जो व्यक्ति आज से 20 वर्ष पहले रायपुर का कमिश्रर था, वह अब छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बन कर आ रहा है। पूर्व आई ए एस शेखर दत्त कभी नेताओं को सर कहा करते थे, अब नेता उन्हें सर या महामहिम कह कर संबोधित करेंगे । पूर्व आई ए एस, आई पी एस, फौजी आजकल सत्तारुढ़ राजनीतिज्ञों की पहली पसंद हो गए है। जब सोनिया गांधी को अपने स्थान पर किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करना था तब उन्होंने किसी कांग्रेसी राजनेता के बदले मनमोहन सिह को नियुक्त करना पसंद किया। मनमोहन सिंह भी पूर्व नौकरशाही ही है। अर्जुनसिह, प्रणव मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी जैसे वरिष्ठï कांग्रेस नेताओं की तुलना में मनमोहन सिंह सोनिया गांधी की पहली पसंद बने तो उसका कारण भी स्पष्टï है । एक नौकरशाह से काम लेना बनिस्बत एक राजनैतिक नेता के ज्यादा आसान लगा होगा। एक तो नौकरशाह का कोई पार्टी में राजनैतिक गुट नहीं, दूसरे नौकरशाह से बड़ा यस सर कहां मिलेगा । फिर उसका पार्टी में कोई गुट नहीं होने से वह सीधे-सीधे नियुक्त कर्ता के प्रति वफादार जितना रह सकता है, उतना कोई राजनैतिक नेता नहीं ।
वैसे भी सत्ता में रहते हुए सारा काम करवाना तो नौकरशाह से ही पड़ता है और वह कैसा भी काम हो करने या करवाने में सक्षम ही पाए गए हैं। नौकरशाह भी अच्छी तरह से समझते हैं कि ताकतवर राजनैतिक नेता का साथ उनका भाग्य बना सकता है। मनचाही पदस्थापना तो नौकरी के दौरान दिलाता ही है, अवकाश ग्रहण करने के बाद भी सत्ता के पास पदों की कमी नहीं, जहां वे तमाम सुख सुविधा भोगते हुए समाहित हो सकते हैं । इसलिए उच्च पदस्थ आई ए एस और आई पी एस अवकाश प्राप्त करने के बाद भी यदि सत्तारुढ़ के दुलारे हैं तो सलाहकार जैसा पद प्राप्त कर भी संतुष्ट हो जाते हैं । फिर जब कार्यरत इस वर्ग के लोग देखते हैं कि उनके वरिष्ठï राज्यपाल तक का पद प्राप्त कर लेते है तो सेवाभाव राजनेता के प्रति और प्रगाढ़ हो जाता है। राज्यपाल बन कर ये दिल्ली में बैठे अपने नियुक्ति कर्ता के प्रति और ज्यादा ईमानदार हो जाते हैं। जिसकी उम्मीद एक राजनेता से नहीं की जाती है। राजनेता भी राज्यपाल के पद में वही बिठाए जाते हैं जो बुढ़ापे में अपनी वफादारी का पुरस्कार चाहते हैं।
शिवराज पाटिल को एक अक्षम गृहमंत्री मान कर हटाया गया लेकिन सोनिया गांधी की निकटता के कारण वे पंजाब का राज्यपाल पद प्राप्त करने में सफल हो गए। लोकसभा चुनाव हारने के बाद उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में लेकर गृहमंत्री बनाया गया था लेकिन वे गृहमंत्री के रुप में इतने अक्षम साबित हुए कि देश पर आतंकवादी हमले निरंतर होते रहे। जब तक अंतिम हमला मुंबई पर नहीं हुआ था तब तक बार-बार की आलोचना के बाद भी उन्हें पद से हटाया नहीं गया लेकिन इनसे हटा कर जब पी. चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया है तब से आतंकी हमले एकदम रुक गए हैं । देश की आंतरिक सुरक्षा के मामले में चिदंबरम को अपनी योग्यता के कारण जो सफलता मिली उससे सरकार की भी छवि सुधरी है। यहां तक कि नक्सलियों के मामले में जो गृह विभाग एकदम आंख बंद कर बैठा था, उसमें भी चिदंबरम की रुचि के कारण अब पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है। जो व्यक्ति गृहमंत्री के रुप में असफल सिद्ध हो गया, उसे पंजाब का राज्यपाल बना कर कांग्रेस सरकार क्या उपलब्ध कर लेगी?
अब्दुल कलाम को जब अटल बिहारी की सरकार ने राष्टï्रपति बनाया था तब राष्टï्रपति का पद स्वयं गौरवान्वित हुआ था। देश के जाने माने वैज्ञानिक का राष्टï्र्रपति बनना सबको भाया था, लेकिन आज जिस तरह से कांग्रेस के पिटे पिटाए नेताओं को और नौकरशाहों को राज्यपाल के पद पर प्रतिष्ठित किया जा रहा है, उससे इस पद की गरिमा में इजाफा हो रहा है, ऐसा मानने का तो कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता है। राज्यसभा का जब संविधान में निर्माण किया गया था तब सोच थी कि जो लोग चुनावी राजनीति में नहीं पडऩा चाहते लेकिन जिनकी विद्वता और सोच की राष्टï्र को जरुरत है, ऐसे लोगों को राज्यसभा में लाया जाएगा । हर क्षेत्र के विख्यात, निष्णात लोगों की यह सभा होगी और इनके विचारों, मार्गदर्शन से देश को नई दिशा मिलेगी। संविधान निर्माताओं ने जो कल्पना की थी, उसके विपरीत राज्यसभा चुनावी राजनीति में पिटे हुए लोगों का विश्राम स्थल बन गयी। और तो और सत्ता प्राप्त करने का साधन बन गयी। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक लोकसभा का चुनाव लडऩे से कतराते हैं। ठीक है। वे अर्थशास्त्री है। उन्हें राज्यसभा में होना चाहिए लेकिन देश की सर्वोच्च शक्तिशाली कुर्सी पर बैठने के लिए उन्हें जनता से भी नहीं घबराना चाहिए बल्कि चुनाव लड़कर जीत कर आना चाहिए।
राज्यपाल केंद्रीय सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति होता है लेकिन राज्य की सरकार उसी के नाम से चलती है। जब राज्यपाल विधानसभा में अपना संबोधन देता है तब वह कहता है कि मेरी सरकार ने फलां-फलां किया और फलां करने वाली है। जनता के द्वारा जनता के लिए जनता के द्वारा चुनी गई सरकार जनता की सरकार न होकर राज्यपाल की सरकार हो जाती है। राज्यपाल किसी की भी सरकार नहीं बनवा सकता। सरकार उसी की बनती है जिसके पास विधानसभा में बहुमत होता है और यह बहुमत जनता देती है या फिर जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि बनाते हैं। जिसके पास बहुमत है, उसे शपथ ग्रहण कराना राज्यपाल की बाध्यता है। उसकी मनमर्जी नहीं है। सरकार के कामकाज से यदि राज्यपाल संतुष्ट न हो तो वह अपनी रिपोर्र्ट केंद्र सरकार को भेज सकता है। केंद्र सरकार भी जब तक संविधान के प्रावधानोंं का उल्लंघन न हो, कुछ नहीं कर सकती। जहां तक सरकार के पास बहुमत है या नहीं, यह भी विधानसभा में ही तय होता है। राज्य शासन के कार्यों पर सीधे-सीधे हस्तक्षेप का भी अधिकार राज्यपाल को नहीं है। वह सिर्फ जानकारियां मांग सकता है। कुलाधिपति होने के कारण वह विश्वविद्यालयों के काम में हस्तक्षेप कर सकता है।
कई बार मांग उठी है कि राज्यपाल का पद समाप्त कर दिया जाए लेकिन अभी तक कोई भी सरकार इस ढांचे को गिराने के लिए तैयार नहीं हुई है। यह तो जब से न्यायालय के निर्देश पर राज्य सरकार के पक्ष में बहुमत है या नहीं, यह मालूम करने के लिए राज्यपाल के विवेकाधिाकर के बदले विधानसभा को उचित स्थान माना गया है तब से ही राज्य सरकारें सुरक्षित हुई है। नहीं तो पहले राज्यपाल की सिफारिश पर ही राज्य सरकारे भंग कर दी जाती थी। बिहार विधानसभा भंग करने के मामले में ही राज्यपाल की सिफारिश के विरुद्ध न्यायालय ने फैसला दिया था। राज्यपाल को महामहिम कहकर संबोधित करना भी प्रजातांत्रिक तरीका नहीं है । इस संबोधन से सामंतवाद की बू आती है। नययालयों ने भी मी लार्र्ड कहने को बदला है। सोचना चाहिए राज्यपालों को भी यह संबोधन उनके प्रति कितना उचित है।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक 17.01.2010
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Ek alag vichar dhara ko lekar likha gaya yah lekh sochne ko majboor karta hai..
जवाब देंहटाएंAapka swagat hai!
Vicharon ka ek naya pahlu pesh kiya hai..
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लाग लेखन के लिये स्वागत और बधाई । अन्य ब्लागों को भी पढ़ें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देने का कष्ट करें
जवाब देंहटाएंइस नए ब्लॉग के साथ आपका हिन्दी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. आपसे बहुत उम्मीद रहेगी हमें .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंइस नए ब्लॉग के साथ आपका हिन्दी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. आपसे बहुत उम्मीद रहेगी हमें .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
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