पंचायत चुनाव का प्रथम चरण संपन्न हो गया। नक्सलियों ने 6 मतदान केंद्रों में मतपेटियां लूट ली और 4 लोगों का अपहरण कर लिया। नक्सलियों के ताकतवर होने का जो शोर है कि वे ताकतवर हैं, इन घटनाओं से पता चलता है। नक्सली जोर जबरदस्ती से लोगों को चुनाव में भाग लेने से रोकना चाहते थे लेकिन लोग रूकना नहीं चाहते। नक्सलियों का ऐसा ही प्रभाव होता तो कम से कम नक्सली क्षेत्रों में तो मतदान होना ही नहीं चाहिए था। इतने बड़े प्रदेश में ऐसी छुटपुट घटनाओं की इतनी ही महत्ता है जैसे नाक पर बैठी मक्खी को उड़ा दिया। आतंक फैलाने के लिए नक्सलियों ने पिछले दिनों 21 वाहन और मशीनों को आग के हवाले कर दिया था। इन निर्दोष मशीनो से आखिर चिढ़ क्या है, नक्सलियों को। करोड़ों की धन संपदा को आग के हवाले कर देने से वे कौन सा क्रांतिकारी काम कर रहे हैं ? सिवाय विकास के रास्ते को अवरूद्घ करने के और तो कुछ नही कर रहे हैं।
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के दौरे पर आए केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने नक्सलियों के द्वारा दो छात्रों की हत्या पर यही प्रश्न तो किया था, नक्सलियों से कि यह कौन सी नीति सिद्घांत के तहत वे कर रहे हैं। स्पष्ट दिखायी देता है कि नक्सली दिग्भ्रमित हैं। जिस उद्देश्य को लेकर वे चले थे, उससे कोसों दूर भटक गए हैं। अब नक्सल आंदोलन कोई राजनैतिक आंदोलन नहीं है बल्कि शोषित आदिवासियों के शोषक नई शक्ल में पैदा हो गए हैं। आपरेशन ग्रीन हंन्ट के विरोध प्रदर्शन के लिए बंद का जिस तरह से सड़क अवरूद्घ कर वे प्रदर्शन कर रहे हैं और आम जनता को सिवाय कष्ट के और कुछ नहीं दे रहे हैं, उससे उनके प्रति जो भी सहानुभूति दिखाता है, वह वास्तव में जनता का भी अपराधी है। जिन्होंने आदिवासियों की कभी चिंता नहीं की, वे नक्सलियों के हितचिंतक बनकर आदिवासियों के हितचिंतक बनने का ढोंग कर रहे हैं।
सरकार को गरियाने से जब उनकी नहीं चली और सरकार टस से मस नहीं हुई और राज्य सरकार के सहयोग में जब केंद्र सरकार भी खड़ी हो गयी तो नक्सली समर्थकों में ऐसी हताशा दिखायी पड़ी कि वे स्थानीय मीडिया को बिका हुआ बताने लगे। अच्छे बुरे लोग कहां नही हैं लेकिन सामूहिक रूप से सबको गलत बताना सिवाय हताशा के और कुछ नहीं। दिल्ली से अपने संसाधनों से युक्त होकर आए। नक्सलियों का साक्षात्कार लिया और अपने चैनल के माध्यम से गुणगान किया। जरा उन आदिवासियों की भी खोज खबर लेते जो निरंतर आतंक के साये में जी रहे हैं। ये भले ही नक्सलियों का गुणगान करें लेकिन नक्सली इन पर भी विश्वास नही करते। इनकी भी आंखों मे पट्टी बांधकर इन्हें अपने ठिकाने में ले जाते हैं। परेड करते, हथियारों का प्रदर्शन करते नक्सली इन्हें आकर्षित तो करते हैं लेकिन इनके चेहरे पर भी भय की छाया तो दिखायी पड़ती है।
दरअसल राष्ट्रीय मीडिया ने महानता का एक मुखौटा लगाया हआ है। ये समझते हैं कि इनकी सोच और कारगुजारियों से ये देश के नक्सलियों को प्रभावित कर लेंगे। इस झूठ का भ्रम तो भारतीय जनता ने कई बार तोड़ा है। जब चुनाव संबंधी इनकी भविष्यवाणियां ही कितनी बार गलत साबित हो चुकी है। ये वह देखते हैं जो उन्हें दिखाया जाता है तो स्थानीय मीडिया रूबरू होकर तथ्यों से साक्षात्कार करता है। वह स्थानीय जनता के दिल की धड़कन के ज्यादा करीब है। नक्सली आतंक का खामियाजा स्थानीय लोग किस तरह से भुगतते हैं, यह स्थानीय मीडिया सिर्फ देखता ही नही महसूस भी करता है। जब महसूस करता है तो अपने माध्यम से अभिव्यक्त भी करता है.
डा. रमन सिंह छत्तीसगढ़ की जनता के बीच और खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में खासा लोकप्रिय हैं तो उसका कारण मीडिया नहीं है। सिर्फ मीडिया की तारीफ से ही कोई लोकप्रिय हो जाता तो फिर आपातकाल में तो इंदिरा गांधी को ही सबसे ज्यादा लोकप्रिय होना चाहिए था। क्योंकि उस समय मीडिया पूरी तरह से सेंसर था। इंदिरा गांधी या उनकी सरकार के खिलाफ धोखे से किसी ने कुछ छाप दिया तो सीधे जेल की हवा खानी पड़ती थी। ऐसे में इंदिरा गांधी और कांग्रेस को तो जनता के द्वारा नकारा नहीं जाना था लेकिन इतिहास गवाह है कि मीडिया में लोकप्रियता के बावजूद इंदिरा गांधी की कांग्रेस ही चुनाव नहीं हारी बल्कि इंदिरा गांधी स्वयं चुनाव हार गयी थी।
दूर क्यों जाएं ? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाने की कम कोशिश मीडिया ने नहीं की लेकिन बार बार चुनाव हुआ तो नरेंद्र मोदी ही गुजरात की जनता की पसंद रहे। असल में मीडिया द्वारा प्रचारित सत्य ही सत्य नहीं होता बल्कि जनता जिसे सत्य स्वीकार करती है वही असली सत्य होता है। छत्तीसगढ़ के गठन के बाद जब पहली बार विधानसभा के चुनाव हुए तब दिलीपसिंह जूदेव भाजपा के स्टार प्रचारक थे। तब जूदेव पर घूस लेने का एक मामला मीडिया के द्वारा प्रसारित किया गया। दिलीप सिंह जूदेव ने घूस लिया या नहीं लिया् यह अभी न्यायालय में सिद्घ होना है लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने इतने बड़े स्कैंडल के सामने आने के बावजूद सरकार बनाने के लिए भाजपा को ही चुना। क्योंकि लोगो के मन में पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि यह सिर्फ चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस का स्कैंडल है। मीडिया ने तो और खासकर दिल्ली के मीडिया ने समझ लिया था कि उसने बड़ा तीर मारा है। सारे चैनल सुबह से शाम तक दिलीप सिंह जूदेव को कठघरे में खड़ा करते रहे। बाद में जो तथ्य इस मामले में प्रगट हुए उससे जनता का विश्वास ही सत्य सिद्घ हुआ कि चुनाव में उपयोग के लिए सीडी तैयार की गई थी।
नक्सलियों को भी महिमा मंडित करने में तथाकथित बुद्घिजीवियों एवं मीडिया के एक वर्ग की बड़ी भूमिका रही है। इसे प्रारंभ में शोषण और अत्याचार के विरूद्घ सशस्त्र विद्रोह के रूप में प्रचारित किया गया और कांग्रेसी शासकों ने समस्या की गंभीरता को नहीं आंका। उसका परिणाम हुआ कि पशुपति से तिरूपति तक इन्होंने अपने पैर पसार लिए। इन्होंने अपना अलग शासन तंत्र खड़ा किया। ये न्याय करने लगे। इनका न्याय भी आदिम न्याय था। तुरत न्याय और तुरत पिटायी से लेकर हत्या। पुलिस और सरकार के पास जाने से बड़ा अपराध और कुछ नहीं था। मुखबिर है तो गोली खा। इस व्यवस्था को कौन न्याय संगत कह सकता है। सरकार तो आतंकवादी हत्यारे को भी फाँसी पर चढ़ाने के पहले लंबी कानूनी प्रक्रिया की सुविधा देती है। सबसे बड़ा उदाहरण तो मोहम्मद कसाब ही हैं। मोहम्मद कसाब दोषी हैं, यह सत्य सबको अच्छी तरह से पता है। सार सबूत सामने हैं। फिर भी कानून व्यवस्था ने उसे अपने बचाव के लिए वकील मुहैया कराया है। सभ्य व्यवस्था इसी को कहते हैं। अब तो बड़े अपराधी को भी फांसी न देने की मांग उठती है। फाँसी को ही कानून की किताब से अलग करने की बात उठती है। ऐसे में नक्सलियों की नीति रीति के लिए सभ्य समाज मे कोई स्थान है, क्या ?
-विष्णु सिन्हा
29-1-2010
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010
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