यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 18 जनवरी 2010

सामान्य मानव की काया में महामानव ज्योति बसु


ज्योति बसु नहीं रहे। 96 वर्ष की आयु तक मनुष्य शरीर में रहने वाले व्यक्ति के शरीर त्याग के साथ ही भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के एक युग का भी अंत हो गया। पश्चिम बंगाल के लगातार 23 वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने वाले ज्योति बसु ने मुख्यमंत्री रहने का जो रिकॉर्ड बनाया, उसे भविष्य में भी कोई तोड़ पाएगा, इसकी उम्मीद कम है। उन्हें किसी ने मुख्यमंत्री के पद से हटाया नहीं बल्कि स्वास्थ्य कारणों से उन्होंने स्वयं पद त्याग दिया।  उन्हें पदच्युत करने के सभी तरह के प्रयास निष्फल ही साबित हुए। उनकी प्रतिष्ठा  ऐसी थी कि संयुक्त मोर्चा ने एक समय उन्हें प्रधानमंत्री पद संभालने के लिए भी आमंत्रित किया लेकिन अपनी पार्टी के निर्णय को शिरोधार्य करते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं किया। वे चाहते तो पार्टी से अपने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव भी पारित करवा सकते थे लेकिन उन्होंने अपने प्रभाव का उपयोग करने के बदले पार्टी के निर्णय का सम्मान किया। आज जब पद के लिए लोग नाराज हो कर पार्टी से ही किनारा करने मे देरी नहीं करते तब ज्योति बसु उन सभी के लिए उदाहरण हैं।
गठबंधन की सरकार चलाने को कठिनतम काम समझने वालों के लिए भी ज्योति बसु एक उदाहरण हैं। 23 वर्षों तक गठबंधन की सरकार उन्होंने चलायी। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का बहुमत होने के बावजूद उन्होंने गठबंधन के दलों से किनारा कर अपनी सरकार चलाने की स्वार्थपरता नहीं दिखायी। उनकी राजनीति का सबसे उज्जवल पक्ष तो यही है कि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं की राजनीति उन्होने नहीं की। ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जो वास्तव में अपने लिए ही ईमानदार न हो बल्कि सबके लिए ईमानदार हो। वाम मोर्चे की पश्चिम बंगाल सरकार के विरुद्ध सबसे ज्यादा संघर्ष ममता बेनर्जी ने किया लेकिन ज्योति बसु के मुख्यमंत्री रहते उन्हें सफलता नहीं मिली। आज ममता बेनर्जी पश्चिम बंगाल में सफल हो रही हैं और लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने कांग्रेस के साथ मिल कर कम्युनिस्टों को पीछे धकिया दिया है। उम्मीद की जा रही है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा के अगले चुनाव के बाद सत्ता वाम मोर्चे के हाथ से निकल जाएगी और ममता के हाथ लग जाएगी लेकिन ऐसा तभी संभव हो रहा है जब कमान वाम मोर्चे की ज्योति बसु के हाथ में नहीं है और अब तो वह नश्वर शरीर को ही त्याग चुके हैं।
जब तक ज्योति बसु का स्वास्थ्य ठीक था तब तक वाम मोर्चा भारतीय राजनीत में निर्णायक स्थिति में था। तमाम कांग्रेस को छोड़कर धर्मनिरपेक्ष दल ज्योति बसु में अपना भविष्य देखते थे। मनमोहन सिंह ने भी अपने पिछले कार्यकाल में अधिकांश समय सरकार वाम मोर्चे के समर्थन से ही चलायी। वाम मोर्चे ने भले ही अमेरिका से परमाणु समझौते के कारण सरकार से समर्थन वापस ले लिया लेकिन व्यक्तिगत रुप से ज्योति बसु इससे सहमत नहीं थे। इसका परिणाम भी वाम मोर्चे को भोगना पड़ा और लोकसभा चुनाव में उसकी शक्ति क्षीण हुई। प्रकाश करात तो उम्मीद कर रहे थे कि चुनाव के बाद फिर ऐसा अवसर आने वाला है कि उनके इशारे पर केंद्र में सरकार बनेगी लेकिन जनता ने कांग्रेस की सीटों में इजाफा कर वाम मोर्चे को पश्चिम बंगाल और केरल में ही ठिकाने लगा दिया।
जीवन भर की मेहनत से ज्योति बसु ने जिस तरह से अपनी पार्टी और वाम मोर्चे को पुष्पित पल्लवित किया था, उसका इस तरह से पराभव उन्हें रास न आया हो तो आश्चर्य की बात नहीं। वे योद्धा थे और जीवन भर उन्होंने अपने मूल्यों के लिए संघर्ष किया। गरीब, वंचित, दलित तबकों के लिए उनकी पीड़ा ही प्रमुख कारण थी जो सुविधापूर्वक जीवन यापन के  बदले उन्होंने संघर्ष के रास्ते का चयन किया। नहीं तो लंदन से बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त कर आने वाले व्यक्ति के लिए वकालत के पेशे में सुविधा ही सुविधा थी। वे चाहते तो आम आदमी की तरह सुविधा भोगी का जीवन भी आसानी से व्यतीत कर सकते थे। भारत में वामपंथियों के लिए बंगाल को उर्वरा बनाना कोई आसान काम नहीं था लेकिन लगातार 23 वर्षों तक पश्चिम बंगाल पर शासन कर उन्होंने सिद्ध किया कि वे असंभव को भी संभव करने की क्षमता रखते थे।
उनकी आलोचना की जाती है कि उनके शासनकाल में पश्चिम बंगाल विकास के नाम से पिछड़ गया। औद्योगिक विकास के नाम पर एक बड़ा शून्य पश्चिम बंगाल में है और बुद्धदेव भट्टïाचार्य वर्तमान मुख्यमंत्री ने जब औद्योगिक विकास की तरफ पश्चिम बंगाल को ले जाने की कोशिश की तो उद्योग तो पश्चिम बंगाल के हिस्से में आया नहीं बल्कि अलोकप्रियता उनके हाथ लगी। उद्योग के नाम पर कृषकों से अधिग्रहित की जाने वाली कृषि भूमि ही उनके लिए भारी नुकसान का सौदा साबित हुई। ममता ने उन्हीं के हथियार से उनका सफाया किया। गरीबी में भी लोग सुखी रह सकते हैं लेकिन अमीरी के नाम पर उनकी जमीन उनसे ले ली जाए, यह बंगालियों को पसंद नहीं आया। यह मर्म ज्योति बसु अच्छी तरह से समझते थे। इसलिए भूमि सुधार कानून के द्वारा उन्होंने बंगालियों का न केवल मन जीता बल्कि वर्षों तक उसी कारण उनके दिलों पर राज भी किया।
ज्योति बसु की ही पंचायत राज व्यवस्था से प्रभावित होकर राजीव गांधी ने इस व्यवस्था को पूरे देश में लागू किया। पूरे देश के मुख्यमंत्री अध्ययन कराते थे कि ज्योति बसु के शासन मे ऐसी कौन सी खूबी है कि पश्चिम बंगाल की जनता निरंतर उन्हें ही समर्थन देती है। ऊपर-ऊपर की जांच परख के बावजूद भी लोग समझ नहीं पाए कि असली खूबी तो स्वयं ज्योति बसु थे। राजनीति में अंदर और बाहर से एक होने की खूबी ऐसी खूबी हैं, जिसका कोई अन्य तोड़ नहीं है। यही खूबी जनता में विश्वसनीयता को जन्म देती है। क्योंकि मुखौटे वाले नेताओं के चेहरे से मुखौटा जब उतर जाता है तब उनका नग्न चेहरा जनता को असलियत का आभास करा देता है। पुत्र चंदन बसु के उद्योगपति होने को लेकर ज्योति बसु को घेरने की कम कोशिश नहीं की गई  लेकिन जब ज्योति बसु ने कोई पक्षपात किया ही नहीं तो आरोप लगते ही दम तोड़ गए।
जो कोई राजनेता नहीं कर सका, वह भी तो वे मरने से पहले अपने शरीर का दान कर, कर गए। अपने अंगों का दान, अपने शरीर का रिसर्च के लिए दान। धार्मिक कर्मकांडों से दूर और न उसका कोई भय मानते हुए  जब ज्योति बसु भावी पीढ़ी की शिक्षा के लिए अपने मृत शरीर का भी दान कर गए तो उन्होंने सिद्ध किया कि जिन मान्यताओं के लिए भी जीये, मरते समय भी उन्होंने उसे याद रखा। वे उन सबके लिए उदाहरण हैं जिनकी कथनी और करनी एक है। ऐसा युग पुरुष वास्तव में श्रद्धांजलि का हकदार है। सामान्य मानव की काया में भी महामानव जन्म लेते है, इसका उदाहरण है, ज्योति बसु।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक 18.01.2010

1 टिप्पणी:

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.