यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

220 बैंक खाते और 300 करोड़ की संपत्ति एक नौकरशाह के पास क्या काफी नहीं है सरकारों की आंख खोलने के लिए?

अब बाबूलाल अग्रवाल कितना भी कहें कि उन्हें षडय़ंत्र कर फंसाया गया है लेकिन कोई भी उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं होगा। 300 करोड़ की बेनामी संपत्ति और बैंकों में 220 ऐसे खाते, जिनके नाम से है, वे ही कहते है कि हमारे नहीं हैं लेकिन बाबूलाल का सी ए कहता है कि सभी खाते बाबूलाल के हैं और वे स्वयं उसे आपरेट करते थे, के बाद अब सोचने समझने के लिए बच ही क्या जाता है? पता नहीं क्या सोचकर बाबूलाल अग्रवाल के माता-पिता ने उनका नाम बाबूलाल रखा था। हालांकि उन्होंने नाम को सार्थक तो किया है। बाबूलाल ने बाबू बनकर इतना धन तिकड़मों से इकट्ठा कर लिया कि किसी की भी कल्पना से परे है। अभी तक नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के किस्से ही प्रचारित होते थे और भ्रष्टचार का प्रमुख कारण भी उन्हें माना जाता था लेकिन इतना भ्रष्टाचार कि आयकर विभाग को हिसाब लगाने में ही कई दिन नहीं माह लग जाएं तो स्पष्ट दिखायी देता है कि कैसे लोगों के हाथ देश की बागडोर है। आखिर ये बाबू ही तो देश को चलाते हैं।

कहने को भले ही सरकार जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की हो लेकिन स्थायी रुप से राजकाज तो इन बाबुओं के पास ही है। जनता के प्रतिनिधियों को तो हर 5 वर्ष में चुनाव की अग्रिपरीक्षा से गुजरना पड़ता है। मतदाताओं के सामने हाथ जोड़कर खड़े ही नहीं होना पड़ता है बल्कि हर तरह की विनम्रता का प्रदर्शन करना पड़ता है। भ्रष्टाचार से कमायी रकम को मतदाताओं पर, कार्यकर्ताओं पर खर्च भी करना पड़ता है। चुनाव इतने महंगे हो गए कि लाखों करोड़ों रुपए खर्च कर चुनाव जीतने वाला गलत तरीके से कमाए नहीं तो अगला चुनाव लड़ेगा, कैसे? जनता हो या विपक्ष खरी-खोटी जनप्रतिनिधियों को ही सुनना पड़ता है। इनके ही कृत्यों पर चुनाव में जीत हार निश्चित होती है लेकिन वास्तव में कृत्य तो नौकरशाहों और शासकीय मशीनरी का होता है। ये स्थायी होते हैं। जनता किसी को भी चुने इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इन्हें ज्यादा से ज्यादा उठा कर इस कुर्सी से उस कुर्सी पर बिठाया जा सकता है लेकिन होशियार लोग तो लहर गिनने का काम भी मिले तो उसमें भी धन उगाहने के तरीके निकाल लेते हैं।


भ्रष्टाचारियों में यह किस्सा बहुत चर्चित है। एक राजा के  एक सिपहसालार पर दरबारियों ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और राजा से दरख्वास्त की कि उसे उसकी वर्तमान जगह से हटाया जाए और ऐसा काम दिया जाए, जिसमें भ्रष्टाचार की कोई गुंजाईश न हो। राजा ने बहुत सोचा कि ऐसा कौन सा काम हो सकता है जिसमें भ्रष्टाचार की जगह न हो तो उसने नदी में लहर गिनने के काम में सिपहसालार को लगा दिया। दरबारी बहुत खुश हुए कि अब वह भ्रष्टाचार से धन नहीं कमा सकेगा लेकिन कुछ दिन बाद ही खबर आयी कि वह तो अति प्रसन्न है और खूब चांदी काट रहा है। पता लगाया गया कि लहरें गिनने में भ्रष्टïचार की जगह कैसे बन गयी तो पता चला कि वे सुबह से नदी किनारे जा कर बैठ जाते हैं और सिपाहियों को आदेश दे देते हैं कि कोई भी नाव, जहाज न तो आ सकती है न ही जा सकता। जो जहां है वहीं खड़ा रहे। क्योंकि साहब लहरें गिन रहे है। नाव और जहाज के आने-जाने से लहर गिनने में अड़चन होती है। सिपाहियों ने ही जहाज और नावों के मालिक से कहा कि आना-जाना है तो साहब को भेंट चढ़ाओ। इस तरह से लहरें गिनने के नाम से भेंट मिलने लगा।


कोई बुद्धि से कमजोर आदमी तो नौकरशाह बन नहीं सकता। कठिन प्रतियोगी परीक्षा से इनका चुनाव होता है। फिर साक्षात्कार भी होता है। सब तरह से ठोक बजा कर अति होशियार व्यक्ति को ही नौकरशाही मिलती है। जब इतने चतुर चालाक व्यक्ति को अधिकार मिलेगा तो कितने लोग हैं जो अपनी बुद्धि का प्रयोग सिर्फ अपने कर्तव्य के निर्वाह में करेंगे। नया-नया रंगरुट ईमानदार भी होता है। वह ईमानदारी से काम भी करता है लेकिन उसके ऊपर बैठा अधिकारी और नीचे काम करने वाले कर्मचारी भी ईमानदार हों तब न वह ईमानदारी से काम करे। फिर भी वह ईमानदार होने की जिद करता है तो उसे तरह-तरह से प्रताडऩा झेलनी पड़ती है। उसके संगी साथी ही समझाते हैं कि इस तरह से कितने दिन चलेगा। वह क्या सोच कर नौकरी में आता है और उसके एकदम विरुद्ध माहौल पाता है तो उसे निर्णय करना पड़ता है कि भेड़ों के झुंड में भेड़ बन जाए या शेर बनने की कोशिश करे। वह शेर बनने की कोशिश करता है। नियम, कायदे की बात करता है लेकिन उसे असफल करने पर तुले लोग उसकी चलने नहीं देते। वह संरक्षण देने वाले की तलाश करता है तो उसे कोई संरक्षण देने वाला दिखायी नहीं देता। धीरे-धीरे उसे समझ में अच्छी तरह से आ जाता है कि वह व्यवस्था को बदल नहीं सकता तो फिर उसके पास व्यवस्था का अंग बनने के सिवाय चारा क्या रहता है? वह एक बार सोचता अवश्य है कि नौकरी ही छोड़ दे लेकिन फिर यही प्रश्र कि करेगा क्या? उसे अपने परिवार का ध्यान आता है। नौकरी छोडऩे से भी बदलने वाला तो कुछ नहीं। तब वह झुकता है और झुकता है, समझौता करता है तो करता ही चला जाता है।


बाबूलाल अग्रवाल, अरविंद जोशी, दीनू जोशी तो आयकर शिकंजे में फंस गए। क्या ये सिर्फ तीन ही भ्रष्टïचार के जनक हैं? इनके पकड़े जाने से सिर्फ यही पता चलता है कि भ्रष्टïचार कितना ज्यादा है। सरकार ने अभी छठवां वेतन आयोग देकर अपने नौकरशाहों, कर्मचारियों की हर जरुरत पूरी करने की कोशिश की। फिर भी ये ईमानदार नहीं बन सके तो दोष किसका है? कहा जाता है कि दुनिया के भ्रष्टतम देशों में भारत का नंबर ऊपर है। भ्रष्टïचार इतना है कि सी ए भी बचाने की स्थिति में नहीं है तो वह आयकर विभाग के सामने आत्मसमर्पण कर देता है और अपने ही क्लायंट की पूरी पोल खोल देता है। जनता की गाढ़ी कमायी से वसूला गया टैक्स व्यापारी, अधिकारी मिल कर लूट रहे हैं। सरकार सही ढंग से भ्रष्ट लोगों पर शिकंजा कसने के लिए तैयार हो तो एक पंचवर्षीय योजना से ज्यादा धन उगाह सकती है। आज छत्तीसगढ़ की ही सरकार किसानों को बोनस नहीं दे पा रही है। एक अधिकारी के पास 300 करोड़ रुपए निकल रहे है तो तीन अधिकारियों के पास से इतनी रकम निकले तो किसानों को बोनस दिया जा सकता है। सिर्फ 3 लोग ही इतना धन लूट रहे हैं जिससे लाखों लोगों की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है।


इन छापों के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों की आंख नहीं खुलती है तो फिर सरकारों को जनकल्याण का ढोंग छोड़ देना चाहिए। राजीव गांधी कहते-कहते दुनिया छोड़कर चले गए कि 1 रुपया सरकार देती है तो 15 पैसे ही जनता तक पहुंचते हैं। यह बीच में गायब होने वाले 85 पैसों का खेल है। जो भ्रष्टाचार के द्वारा विभिन्न लोगों की जेब ही नहीं भर रहा है बल्कि उनके पास धन के ठिकानों की कमी पड़ गयी है। है भी अचरज की बात कि नौकरानी के नाम से विदेशी मुद्रा जमा है और नौकरानी को पता ही नहीं कि वह करोड़पति है। गांव के मजदूरों को पता नहीं कि लाखों रुपए उनके नाम से बैंकों में जमा है। कितना बड़ा जाल है भ्रष्टाचार का। पता चलने के बाद सरकारें कुछ करेंगी या यह ऐसा ही चलता रहेगा?


- विष्णु सिन्हा


दिनांक 07.02.2010

4 टिप्‍पणियां:

  1. ेआँखें खोल देने वाला समाचार है। समझ नही आता कि इतना कुछ एक दो आदमी कैसे कर सकते हैं कहीं दूर तक ये जाल फैला हुया होगा। अब तो भगवान ही इस देश को बचा सकते हैं किसी के बस की बात नही रही भ्रश्ताचार रोकना। ध्नयवाद्

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  2. aapka ye aalekh bahut se sawal uthata hai,
    kya bharat me ye IAS nam ki afsarshadi khatm kar deni chahiye, lekin sawal yah bhi hai ki iski jagah jo bhi pad shuru kiya jayega uska nam dusra hoga lekin aakhir kam ki parampara to vahi hogi.
    so aakhir raasta kaha hain?
    is par ham kabhi nahi sochte...kyon...
    ham bhrashtachar kaha ho sakta hai ye to dekhte likhte hain, lekin kaise hate is par nahi....

    kya yah tay karne ka kaam sirf sarkar aur nyaypalika ka hai?
    sawal bahut se par javab nahi....
    aisa kyn

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  3. ....भ्रष्टाचार अपने देश की "भयानक व डरावनी" समस्या है यदि इसपे नियंत्रण किया जाये तो बहुत सी समस्याओं का समाधान स्वमेव हो जायेगा!!!!

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  4. राजीव गाँधी १५ पैसे कहकर चले गए और राहुल बचुवा ५ पैसे पर आ गए, लेकिन कभी यह नहीं बताते कि इसका जिम्मेदार कौन है. यदि भ्रष्टाचार समाप्त हो जाये तो भारत पांच सालों में ही आर्थिक प्रगति में अमेरिका को पीछे छोड़ सकता है. लेकिन पहले ये हरामखोर तो पीछा छोड़ें..........

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