यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 15 मई 2010

चाऊर वाले बाबा पानी वाले बाबा बनकर तो अमर ही हो जाएंगे

पानी की कटौती के बावजूद अब मुंबई के पास मात्र 1 माह के लिए ही पानी शेष
है। मौसम विभाग कह रहा है कि 30 मई तक केरल में मानसून पहुंच जाएगा। 7
जून तक मुंबई में भी मानसून को इस अनुमान के अनुसार पहुंच जाना चाहिए।
विज्ञान की उन्नति के बावजूद मौसम विभाग की भविष्यवाणी हमेशा सच नहीं
निकलती। मुंबई के पास तो समुद्र है। ओर छोर नहीं है, पानी का लेकिन यह
पानी बिना शुद्ध किए नित्य उपयोग में नहीं आ सकता। मुंबई को तो तैयारी
करनी पड़ेगी, भविष्य की। क्योंकि कहा जा रहा है कि मुंबई में आज की तुलना
में आबादी 3 गुणा बढ़ जाएगी। साढ़े तीन करोड़ लोगों की पानी की आवश्यकता
पूरी करने के लिए मुंबई को तैयार होना पड़ेगा। कभी लगता था कि पेट्रोल,
डीजल के बदले यदि पानी से वाहन चलने लगे तो कितना सुविधाजनक होगा लेकिन
पानी की किल्लत जिस तरह से बढ़ रही है, उसे देखकर तो लगता है कि ऐसा समय
भी आ सकता है कि पेट्रोल, डीजल पानी से सस्ता मिलने लगे। जिन देशों में
पेट्रोल डीजल जमीन से निकाला जा रहा है, वहां स्थिति कुछ इस प्रकार की ही
है। क्योंकि समुद्र के पानी को पीने योग्य बनाया जाता है और यह बहुत
महंगा प्रोसेस है।

बहुत पहले जो कहा गया कि पानी के कारण ही तीसरा विश्व युद्ध होगा तो
पृथ्वी में पानी की बदलती स्थिति अब तो इस तरफ इशारा करती है। रायपुर में
ही आज देवेन्द्र नगर कॉलोनी जहां बसी हुई है, वहां कभी फाफाडीह के
किसानों के खेत हुआ करते थे। फाफाडीह के तालाब की ही क्षमता इतनी अधिक थी
कि बरसात में तालाब के पानी से खेतों की सिंचाई भी हो जाती थी। तब पानी
की तंगी किसी को नहीं सताती थी। रायपुर में नगर निगम नहीं था। नगर पालिका
थी और शाम को नगर पालिका के वाहन सड़कों के दोनों ओर पानी छिड़कते थे कि
धूल न उड़े। कभी किसी को लगता नहीं था कि पानी की किल्लत भी एक बड़ी
समस्या बन जाएगी। आज भूमिगत जल नीचे और नीचे गर्मियों के दिनों में जा
रहा है। पुराने बोरिंगों में पानी नहीं रहा है और पानी चाहिए तो बोर की
गहराई बढ़ानी पड़ रही है। उसके लिए भी जिला कलेक्टर से अनुमति लेनी पड़ती
है।

44-45 डिग्री तापमान पहले भी शहर का जाता था, लेकिन इतनी गर्मी नहीं लगती
थी। जितनी आज लग रही है। बिलासपुर रायपुर की तुलना में कम गर्म होता था
और कच्चे मकान ठंडकता देते थे। कांक्रीट के मकान गर्म भी बहुत होते हैं
और ठंड के मौसम में ठंडे भी बहुत होते है। मिट्टी के मकान गर्मी में
ठंडे और ठंड में गर्म हुआ करते थे। अब तो कल्पना से भी परे हैं कि पुराने
मकानों की दीवालें डेढ़ से दो फुट चौड़ी हुआ करती थी। 9 इंच की दीवाल तो
अब 4 इंच की होने लगी और सीमेंट लोहा ताप का सुचालक होने से शहर को
भट्ठियों में तब्दील करने लगा। दिन भर गर्मी सोखता है और ठंडा होने में
समय लेता है। चारों तरफ कारखाने लगने से भी तापमान पर असर पड़ता ही है।
फिर सड़कों पर चलने वाले वाहन और एयरकंडीशनिंग मशीनें सिर्फ गर्मी बढ़ाने
का ही काम करती हैं। 44-45 डिग्री तापमान तो उत्तर भारत का आम हो चुका।
कहीं कहीं तापमान 49 डिग्री तक भी पहुंच गया है। यह गर्मी पानी को भाप
बनाकर भी उड़ा रही है। मतलब साफ है कि जलाभाव को गर्मी और बढ़ा रही है।
बड़ी तेजी से पानी पूरे देश के लिए बड़ी समस्या के रुप में खड़ी है। अटल
बिहारी की सरकार ने देश की नदियों को जोडऩे की योजना बनायी थी। जिससे
नदियों में बरसात में आने वाला पानी समुद्र में न चला जाए और बारह मास
नदियों में पानी रहे। इससे भूमिगत जल स्तर भी बढ़े। यह योजना प्रारंभ
होकर पूरी हो जाती तो देश जल संकट से मुक्त हो सकता था लेकिन संप्रग
सरकार ने इस योजना पर ध्यान देना उचित नहीं समझा। ऐसी कोई योजना नहीं है
जिसमें खूबियां ही खूबियां हों। कुछ खामियां भी होती है। बड़े बांधों का
भी विरोध होता है लेकिन कटु सत्य यही है कि आज देश जल समस्या से निपट सक
रहा है तो उस कारण बड़े बांध भी हैं। दूर क्यों जाएं ? रायपुर को ही आज
पानी नहीं मिलता। लोगों को शहर छोड़कर भागना पड़ता। यदि गंगरेल बांध नहीं
होता। शहर की जल संबंधी आवश्यकता की पूर्ति गंगरेल बांध ही कर रहा है। 10
लाख से अधिक आबादी का रायपुर जो छत्तीसगढ़ की राजधानी है, गंगरेल बांध
में इकट्ठा पानी के सहारे ही जी रहा है।

जिंदा रहना है तो पानी चाहिए। खेत में अन्न उपजाना है तो भी पानी चाहिए।
जल विशेषज्ञ राजेन्द्र सिंह स्पष्ट चेतावनी दे रह हैं कि देर हुई तो हाथ
में कुछ नहीं आएगा। अभी भी अकल्पनीय है कि एक बार बरसात में वर्षा नहीं
हुई तो क्या होगा? नकरात्मक सोच अच्छी बात नहीं है लेकिन सकारात्मक सोच
का यह अर्थ नहीं है कि आने वाली समस्या के प्रति सचेत न रहा जाए। सामान्य
वर्षा होने पर आकाश से इतना पानी गिरता है कि उसे सहेज कर रखा जाए तो एक
दो वर्ष तक वर्षा न हो तो भी काम चलाया जा सकता है। अक्लमंदी तो यही कहती
है कि आपातकाल की तैयारी पहले से कर ली जाए। आज गंगरेल बांध में जितना
पानी बचा हुआ है वह बरसात न हुई तो कितने दिन काम आएगा। सारा आर्थिक
विकास, शिक्षा, उद्योग किस काम के यदि प्रदेश के लोगों को समुचित पानी न
मिले। अब हम सिर्फ भगवान पर ही इस मामले में आश्रित नहीं रह सकते।
क्योंकि जो जल की समस्या है यह प्राकृतिक नहीं है। यह हमारे कारण ही पैदा
हुई है। प्राकृतिक रुप से जितनी व्यवस्था है उस पर आबादी का बढ़ा दबाव
है।

खपत बढ़े और सामान कम हो तो समस्या खड़ी होती ही है। पुरानी जनसंख्या के
अनुसार छत्तीसगढ़ की जनसंख्या 2 करोड़ कुछ लाख थी। अब नई जनगणना हो रही
है। पता चलेगा कि आबादी और कितनी बढ़ गयी है। कभी 50 हजार लोगों का
रायपुर शहर ही आज 10 लाख से अधिक आबादी का हो गया। कितने ही खेत
कॉलोनियों में बदल गए। कितने ही गांवों को शहर ने अपने में समाहित कर
लिया और अभी भी कई गांवों को समाहित करने के रास्ते पर है। जो पानी 50
हजार लोगों के लिए पर्याप्त था, वह 10 लाख से अधिक लोगों के लिए तो कम
पड़ेगा, ही। छत्तीसगढ़ राज्य को बने 10 वर्ष होने जा रहे है लेकिन अभी भी
पानी के लिए गंगरेल बांध ही है। जो वास्तव में रायपुर शहर को पानी पिलाने
के लिए नहीं बल्कि खेतों की सिंचाई के लिए बना था।

जब जागे तब सबेरा। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पहचान लिया है कि पानी की
किल्लत दूर करने के लिए अभी से प्रयत्न नहीं किए गए तो भविष्य ठीक नहीं
है। उन्होंने एक माह का कार्यक्रम बनाया लेकिन एक माह में क्या होगा?
निरंतर इस संबंध में काम करना होगा। राजेंद्र सिंह को सलाह देने के लिए
आमंत्रित किया। वे भी कह रहे है कि 1 माह नहीं दीर्घ कार्य योजना बनायी
जाए। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने जल समस्या से निपटने का जिम्मा अपने
हाथ में लिया है और पूरे प्रशासन सहित जनप्रतिनिधियों को सक्रिय किया है
तो परिणाम तो निश्चित रुप से अच्छा आना चाहिए। चाऊर वाले बाबा, पानी वाले
बाबा बनकर तो अमर ही हो जाएंगे।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 15.05.2010
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