यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 27 जनवरी 2010

राष्ट्रपति ठीक कह रही हैं कि देश को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश के नाम अपने संबोधन में राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने बढ़ती महंगाई पर चिंता प्रगट की है। प्रधानमंत्री पहले ही चिंता प्रगट कर चुके हैं। जहां तक चिंता का प्रश्न है तो महंगाई  ने देशवासियो को चिंता में डाल रखा है। देश की 20 प्रतिशत जनता को भले ही महंगाई उतना परेशान नहीं कर रही है जितना 80 प्रतिशत जनता को कर रही है लेकिन यह भी कटु सत्य है कि 20 प्रतिशत जनता तब तक ही निश्चत रह सकती है जब तक महंगाई के बावजूद गरीब के पेट में अन्न का निवाला पहुंच रहा है। राशन की महंगाई ने यदि आम जनता की कमर तोड़ दी तो वे सारे ख्वाब धरे के धरे रह जाएंगे जो देश के उज्जवल विकास के संबंध में राजनीतिज्ञ देशवासियों को दिखा रहे हैं। राष्ट्रपति  जब कहती हैं कि देश को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है तब यह बात एक तरह से सरकार की ही बात है जो राष्ट्रपति  के मुंह से निकल रही है।
पहली हरित क्रांति ने देश को आत्मनिर्भर बनाया। नहीं तो उसके पहले तो अमेरिका से प्राप्त गेहूं से देश के अधिकांश लोगों का पेट भरता था। पीएल 480 के गेहूं की अब तो याद भी नहीं है, लोगों को। आज की युवा पीढ़ी को तो पता भी नहीं है कि वह गेहूं कैसा होता था और कैसे हलक के नीचे उतारा जाता था ? तब तो जनसंख्या भी कम थी तब देश का पेट कृषि नहीं भर पाती थी। तब तो सरकारें परिवार नियोजन का विस्तृत प्रचार कार्यक्रम भी चलाती थी लेकिन धीरे-धीरे परिवार नियोजन का कार्यक्रम लोगों के  स्वविवेक पर छोड़ दिया गया और वोट बैंक की राजनीति ने इस संवेदनशील मुद्दे से अपने को अलग कर लिया। आपातकाल के दौरान संजय गांधी की परिवार नियोजन की योजना ने जबरदस्ती और ज्यादती के  इतने किस्से प्रचारित किए और कांग्रेस चुनाव मे चारों खाने चित्त गिरी कि परिवार नियोजन  के नाम से तौबा करने में ही भलाई दिखायी दी।


देश में खाद्यान्न का उत्पादन पर्याप्त था और लोगों का पेट भी आसानी से भर रहा था तो बढ़ती आबादी की चिंता करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। कहा जा रहा है कि देश की जनसंख्या 115 करोड़ हो गयी है। 2011 में फिर से जनगणना होगी तो आंकड़े और स्पष्ट हो जाएंगे। भविष्य में आंका जा रहा है कि चीन और भारत दोनों आर्थिक विकास के अगुआ होंगे। आर्थिक विकास में क्या होगा भविष्य में और चीन को हम पीछे छोड़ सकेंगे या नहीं यह तो वक्त बताएगा लेकिन एक बात निश्चित दिखायी दे रही है कि जनसंख्या के मामले में हम चीन की आज जो स्थिति है, उसे हम पीछे छोड़ देंगे। देश और किसी मामले में रिकार्ड दुनिया में बनाए न बनाए लेकिन आबादी के मामले में निश्चित ही रिकार्ड बनाने की स्थिति में है। आबादी बढ़ रही है लेकिन भूमि तो निश्चित और सीमित है। वन क्षेत्र कम होते जा रहे हैं। इससे कृषि भूमि बढ़ रही है लेकिन कृषि भूमि पर भी उद्योग लग रहे हैं और बढ़ती आबादी के निवास के  लिए भी कृषि भूमि का ही उपयोग किया जा रहा है। शहरों की बढ़ती आबादी आसपास के गांवों को निगल रही है।


शहर बड़ा हो या छोटा सड़कों पर चलना कठिन हो रहा है। सर्वत्र भीड़ और भीड़ ही दिखायी देती है। इसके कारण आवागमन के संसाधन भी सड़कों पर बढ़ रहे हैं। कल को जो सड़कें चौड़ी दिखायी पड़ती थी, सिकुड़ती जा रही है। पूरा शहर बाजार बनता जा रहा है। बेरोजगारी ने रोटी रोजी के लिए सड़कों के किनारे भी दुकान लगाने के लिए लोगों को मजबूर कर दिया है। फलाई ओह्वïर, ओह्वïर ब्रिज, अंडरब्रिज बनाकर यातायात को सुधारने की कोशिश की जा रही है लेकिन बढ़ती आबादी सारी कोशिशों पर पानी फेर रही है। चीन ने तो कानून बनाकर बढ़ती आबादी को थामने की कोशिश की है लेकिन भारत में तो पूरी स्वतंत्रता है। अब फिर से खाद्यान्न के निर्यातक देश को आयात की जरूरत पड़ रही है। जबकि दुनिया भर में खाद्यान्न की कमी हो रही है।


महंगाई को राजनीति का मुद्दा न बनाकर भविष्य में आने वाली कठिनाइयों के मद्देनजर अभी से कोशिश करने की जरूरत है। महंगाई का ठीकरा शरद पवार के सिर फोडऩे से तो महंगाई कम नहीं होगी और न ही शरद पवार के प्रधानमंत्री को जिम्मेदार बताने से। जनता नाराज हुई तो यही कर सकती है कि चुनाव आने पर वर्तमान सरकार को हटाकर दूसरी पार्टियों की सरकार बना दे, लेकिन इससे ही मामला हल तो हो जाने वाला नहीं है। मांग केअनुरूप पूर्ति होने से ही मामला हल होगा। कांग्रेस प्रवक्ता का यह कहना कि देश में सूखा पड़ गया तो सरकार उसके लिए दोषी नहीं है तो फिर कौन दोषी है? आखिर विपरीत स्थितियों के लिए तैयार रहने की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती। सरकार का मंत्री ही घोषणा करता है कि शक्कर की कीमत बढ़ेगी। दूध की कीमत बढ़ेगी। जब मालूम है कि ऐसा होने वाला है तब इससे निपटने की तैयारी करना भी तो सरकार का काम है। अब सरकार कहे कि उसे मालूम है कि देश पर आतंकवादी हमला होने वाला है तो उस हमले को रोकने की जिम्मेदारी भी तो सरकार की है। जनता ने अपने वोटों से सरकार बनायी, किसलिए ? सिर्फ चेतावनी देने के लिए कि ऐसा होने वाला है। जनता तैयार रहे। महंगाई है तो जनता भुगते। आतंकवादी हमला करें तो जनता मरे। इससे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना बात और क्या हो सकती है?


जनता अपने खून पसीने की कमाई से टैक्स भरती है। दिल्ली से लेकर ग्राम पंचायत में बैठी सरकार जनता से टैक्स के रूप में वसूली करती है। जनता को हर हाल में टैक्स देना है। कहने को संपत्ति का अधिकार जनता के पास है लेकिन संपत्ति कर मुक्त नहीं है। हर जगह सरकार खड़ी है। वह नित्य नए नए तरीके निकालती हैं कि उसका राजस्व कैसे बढ़े। तब बाजार में बढ़ती महंगाई के लिए वह जिम्मेदार क्यों नहीं है ? क्यों वह खाद्यान्न का सट्टा बाजार चलाने देती है। कृषि पर आयकर भले ही न हो लेकिन जो मशीनें डीजल से कृषि कार्य में चलती है तो डीजल परतो टैक्स लगता ही है। कृषि उपज मंडी का टैक्स है, ही। प्रवेश कर भी है, एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने पर। कृषि जमीन की खरीदी बिक्री पर भी सरकार का रजिस्ट्री शुल्क देना पड़ता है। सिंचाई की नहर से सुविधा प्राप्त  करने पर भी सिंचाई टैक्स देना पड़ता है। सरकार के चंगुल से कोई मुक्त  नहीं है।


जब सरकार को किसी जमीन की आवश्यकता हो तो सरकार के पास हर किसी की जमीन अधिग्रहण करने का अधिकार है। यह दूसरी बात है कि अधिग्रहण केलिए सरकार मुआवजा देती है। कानून के अनुसार यदि मुआवजे से आप संतुष्ट नहीं है तो न्यायालय की शरण ले सकते है लेकिन अधिग्रहण को नहीं रोक सकते। सरकार ने कृषि भूमि के लिए सीलिंग कानून बनाया। कितने भूमिहीनों को इस तरह प्राप्त जमीन प्राप्त हुई। शहरी भूमि सीलिंग को अंतत: सरकार ने रद्द कर दिया। शहरों के विस्तृत होने का नुकसान किसानों को भरना पड़ा और कितने ही किसान इस दुष्चक्र में फंसकर भूमिहीन हो गए। कभी कहा जाता था कि भारत कृषि प्रधान देश है। इसका तो अर्थ होना चाहिए था कि प्राथमिकता के  आधार पर कृषि ही सरकार की दृष्टि में पहले नंबर पर होना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या ? पिछले दिनों तक तो खेती को घाटे का ही धंधा समझा जाता था। फिर भी यह कटु सत्य है कि आर्थिक मंदी से भारत उबर पाया तो उसका कारण कृषि ही है। ठोस बुनियाद कृषि है और उसे ही पुख्ता करने की जरूरत है। राïष्ट्रपति महोदया ठीक कहती हैं कि देश को दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है.


- विष्णु  सिन्हा


27-1-2010

1 टिप्पणी:

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.