कल का दिन कुछ पूर्व आईएएस और वर्तमान आईएएस के लिए अच्छा नहीं रहा। बारदाना घोटाला कांड में कल आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो ने दो पूर्व एवं एक वर्तमान आईएएस के विरूद्घ अपराध दर्ज कर लिया। अजीत जोगी शासनकाल के घोटाले की लंबी जांच के बाद मुख्यमंत्री ने अपराध दर्ज करने की अनुमति दे दी। पूर्व मुख्य सचिव आर. पी. बगई, टी. एस. छतवाल और वर्तमान में पर्यटन सचिव सुब्रत साहू को आरोपी बनाया गया है। अपराध दर्ज करने की अनुमति देकर डा. रमनसिंह ने स्पष्ट कर दिया है कि वे किसी को भी बख्शने के पक्ष में नहीं हैं। बारदाना घोटाला करीब 150 करोड़ रूपये का है। आरोप है कि बिना किसी टेंडर के बारदाने खरीदे गए थे। 6 वर्ष हो गए, घोटाले को। जांच बड़ी लंबी चली। किसी को कोई उम्मीद नही थी कि इस मामले में कुछ होने वाला है। एक तरह से वक्त की राख ने इस मामले को ढंक लिया था लेकिन अंदर ही अंदर आग सुलग रही थी और जब राख उड़ायी गयी तो पता चला कि साक्ष्य और दस्तावेज के आधार पर भ्रष्टाचार साबित होता है।
जुर्म दर्ज होना सभी के लिए चेतावनी है कि कानून की चक्की भले ही धीरे-धीरे चलती है लेकिन पीसती बारीक है। सत्ता की कुर्सी पर सवार लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे मनमानी कर बच निकलेगे। अक्सर बड़े नौकरशाह बच भी निकलते है। खासकर आईएएस अधिकारियों पर ऊंगली उठाने से लोग झिझकते है लेकिन सूचना के अधिकार ने हर व्यक्ति को वह ताकत दे दी है जिससे शासकीय दस्तावेज हासिल किए जा सकते हैं। अब तो न्यायाधीशों को भी इसके अंतर्गत ले लिया गया है। प्रजातंत्र में पारदर्शिता ही असली चीज है जो गलत काम करने वालों में भय पैदा करती है। बेलगाम नौकरशाही पर अंकुश का काम करती है। आईएएस अधिकारियों को कठघरे में खड़ा कर डा. रमन सिंह ने जनता को भी संदेश दे दिया है कि वे गलत कामों को शह देने वाले मुख्यमंत्री नहीं हैं।
कल ही मुख्यमंत्री ने मंत्रालय का अचानक निरीक्षण कर यह भी जांच कर ली कि कौन सा बड़ा अधिकारी अपनी सीट पर कार्यालयीन अवधि में उपस्थित है और कौन अनुपस्थित। हालांकि उन्होंने साहबों के विषय में चपारसियों से जानकारी ली और स्वास्थ्य का हाल चाल पूछा लेकिन समझदार के लिए स्पष्ट चेतावनी है कि उन्होंने अपने काम के समय को गंभीरता से नहीं लिया तो मुख्यमंत्री सख्त भी हो सकते है। दरअसल मुख्यमंत्री पर ही आरोप लगते हैं यदा कदा कि नौकरशाह उनके नियंत्रण में नहीं है। अजीत जोगी तो नौकरशाह को घोड़े की और मुख्यमंत्री को घुड़सवार की संज्ञा देते रहे हैं। अच्छे घुड़सवार के इशारे पर घोड़े दौड़ लगाते है। लगाम तो घुड़सवार के हाथ में ही होती है और अच्छा घुड़सवार न हो तो बिगड़ैल घोड़े घुड़सवार को भी पटक देते है।
उदाहरण में यह बात भले ही मन को अच्छी लगे लेकिन न तो मुख्यमंत्री घुड़सवार होता है और न ही नौकरशाह घोड़े। दोनों इंसान हैं और इंसानियत का तकाजा तो यही है कि दोनों मिलकर अपनी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूरी संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से करें। मुख्यमंत्री और सरकार को जनता ने चुना है। वे जनता की तरफ से सरकार चलाने के लिए नियुक्त किए गए हैं और नौकरशाहों का काम है कि जनता की चुनी सरकार के आदेशों का त्वरित गति से पालन करें। कहते है कि न्याय में देरी भी अन्याय के समान हैं। नौकरशाहों को तो नित्य न्याय करना पड़ता है। मुख्यमंत्री को भी तुरंत फैसला लेना पड़ता है लेकिन मुख्यमंत्री के निर्देश, आदेश का शीघ्रता से पालन हो यह काम तो नौकरशाहो का है। नौकरशाह इस मामले में कोताही करें या अपनी मनमर्जी चलाने का प्रयास करें तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता। फिर वे सरकारी खजाने को ही नुकसान पहुंचाएं तो वे सजा के हकदार तो स्वयं बन जाते है। मुख्यमंत्री चाहें न चाहें, उन्हें ऐसे नौकरशाहों को कानून के हवाले करने की अनुमति देना ही पड़ता है।
नौकरशाहों को छठवां वेतन आयोग के अनुसार वेतन और सुविधाएं मिले, इस मामले में जब मुख्यमंत्री पीछे नहीं हैं तो नौकरशाहों को भी अपने कर्तव्यों के निर्वहन में पीछे नहीं रहना चाहिए। आखिर वेतन और सुविधाओ पर जो खर्च होता है, वह होता तो जनता के खजाने से ही है। सही दृष्टि तो यही है कि जनता ही सबको वेतन देती है। प्रजातंत्र में तो जनता ही मालिक है। फिर मालिक का हुक्म बजाना तो नौकरशाहों का पहला कर्तव्य है। जबकि होता उल्टा है। नौकरशाह मालिक बन बैठे हैं। वे समझते हैं, शायद कि उनकी कृपा से जनता के काम होते हैं। ऐसे भाव प्रजातंत्र के लिए अच्छे नहीं हैं। क्यों नौकरशाह आम आदमी से कटकर सुरक्षा के घेरे में मंत्रालयों में बैठते हैं? उनसे यदि कोई मिलना चाहें तो सुरक्षा की लंबी चौड़ी दीवार को लांघना क्या आसान काम है? रोज न सही कम से कम सप्ताह में एक दिन ही सही वे जनता से रूबरू क्यों नहीं होते। जो समय पर दफतर आना ही जरूरी नही समझते, वे जनता से मिलने में क्यों रूचि लें? वास्तव में जो सरकार चलाते हैं, वे सात पर्दों में छुपकर बैठते हैं।
मंत्री शिकायत करते हैं कि उसका सचिव उनकी नहीं सुनता। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। कोई काम मंत्री के द्वारा बताए जाने पर नहीं हो सकता, किसी नियम, कायदे के कारण तो मंत्री को बताना चाहिए कि इस कारण काम नहीं हो सकता। आप नियम बदलिए, तब ही काम होगा। मंत्री को सम्मान सर्वोच्च प्राथमिकता होना चाहिए। मंत्री बुलाए, उसके पहले ही उससे मिलना सौजन्यता है। फिर मंत्री के बुलाने पर भी न जाना तो घोर अनुशासनहीनता है। बहुत पहले ऐसा मामला सामने आ चुका है जब मंत्री के बुलाने पर अधिकारी ने मीटिंग का बहाना बनाया कि वह मीटिंग में व्यस्त है। मंत्री जी ने जाकर अधिकारी के कक्ष में देखा तो अधिकारी बैठा हुआ था और कोई मीटिंग नहीं चल रही थी। स्वाभिमानी होना अलग बात है लेकिन अहंकारी होना एकदम अलग बात है।
इस देश के आईएएस अधिकारी तय कर लें कि वे गलत काम नहीं करेंगे तो देश से भ्रष्टचार को मिटाया जा सकता है लेकिन पदस्थापना के चक्कर में जब वे गलत काम करने से भी परहेज नहीं करते तो फिर अपनी ऊंगलियां भी डुबाने से बाज नहीं आते। देश का सबसे बुद्घिमान युवा आईएएस के लिए चुना जाता है तो यह उनके लिए ही विचारणीय है कि आज देश जहां आकर पहुंच गया है, उसके लिए वे कितने जिम्मेदार हैं। उनका तो संगठन भी है। वे क्यों नहीं देश की समस्याओं के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते ? वे चाहें और दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो देश का कायाकल्प कर सकते हैं लेकिन इसके लिए उन्हे व्यवस्था की जड़ता को तोडऩा होगा। क्योंकि प्रारंभ तो स्वयं से होता है। स्वाध्याय करें। मतलब स्वयं का अध्ययन करें?ï अपने कामों की स्वयं समीक्षा करें तो कारण वे स्वयं को भी पाएंगे।
- विष्णु सिन्हा
19-1-2010
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Kaash! UP mein bhi aisa ho sakta...
जवाब देंहटाएंMahfooz
www.lekhnee.blogspot.com
लेकिन आईएएस ऐसा क्यों तय करेंगे?
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंमानव मनोविज्ञान की अनदेखी करते हुए कल्पनलोक में डूबे रहने से कोई लाभ नहीं होने वाला. आख़िर क्यों कोई आई ए एस अफ़सर ईमानदार होगा जब देश में बेईमानी पुरस्कृत हो रही हो. विकल्प है संविधान का पुनर्निर्माण जिसमें बेईमानी की गुंजाइश न्यूनतम हो.
जवाब देंहटाएंhttp://bhaarat-bhavishya-chintan.blogspot.com