यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

महिला आरक्षण की राह में रोड़े ही रोड़े के कारण सर्वसम्मति संभव नहीं

राज्यसभा से पारित महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा से पारित होने की राह तक रहा है। कांग्रेस की राïष्टरीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राज्यसभा से पारित होने पर ढेरों बधाइयां प्राप्त की थी। एक समय तो कहा जा रहा था कि यदि महिला आरक्षण विधेयक को लेकर सरकार भी गिरती है तो सोनिया गांधी को उसकी चिंता नहीं है और वे इसी मुद्दे को लेकर लोकसभा का मध्यावधि चुनाव भी लड़ सकती हैं। विधि मंत्री मोइली ने तो कहा था कि 15 अप्रेल से पुन: चालू होने वाले सत्र में यह विधेयक रखा जाएगा और पारित करवाया जाएगा लेकिन अब सरकार सर्वसम्मति के चक्कर में फंस गयी है। वह चाहती है कि सभी दल सर्वसम्मति से विधेयक का समर्थन करें। ऐसा मुमकिन होता तो सर्वसम्मति प्राप्त करने के लिए सर्वदलीय बैठक की जरूरत नहीं पड़ती। कोई भी दल महिला आरक्षण का विरोध नहीं कर रहा है लेकिन कुछ दल चाहते हैं कि महिला आरक्षण विधेयक में मुस्लिम, पिछड़ों का भी कोटा तय किया जाए। जहां तक दलित आदिवासियों का प्रश्र है तो उनका पहले से ही आरक्षण है और उन्हें उनके आरक्षण में 33 प्रतिशत कोटा महिलाओं को मिलेगा।
दरअसल विरोध करने वाले यादव नेताओं का जोर पिछड़े वर्ग की महिलाओं को आरक्षण देने पर है। क्योंकि उन्हें लगता है कि सामान्य रूप से महिलाओं को आरक्षण दे दिया गया तो उनके वर्ग की महिलाएं चुनाव जीतकर नहीं आ सकेंगी। महिला आरक्षण के नाम पर सवर्ण महिलाओं का कब्जा हो जाएगा और इस तरह से विधायिका में सवर्णों का वर्चस्व हो जाएगा। यही सोच उन्हें परेशान करती है। क्योंकि तब उनकी नेतागिरी का क्या होगा ? इसके साथ ही वे मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण मांग रहे हैं। क्योंकि अकेले बिना मुस्लिमों के समर्थन के उनकी नेतागिरी तो चरमरा गयी है। मुसलमानों का साथ छोड़ देने के कारण बिहार में लालूप्रसाद यादव और उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव की नेतागिरी कहां खड़ी हो गयी है, यह स्पष्टदिखायी दे रहा है।

जहां तक मायावती का प्रश्न है तो वह भी अच्छी तरह से जानती है कि एक तिहाई सीटों पर महिलाओं का आरक्षण हो गया तो उत्तरप्रदेश की राजनीति में उनके पुन: जीत के आने के अवसर कम हो जाएंगे। फिर एक चौथाई सीटों पर सवर्ण वर्ग की महिलाएं जीतकर आ गयी तो उन्हें नेता कौन मानेगा? जहां तक ममता बेनर्जी का प्रश्न है तो वे मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण मांग रही है। क्योंकि पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की अच्छी खासी जनसंख्या है और मुसलमानों के समर्थन के बिना राज्य की सत्ता पर काबिज होना संभव नहीं। वामदल कह रहे हैं कि कोटा के अंदर कोटा भी दिया जाता है तो उन्हें कोई एतराज नहीं है। वोट बैंक की राजनीति ऐसी है कि कोई किसी को नाराज नहीं करना चाहता।

सिवाय भाजपा के। भाजपा चाहती है कि महिलाओं को महिला मानकर आरक्षण दिया जाए। वह एक बार पिछड़ों के लिए तैयार भी हो सकती है लेकिन मुसलमानों के लिए कैसे तैयार होगी ? क्योंकि मुस्लिम महिलाओं को भी आरक्षण दिया गया तो आरक्षित मुस्लिम महिला की सीट पर भाजपा के जीतने के अवसर तो रहेंगे नहीं। कांग्रेस की अपनी तकलीफ है। उसे पता है कि वह महिला आरक्षण में कोटे में कोटे के चक्कर में फंसी तो उसे अनारक्षित सीटों पर कोटे के अनुसार आरक्षण पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को देना होगा। मतलब लोकसभा और विधानसभा की सीटों पर तब आरक्षण ही आरक्षण होगा। जिसका सीधा मतलब होगा जातीय और सांप्रदायिक नेतृत्व को उभारना। दलितों और आदिवासियों को 10 वर्ष के लिए आरक्षण दिया गया था लेकिन 67 वर्ष बाद भी कोई भी सरकार आरक्षण को हटा नहीं सकी। जब एक बार आरक्षण लोकसभा और विधानसभा में लागू हो जाएगा तो उसे भी कोई हटा नहीं सकेगा। देश के नागरिक जातीय और आर्थिक गुटों में विभाजित हो जाएंगे। अभी ही महिला आरक्षण 15 वर्ष के लिए कहा जा रहा है लेकिन एक बार लागू हो गया तो क्या हटाना संभव होगा?

अब यह तो नेताओं पर ही निर्भर करता है कि वे देश को एकजुट करना चाहते हैं या तोडऩा। चुनाव आयोग ने भी एक प्रस्ताव दिया है कि एक तिहाई टिकट महिलाओं को देने के लिए राजनैतिक दलों पर कानूनी बाध्यता लागू की जाए। यह प्रस्ताव एक तरह से अच्छा है लेकिन इसकी भी क्या गारंटी है? तब लोग मांग करने लगे कि हर पार्टी को पिछड़ों और अल्पसंख्यक महिलाओं को भी कोटा देना पड़ेगा। अंतहीन है, यह सिलसिला। भले ही अभिव्यक्त न हो लेकिन महिला आरक्षण के पक्ष में पुरूष सांसद तो अधिकांश नहीं हैं। बड़े नेताओं की बात जाने दीजिए। क्योंकि उन्हें तो अपने अपने दल मे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है और सत्ता पर काबिज होने के लिए उनके पास रास्तों की कमी नहीं है। मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनना है तो जरूरी नहीं कि वे लोकसभा का चुनाव लड़े। वे राज्यसभा का सदस्य बनकर भी प्रधानमंत्री हैं।

राज्यसभा में आरक्षण लागू भी नहीं हो रहा है। फिर वे लडऩा चाहें तो अनारक्षित सीट पर भी कहीं से भी चुनाव लड़ सकते हैं। समस्या तो उनके लिए जो नए नए सांसद लोकसभा के बने हैं, विधायक बने हैं। यदि उनकी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो गयी तो वे तो कहीं के नहीं रहेंगे। हर राजनेता जानता है कि 5 वर्ष घर में बैठ जाने का क्या मतलब होता है? नए नए दावेदार खड़े हो जाते हैं। फिर महिला आरक्षण के बाहर भी अनारक्षित सीट पर लडऩे से किसी को भी रोका नहीं जा सकता। अनारक्षित सीट ऐसी सीट है जहां से आरक्षित वर्ग का भी उम्मीदवार खड़ा हो सकता है लेकिन आरक्षित सीट से तो आरक्षित वर्ग का ही प्रत्याशी खड़ा हो सकता है। जनसेवा के नाम पर राजनीति ही जिनका काम धाम हो, उन्हें बेरोजगार तो आरक्षण कर देगा। यह बात दूसरी है कि एक बार किसी सदन का सदस्य होने के बाद जीवन भर पेंशन और सुख सुविधाएं मिलती है।

लेकिन कौन रिटायर्ड होना चाहता है ? 80-85 वर्ष के लोग भी तो सत्ता में बने रहने के लिए लालायित रहते हैं। चुनावों में जनता के द्वारा नकार दिए जाने के बावजूद लोग राज्यसभा, विधान परिषद के सदस्य बनकर सत्ता सुख प्राप्त करना चाहते हैं। फिर प्रदेश के राजभवनों तक में तो स्थापित होने के लिए राजनीतिज्ञ ही नहीं भूतपूर्व नौकरशाह तक लालायित रहते हैं। यह बात दूसरी है कि वक्त और भाग्य साथ नहीं देता तो रिटायर्ड होना ही पड़ता है। राजनीति की एक चूक कभी कभी भारी पड़ती है। जितने सत्ता में बैठे हैं, उससे ज्यादा तो बाहर बैठे हैं और इंतजार करने और कोशिश करने में पीछे नहीं हैं कि आलाकमान की कृपादृष्टि हो जाए तो फिर से सत्ता के सिंहासन पर बैठने का मौका मिल जाए। महिला आरक्षण तो ऐसे सभी की आशाओं पर सिर्फ तुषारापात ही करेगा। इसलिए कोशिश तरह तरह की करने में कोई पीछे नही है कि महिला आरक्षण को किसी प्रकार से टाला जाए।

-विष्णु सिन्हा
6-4-2010

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