ नहीं होता कि
सरकार की पार्टी का विधायक नहीं है तो उसके क्षेत्र के शासकीय कार्यों
में उसकी पूछपरख की आवश्यकता नहीं। जनता का यह विशेषाधिकार है और इसे
चुनौती देने का किसी को कोई अधिकार नहीं है कि वह किसे अपना प्रतिनिधि
चुने। जनता ने जिसे अपना विधायक चुना है, उसे अधिकार भी दिया है कि वह
अपने क्षेत्र के विकास का मुख्य सहभागी बने।

कमल विहार योजना जब रायपुर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत
क्रियान्वित की जा रही है तो विधायक बृजमोहन अग्रवाल की सहमति तो सबसे
पहले ली जानी चाहिए थी। योजना की संपूर्ण जानकारी उन्हें देकर उनकी राय
ली जानी चाहिए थी। ऐसा किया जाता तो आज यह स्थिति नहीं बनती। बृजमोहन
अग्रवाल जब कहते हैं कि नगर निगम चुनाव में  भाजपा की हार का कारण कमल
विहार योजना है तो वे यह सब कुछ जानकर सोच समझकर ही कह रहे हैं। जब वे
कहते हैं कि देवेंद्र नगर और शैलेन्द्र नगर का उदाहरण इस मामले में अच्छा
नहीं है तब वे जनता के मन की ही बात कह रहे हैं। बृजमोहन अग्रवाल न केवल
पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं बल्कि उनकी पकड़ मतदाताओं की नब्ज पर किसी से
भी कम नहीं है। वे चुनाव जितवाने के धुरंधर खिलाड़ी हैं। इस कारण भी जनता
पर योजना का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह जानना उनसे सरकार के लिए जरूरी है
जाता है। तब तो और जब योजना उनके विधानसभा क्षेत्र में लागू की जा रही
है।

राजनैतिक रूप से बृजमोहन अग्रवाल की कद काठी को बौना करने का मन में कोई
भाव हो तो उसे जितना जल्द संभव हो मन से निकाल देना चाहिए। बृजमोहन अपनी
चुप्पी तोडऩे के लिए बाध्य हुए हैं तो इसका कारण भी स्पष्ट है। जब सिर
से ऊपर पानी बह रहा हो तो फिर चुप नहीं रहा जा सकता। वे पूछते भी हैं कि
भू-माफिया कौन है? कोई भी कितना भी बड़ा जमीन का कारोबारी हो वह जमीन का
अधिग्रहण उस तरह से नहीं करता जिस तरह से सरकार करती है। सरकार जनहित के
नाम पर किसी की भी जमीन हस्तगत करने का अधिकार रखती है। फिर नौकरशाही से
निपटना आम आदमी के बस की बात नहीं होती और हर कोई तो कोर्ट कचहरी के
दरवाजे खटखटाने की न तो हिम्मत रखता है और न ही आर्थिक क्षमता ही इसकी
इजाजत देती है। अपनी पारिवारिक जमीन अपने हाथ से निकलता देखने में जो
मर्मांतक पीड़ा होती है, वह बिना भुक्तभोगी हुए कोई समझ ही नहीं सकता।
मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित दो बीघा जमीन यदि पढ़ नहीं सकते तो इस पर
बनी फिल्म ही हुक्मरानों को देख लेना चाहिए। शायद तब उनकी संवेदनशीलता पर
कोई असर हो और वे समझ सकें कि जमीन की कीमत नोटों में नहीं तौली जा सकती।
भूमि को तो मां का दर्जा भारतीय संस्कार देते हैं और मां का हाथ से निकल
जाना क्या अर्थ रखता है, इसकी समझ हो तो ही जमीन के अधिग्रहण के विषय में
सोचा जाना चाहिए।

कोई भी अपनी जमीन खुशी खुशी किसी योजना के लिए सरकार को देगा, यह सोच ही
फिजूल है। बृजमोहन अग्रवाल जब कहते हैं कि दस लोगों को बुलाकर पूछ लिया
जाए तो वे हकीकत बयान करते हैं। अपनी जमीन से कटा हुआ व्यक्ति कटी पतंग
की तरह होता है। आज छत्तीसगढ़ का विकास बहुतों के लिए प्रेरणास्पद हो
लेकिन विकास की भेंट जिनकी जमीनें चढ़ गयी हैं, उनके दिल का हाल सुनने
वाला कौन है? कीचड़ में नंगे पैर चलने वाला किसान और अपने घर के फर्श पर
भी चप्पल पहनकर चलने वाले इंसान की सोच में जमीन आसमान का अंतर होता है।
जिनके हाथ की हथेली और पैर के तलवे में कोई भेद नही  रह गया है, उनके
विकास की परिकल्पना और खेती में अपना जांगर खपाते इंसान की परिकल्पना में
अंतर होता है। यह सिर्फ मतभेद ही नहीं है बल्कि मनभेद भी है।

सत्ता सुख के लिए कितनी भी  लीपापोती शब्दों की कर ली जाए लेकिन इससे
असलियत नहीं बदलती। क्योंकि जहां भी जमीन अधिग्रहित की जाती है, वहां के
लोग उग्र हो जाते हैं? जमीन की कीमत प्राप्त कर कहीं भी बस सकते हैं।
लाखों रूपये मुआवजे के रूप में मिलते हैं। फिर एक दिन वह भी आता है जब
रूपया समाप्त हो जाता है। धन की व्यवस्था कैसे करना यह हर किसी के समझ से
बाहर की बात है। जमीन मालिक मजदूर बन जाता है। जमीन के मालिक को अपनी जमीन
का 35 प्रतिशत भी देते हैं तो उसे मालिक से पट्टïधारी बना देते हैं।
उससे भू-भाटक लेते हैं। मतलब वह अपनी ही जमीन के कुछ हिस्से का किरायेदार
हो जाता है। सरकार सोचे यह तो तथाकथित भू-माफिया भी नहीं करते। वे भी
जमीन बेचते हैं तो मालिकाना हक देते हैं। फिर जमीन या उस पर बना मकान
बेचने के लिए किसी अनुमति की जरूरत नहीं पड़ती और न ही अनुमति प्रमाण
पत्र के लिए शुल्क देना पड़ता है। सरकारी और सहकारी एजेंसियां तो निरंतर
शोषण का प्रतीक बन गयी है।

रायपुर विकास प्राधिकरण को ही एक समय लोग होरा विकास प्राधिकरण कहते थे।
अजीत जोगी ने तो इसे समाप्त कर दिया था। गृह निर्माण मंडल का भी
छत्तीसगढ़ में गठन नहीं किया था। आज तो उदारीकरण का युग है। तब सरकार
विकास के नाम पर व्यवसाय को सरकारी एजेंसियों के द्वारा क्यों कर रही है?
डा. रमन सिंह ने ही घोषणा की थी कि भू-भाटक समाप्त कर दिया जाएगा।
मंत्रिपरिषद का यह निर्णय है। मंत्रिपरिषद की बैठक में यह मुद्दा राजेश
मूणत ने उठाया था। लोग अभी तक उम्मीद ही कर रहे हैं कि अब भू-भाटक से
निजात मिली कि तब। निश्चित रूप से सरकार बहुत से क्षेत्रों में अच्छा काम
कर रही है। उसकी घोषणाएं भी जनता का मन मोह लेती हैं लेकिन यथार्थ के
धरातल पर नौकरशाही ऐसा कबाड़ा करती है कि जनता को सिवाय क्षोभ के और कुछ
हाथ नहीं लगता।

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के दस वर्ष पूरे होने पर राज्योत्सव मनाया गया लेकिन
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है, ऐसा तो नहीं लगता। बिजली सलाहकार शिवराज सिंह
को ही बर्खास्त करना पड़ा है। कमल विहार योजना के क्रियान्वयन के पूर्व
सरकार को अच्छी तरह से विचार कर लेना चाहिए। कहीं यह एक अकेली योजना ही
सरकार के गले की हड्डी  न बन जाए। अक्लमंद वही होता है जो बढ़े हुए कदमों
को वापस लेने का भी माद्दा रखता है। राजहठ से जनता को नुकसान होता है तो
अंतत: प्रजातंत्र में नुकसान राजा को ही होता है। अक्लमंद को तो इशारा ही
काफी होता है।

- विष्णु सिन्हा
10-11-2010