यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 15 नवंबर 2010

इस्तीफा दे देने मात्र से ही कोई दोष मुक्त हो जाता है, क्या ?

करूणानिधि, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डी. एम. के. के अध्यक्ष कह रहे
थे कि राजा को मंत्रिमंडल छोडऩे के लिए बाध्य किया गया तो उनके शेष
मंत्री भी इस्तीफा दे देंगे। मतलब साफ था कि सरकार से समर्थन वापस ले
लेंगे। उनकी प्रतिद्वंदी जयललिता ने जब कहा कि राजा को मंत्रिमंडल से
बाहर किया जाए। सरकार बचाने के लिए वे अपने 9 सांसदों का समर्थन देंगी तो
सारी हेकड़ी करूणानिधि की निकल गयी। अपनी कही बात से पलटते हुए उन्होंने
राजा को इस्तीफा देने का निर्देश दे दिया। विपक्ष लोकसभा में राजा को
मंत्रिमंडल से हटाने की मांग पर अड़ा हुआ था और संसद  की कार्यवाही चल
नहीं रही थी। प्रधानमंत्री इस विषय में आज संसद में वक्तव्य भी देने वाले
है। 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में आरोप है कि सरकार को 1 लाख 76 हजार
करोड़ रूपये का नुकसान पहुंचाया गया। कल ही पूर्व सचिव संचार ने भी
वक्तव्य देकर दोषारोपण राजा पर ही किया था। ऐसे में मनमोहन सिंह के पास
इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं था कि वे राजा को इस्तीफा न देने पर बर्खास्त
कर दें।

तमिलनाडु में विधानसभा के चुनाव निकट हैं और उम्मीद की जा रही है कि इस
बार जयललिता करूणानिधि की सरकार को अपदस्थ करने में सफल होंगी। ऐसी
स्थिति में केंद्र की सरकार से समर्थन  वापस लेकर करूणानिधि को सिवाय
नुकसान के और कुछ नहीं होने वाला था। सिर्फ राजा को बचाने के लिए 6
मंत्रियों की कुर्बानी कोई अक्लमंदी भरा फैसला नहीं था बल्कि सरकार में
बने रहने से तो राजा को बचाने का भी रास्ता निकला जा सकता है लेकिन जब
सरकार से ही बाहर हो गए तो केंद्र सरकार को कोई जरूरत नहीं थी कि वह राजा
को बचाने का कोई प्रयास करे। विधानसभा चुनाव में  भी कांग्रेस के साथ
गठबंधन करने से जो वोटों का लाभ मिलता है, वह भी हाथ से निकल जाता।
बुजुर्ग करूणानिधि राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी हैं और जब दबाव काम आता
नहीं दिखा तो राजा के इस्तीफे में ही अपनी भलाई समझी।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं। किसी तरह के
भ्रष्टïचार से उनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है। वास्तव में उनकी
चलती तो वे बिना एक मिनट की देरी किए राजा को बर्खास्त कर देते।
अंतर्राष्ट्रीय  मंचों में उनकी प्रतिष्ठï ऐसी है कि दुनिया की सबसे
बड़ी ताकत अमेरिका के राष्ट्रपति  बराक ओबामा दुनिया भर में जहां जाते
हैं, वहीं मनमोहन सिंह की तारीफ करते हैं। यह कोई मनमोहन सिंह की छोटी
उपलब्धि नहीं है। दुनिया के किसी भी मंच में आज मनमोहन सिंह को बड़े
ध्यान से सुना जाता है। दरअसल भारत की बढ़ती समृद्घि के लिए दुनिया किसी
को श्रेय देती है, वह मनमोहन सिंह ही हैं। भले ही वे राजनैतिक व्यक्ति न
हों लेकिन नरसिंहराव के वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने नरसिंहराव का
पूर्ण विश्वास अर्जित किया तो सोनिया गांधी का विश्वास जीतने में इतने
सफल रहे कि सोनिया गांधी ने अपने बदले उन्हें ही प्रधानमंत्री पद के लिए
उपयुक्त समझा। राजनैतिक रूप से यह सही है कि मनमोहन सिंह को जिस समय भी
सोनिया गांधी चाहें प्रधानमंत्री के पद से हटा सकती हैं। इतनी शक्ति और
क्षमता सोनिया गांधी के सिवाय किसी के पास नहीं है लेकिन आज जो राजनैतिक
परिस्थितियां हैं, राष्ट्रीय  और अंतर्राष्ट्रीय  उसमें मनमोहन सिंह को
हटाना आसान काम नहीं है।

उनका विकल्प कोई नहीं है। स्वयं सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी उनका
विकल्प नहीं हैं। यह अर्थप्रधान युग है। दुनिया भर में चर्चा सिर्फ
आर्थिक विकास की ही होती है और एक अर्थशास्त्री के रूप में भारत को
अंतर्राष्ट्रीय  मंच पर उचित स्थान दिलाने में मनमोहन सिंह की भूमिका
किसी से भी कम नहीं है बल्कि यह कहें कि उनकी ही भूमिका है तो
अतिश्योक्ति नहीं होगी। विश्व मंदी में विकास दर को बनाए रखकर उन्होंने
विश्व को चौंकाया है। चीन अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर विदेशी मुद्रा से
अपना खजाना भर रहा है तो बिना अवमूल्यन के ही मनमोहन सिंह भारत का खजाना
भर रहे हैं। अमेरिका और भारत की बढ़ती मित्रता ने चीन को भी चौंकन्ना कर
दिया है और उसे समझ में भी आ रहा है कि भारत से निपटना आसान नहीं है।
सबसे बड़ी बात तो यही है कि अमेरिकी अर्थ व्यवस्था को मजबूती के लिए आज
भारत और मनमोहन सिंह की जरूरत है।

1955 में जब रूस और अमेरिका दोनों तैयार थे कि  भारत को राष्ट्रसंघ  के
सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दी जाए तब जवाहरलाल नेहरू गुट
निरपेक्षता का झंडा ऊंचा उठाए हुए थे और अपने मित्र चीन को स्थायी
सदस्यता  देने की वकालत कर रहे थे। चीन तो स्थायी सदस्य सुरक्षा परिषद का
बन गया लेकिन भारत पिछड़ गया। पहली बार अमेरिका ने भी स्थायी सदस्यता की
वकालत की है। रूस, फ्रांस और इंग्लैंड तो पहले से ही तैयार हैं। अमेरिका
के बाद अब चीन का नंबर हैं। इंतजार किया जा रहा है कि चीन क्या रूख
अपनाता है? लेकिन पाकिस्तान की हालत तो अमेरिका के समर्थन के बाद देखने
लायक हो गयी है। कभी पाकिस्तान के मित्र रहे अमेरिका का भारत के प्रति
मित्रता का जो भाव दिखायी दे रहा है, यह मनमोहन सिंह की ही कूटनीति की जय
है।

अंतराष्ट्रीय  मामलों में जिस तरह की छूट मनमोहन सिंह को है, वैसी ही छूट
राजनैतिक मामलों में भी राष्ट्रीय  स्तर पर मिले तो एक राजा क्या,
भ्रष्टïचार का कोई आरोपी उनके मंत्रिमंडल में नहीं दिखायी पड़ेगा। राजा
ने तो वह काम किया है जो वास्तव में मनमोहन सिंह को नुकसान पहुंचाने वाला
काम है। 176 लाख करोड़ सरकार के खजाने में आते तो देश के आर्थिक विकास को
और गति मिलती। 120 करोड़ नागरिकों के मुल्क में इसका प्रति व्यक्ति हिसाब
किया जाए तो प्रति व्यक्ति लगभग चौदह सौ छैसठ रूपये आता है। 1 लाख 76
हजार करोड़ रूपये का आर्थिक नुकसान सरकारी खजाने को पहुंचाने वाले
व्यक्ति से सिर्फ इस्तीफा ले लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि जांच कर उसे
जेल की सलाखों में पहुंचाने की जरूरत है। सिर्फ उसे ही क्यों ? यह कोई एक
पक्षीय मामला तो है, नहीं। राजा के भ्रष्टïचार का जिन लोगों ने लाभ
उठाया, वे भी समान रूप से अपराधी हैं। उनकी जगह भी जेल ही हो सकती है।
यह सबसे अच्छा मौका है। मनमोहन सिंह को उदाहरण पेश करना चाहिए। वे
अर्थशास्त्री हैं और अच्छी तरह से समझते हैं कि राजा के इस कृत्य ने देश
को कितना नुकसान पहुंचाया है। 3 रू. किलो में केंद्र सरकार अनाज गरीबों
को देने के लिए वादा कर सत्ता में आयी है। 1 लाख 76 हजार करोड़ रूपये को
सही जगह लगाया जाता तो गरीबों का पेट भरा जा सकता था। इसके ब्याज से ही
सरकारी खजाने के घाटे की पूर्ति की जा सकती थी। अमीरी कैसे बढ़े और उसका
फल अंतिम व्यक्ति तक कैसे पहुंचे, इस सोच की ही हत्या भ्रष्टïचार करता
है। जो ऐसे लोगों का संरक्षक बनता है वह भी कम दोषी नहीं है। भले ही
सरकार चलाने की कितनी भी उसकी जरूरत हो। गेंद मनमोहन सिंह के पाले में
है और उन्हें ही निर्णय करना है कि इस्तीफा देने मात्र से कोई दोष मुक्त
हो जाता है, क्या?

- विष्णु सिन्हा
13-11-2010
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