यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

चाहे शब्दों से चाहे हावभाव से, संवेदना अभिव्यक्तनहीं करेंगे तो पता कैसे चलेगा?

नैतिक कारणों से इस्तीफा देने के लिए लाल बहादुर शास्त्री और माधवराव सिंधिया का नाम लिया जा रहा है। कहां लाल बहादुर शास्त्री और कहां आज के कांग्रेसी। कोई मुकाबला है, क्या? एक ट्रेन दुर्घटना पर रेलमंत्री की हैसियत से इस्तीफा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री का नाम तो इतिहास में स्वर्णाक्षर में लिखा गया। कोई परिवारवाद लाल बहादुर शास्त्री ने नहीं चलाया। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए, अपने परिवार के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जो आज कांग्रेसी कर रहे हैं। फिर वह व्यक्ति नैतिकता के आधार पर लाल बहादुर शास्त्री का नाम लेता हुआ तो कहीं से भी उचित नहीं लगता जिसके मुख्यमंत्री रहते एक नेता की हत्या हुई और प्राथमिकी उसके और उसके पुत्र के नाम से दर्ज हुई। जिसकी जाति को लेकर अभी भी न्यायालय में मुकदमा चल रहा है। पति पत्नी तो विधायक हैं ही, पुत्र को राज्यसभा में भेजने की इच्छा रखते हैं।

छत्तीसगढ़ के बहुत सारे कांग्रेसी यही तो पूछते हैं कि सारे के सारे पद पर ये बैठ सकते तो किसी अन्य को कोई पद नसीब नहीं होता। आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जो दुर्दशा है उसके लिए कांग्रेसी स्वयं अपनी चर्चा में जवाबदार उसी व्यक्ति को मानते हैं। सोनिया गांधी ने मुख्यमंत्री के रूप में उसका चयन न किया होता तो कांग्रेस की प्रदेश में यह दुर्दशा नहीं होती। कांग्रेस से जनता की कम नाराजगी है बनस्बित की इस व्यक्ति से। कहा तो यहां तक जाता है कि जब तक यह व्यक्ति सामने रहेगा, कांग्रेस का समर्थन जनता करने वाली नहीं। नौकरशाही से राजनीति में आए इस व्यक्ति ने सत्ता सिंहासन पर बैठकर नौकरशाही की तरह ही सरकार चलाने की कोशिश की। परिणाम यह निकला कि कांग्रेस के हाथ से छत्तीसगढ़ की सत्ता ऐसी निकली कि वापसी के कोई अवसर नहीं दिखायी पड़ते। लोग तो यहां तक कहते है कि डा. रमनसिंह तीसरी बार भी चुनाव जितवाने में सफल हो जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

यह कहते है कि संवेदना जताने का नहीं महसूस करने और अभिव्यक्त करने का भाव होता है। जब भी कोई किसी भाव को महसूस करता है तो या तो उसे शब्दों से अभिव्यक्त करता है या अपने हावभाव से। मुख्यमंत्री भी यही कह रहे है कि भाव कहीं से भी व्यक्त नहीं हुआ। जब रायबरेली और अमेठी के जवान मारे गए तो उनके अंतिम संस्कार में ही सोनिया या राहुल उपस्थित होते तो बिना कहे भी भाव अभिव्यक्त हो जाता। न सही अंतिम संस्कार में उसके बाद भी शहीद जवानों के परिवारों से सोनिया राहुल के संपर्क का कोई समाचार तो नहीं। यह समाचार जरूर है कि दलितों को आकर्षित करने के लिए राहुल गांधी उत्तरप्रदेश के अंबेडकर नगर से यात्रा का शुभारंभ कर रहे हैं। जिससे मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगायी जा सके। उत्तरप्रदेश में करीब 21 प्रतिशत दलित हैं और मायावती की सबसे बड़ी ताकत भी यही हैं। राहुल गांधी समझते हैं कि दलित वोट बैंक में से कुछ भी अपने हिस्से में किया जा सका तो अपनी ताकत बढ़ेगी और मायावती की कमजोर होगी। इसी कारण तो राहुल ने दलितों के यहां रात्रि में रूकना और भोजन करना अपने लोकसभा क्षेत्र में प्रारंभ किया था।

वे शिवसेना की चुनौती का सामना करने के लिए मुंबई की लोकल ट्रेन में यात्रा करते हैं। लोग उनकी तारीफ भी करते हैं लेकिन बस्तर में नक्सलियों के द्वारा सशस्त्र जवानों की हत्या करने पर वे बस्तर की तरफ रूख नहीं करते। जबकि विधानसभा चुनाव के पूर्व वे बस्तर की यात्रा कर चुके हैं। बहुत घुल मिलकर आदिवासियों से चर्चा की लेकिन चुनाव परिणाम में उसका असर नहीं दिखायी पड़ा। इस बार तो स्थानीय निकाय के चुनावों में तीन नगर निगमों पर कांग्रेस का कब्जा हुआ लेकिन कब्जा करने वाले नए नेता हैं। बिना बड़े नेताओं का सहयोग लिए इन लोगों ने जनता का विश्वास प्राप्त किया। जनता भी चाहती है कि किसी पार्टी का ऐसा वर्चस्व न हो कि वह तानाशाह हो जाए लेकिन जब वह तुलनात्मक रूप से देखती है तो भाजपा के मुख्यमंत्री को अधिक विनम्र, अधिक प्रजातांत्रिक पाती है। वह कांग्रेस की तानाशाही का समय देख चुकी है। जब बस्तर के आदिवासी नक्सलियों की तानाशाही बर्दाश्त नहीं कर सकते और भाजपा को खुलकर वोट देते हैं तो इससे ही मानसिकता का पता चलता है। बंदूकों के साये में जान जोखिम में डालकर वोट डालना और वह भी तब जब नक्सली वोट डालने से मना करें तो इस साहस को सिर्फ सलाम किया जा सकता है।

छत्तीसगढ़ के लोग विनम्र हैं, सज्जन हैं तो वे अपनी तरह का ही नेता पसंद करते हैं। वे किसी ऐसे आदमी को पसंद नहीं कर सकते जो मुख्यमंत्री को लबरा मुख्यमंत्री कहे। सज्जनता की चादर को तार तार कर दे। सोनिया दाई का नाम लेकर सब कुछ करने की आजादी चाहे। मुख्यमंत्री ने तो चुटकी ली थी कि सोनिया और राहुल ने शोक प्रकट नहीं किया। निश्चित रूप से संवेदना जताने की कोई होड़ नहीं हो रही है लेकिन संवेदना प्रगट करना ऐसे समय पर लोकाचार है। बहुत से काम लोकाचार में करने पड़ते हैं। लोकाचार न हो तब ऐसे प्रश्न खड़े होते है।

नक्सलियों ने 76 जवानों की नृशंस हत्या कर दी। केंद्र सरकार के अधीन है, सीआरपीएफ। जवानों की शिकायत है कि उन्हें वर्षों से वर्दी नहीं मिली। उनकी वर्दी फट गयी है। उन्हें राशन नहीं मिल रहा है, ठीक से। वे आम की चटनी और रोटी खा रहे हैं। यह काम उनके ही बड़े अफसरों का है। किस कारण से इन जवानों की हत्या हुई, इसकी जांच भी गृहमंत्री करवा रहे हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार में अच्छा समन्वय है। गल्तियां इसलिए नहीं ढूंढी जा रही है कि किसी को सजा दी जाए बल्कि इस लिए ढूंढी जा रही है कि भविष्य में ऐसी गल्तियां न हो। यह कहना कि हजारों जवानों और आदिवासियों की हत्या नक्सलियों ने कर दी, इसलिए राज्य सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए। यदि राज्य सरकार इस्तीफा दे दे तो क्या नक्सली समस्या हल हो जाएगी। केंद्रीय गृहमंत्री तो आरोप नहीं लगा रहे हैं नकि राज्य सरकार के असहयोग के कारण नक्सली फल फूल रहे हैं। नक्सली तक कह रहे हैं कि ग्रीन हंट आपरेशन बंद करो। ऐसा कहने के लिए वे क्यों बाध्य हुए? क्योंकि उनका राजपाठ संकट में है। आज गृहमंत्री चिदंबरम का इस्तीफा केंद्र सरकार स्वीकार करती तो इससे नक्सलियों का मनोबल बढ़ता। ठीक उसी तरह से डा. रमन सिंह इस्तीफा दें तो इससे नक्सली ही सबसे ज्यादा खुश होंगे। दूसरे कांग्रेस के वे नेता जो सत्तारूढ़ होने का ख्वाब देख रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि नक्सलियों और कांग्रेसियों को एक सी खुशी डा. रमन सिंह की सरकार को बर्खास्त करने से होगी? चंद नेता भले ही कुछ भी सोचें लेकिन केंद्र सरकार ऐसा नहीं सोचती। यह बड़ी बात है। क्योंकि वह परिस्थितियों से अच्छी तरह से परिचित है।

- विष्णु सिन्हा
15-04-2010

2 टिप्‍पणियां:

  1. sir Bharat congres ke raj me bahut dayniya avastha se gujara aur ab bhi guzar raha hai...par rashtra ko aur koi vikalp bhi to nahi mil raha...
    shaheedon ko naman...

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  2. संवेदनशील मुद्दा। केरल के राज्यपाल की करतूत से देश वाकिफ है। मीडिया भी इस दिशा में सार्थक भूमिका निभा सकता है।

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