यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 18 अप्रैल 2010

बढ़ती गर्मी पूर्वाभास दे रही है कि धरती का भविष्य किस तरफ जा रहा है

थर्मामीटर में पारा थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। उत्तर भारत का अधिकांश क्षेत्र 40 डिग्री को पार कर गया है और 24 शहरों में तो तापमान 45 डिग्री पर पहुंच गया है। राजस्थान के अलवर और महाराष्ट के जलगांव में पारा 47 डिग्री पर पहुंच गया है। छत्तीसगढ़ का भी हाल कुछ ठीक नहीं हैं। बिलासपुर में पारा 45 डिग्री तो रायपुर में पारा 44 डिग्री पहुंच चुका है। अभी अप्रैल माह ही चल रहा है। 12 दिन अप्रैल के बचे है और पूरा मई बचा है। जून में भी मानसून कब आएगा, यह अभी मौसम वैज्ञानिक नहीं बता सकते। बढ़ती गर्मी का अर्थ है पानी की आवश्यकता का बढऩा और गर्मी पानी की दुश्मन है। जलाशयों में इकट्ठा पानी ही जीवन का आखिरी सहारा हैं और वह भी गर्मी के कारण तेजी से भाप बन कर उड़ रहा हैं। भूमिगत पानी तो नीचे और नीचे ही जाता जा रहा है।

रायपुर में ही अधिकांश ट्यूबवेलों ने पानी देना बंद कर दिया है। नगर निगम द्वारा दिया जाने वाला पानी ही जीवन का आधार है। यह पानी भी गंगरेल बांध से आता है जो रायपुर के साथ धमतरी और भिलाई को भी प्रदाय करता है। गांव-गांव में तालाब या तो सूख गए हैं या फिर पानी इतना कम हो गया है कि उपयोग के लायक ही नहीं रह गया है। सरकार जलाशयों से नहरों के द्वारा पानी लाकर तालाबों को भरने का इरादा रखती हैं लेकिन नहरों के द्वारा आने वाला पानी भी या तो जमीन के द्वारा सोख लिया जाता है या फिर सूरज की गर्मी उसे भाप बनने के लिए बाध्य कर देती है। 2 रु. किलो और 1 रुपए किलो में चांवल तो दिया जा सकता है लेकिन उसे भी पकाने के लिए पानी की ही आवश्यकता पड़ती हैं। चांवल न हो तो कहीं से भी लाया जा सकता है लेकिन पानी न हो तो कहां से लाएंगे?

बहुत पहले ही भविष्यवाणी हो चुकी है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। अक्सर खबर आती है कि ब्रह्मपुत्र नदी जो चीन से निकलती है और भारत की सबसे बड़ी नदी है उसका मुंह चीन अपनी तरफ मोड़ रहा है। भारत से निकलने वाली कितनी ही नदियां पाकिस्तान और बंगलादेश जाती हैं। भविष्य इस तरफ इशारा कर रहा है कि जिस भी देश के पास पानी का जो स्रोत होगा, वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसका बहाव दूसरे देश की तरफ जाने से रोकने के लिए बाध्य होगा। ऐसा विश्व भर में हो सकता है। क्योंकि प्राकृतिक रुप से नदियां तो किसी देश की सीमा को पहचानती नहीं और प्रकृति ने ही किसी देश को बनाया नहीं है। वैज्ञानिक चंद्रमा पर राकेट भेजते हैं या मंगल पर तो तलाश पानी की ही करते हैं। क्योंकि अभी तक की वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार बिना पानी के किसी तरह का जीवन नहीं हो सकता।

पृथ्वी में जो विभिन्न रुपों में जीवन है, उसका कारण पानी ही है और प्रकृति से हमारी अंधी महत्वाकांक्षाओं ने विकास के नाम पर ऐसा खिलवाड़ किया है कि संतुलन पूरी तरह से बिगड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग मतलब पृथ्वी गर्म हो रही है। बाहर से ही नहीं अंदर से भी गर्मी बढ़ रही है। वैसे भी पृथ्वी के गर्भ में पच्चीस सौ डिग्री से ज्यादा तापमान है और वहां पिघला हुआ लोहा पानी की तरह बहता है। इसीलिए प्रकृति ने भूगर्भ में ही पानी की व्यवस्था की है। जिससे गर्मी भीतर ही सीमित रहे लेकिन जिस तरह से विगत वर्षों में भूगर्भ से जल का दोहन किया जा रहा है, उससे ठंडा रखने की प्रक्रिया पर प्रभाव पड़ रहा है। यही कारण है कि ज्वालामुखी भड़क रहे हैं। समुद्र में ज्वालामुखी भड़क रहे हैं तो बर्फीले प्रदेशों में भी भड़क रहे हैं और लावा पृथ्वी पर ही नहीं हवा में भी फैल रहा है। विगत कई दिनों से लावे की धूल के कारण इंग्लैंड में हवाई जहाज नहीं उड़ रहे हैं। हीथ्रो हवाई अड्डा कहा जा रहा है कि ज्वालामुखी क्षेत्र से 1600 किलोमीटर दूर है और वहां तक जब प्रभाव पहुंच रहा है तब भविष्य के लिए सिग्नल तो मिल रहा है कि अभी भी वक्त है, मनुष्यों सुधर जाओ।

पृथ्वी से खिलवाड़ बंद करो। जमीन के गर्भ से पेट्रोल, डीजल, गैस सभी कुछ तो निकाल कर पृथ्वी के ऊपर जलाया जा रहा है। बिजली बनायी जा रही है। यह भी गर्मी पैदा करने का बड़ा कारण है। कारखानों की तो पृथ्वी पर बाढ़ ही आ गयी है जो सिवाय गर्मी के पृथ्वी को और कुछ नहीं दे रहे है। हर खनिज पदार्थ जमीन से निकाला जा रहा है। कोयला निकाल कर जलाया जा रहा है। पृथ्वी का आंतरिक संतुलन बिगाड़ा जा रहा है। भूकंप की श्रंखला बढ़ रही है। जो सुनामी का भी कारण बन रही है। ए.सी., फ्रिज जैसे निरंतर छोटे से क्षेत्र को भले ही ठंडा रखें लेकिन ये भी सिर्फ पृथ्वी की गर्मी को ही नहीं बढ़ा रहे हैं बल्कि पृथ्वी को घेरी हुई ओजोन पर्त को भी छेद रहे हैं और अल्ट्रावायलेट सूर्य की नुकसानदेह किरणों को पृथ्वी पर आनेका रास्ता दे रहे हैं। पृथ्वी के साथ जितना अनाचार मनुष्य कर रहा है और स्वयं को विकसित होने का गर्व पाल रहा है, उसका परिणाम भी अंतत: भोगना तो उसे ही है।

सारी दुनिया के हुक्मरान अच्छी तरह से सारी परिस्थितियों को समझते हैं और विश्व सम्मेलन करते हैं लेकिन निर्णय ले नहीं पाते। क्योंकि तथाकथित विकास उन्हें ऐसा करने से रोकता है। जिस स्थिति की कल्पना ये 2035 में कर रहे थे, उसके लक्षण तो 2010 में ही दिखायी देने लगे हैं। भारत में गंगोत्री पीछे तेजी से सरकती जा रही है तो चीन के तिब्बत में भूकंप तबाही ला रहा है। आतंकवाद, परमाणु हथियार जैसी समस्याओं का कोई हल दिखायी नहीं देता। विश्व के हुक्मरान मिलते हैं लेकिन बातें होती हैं। त्वरित उपचार, वह भी ईमानदारी से होता तो दिखायी नहीं पड़ता। दिल्ली में ही कबाड़ी बाजार में कोबाल्ट 60 रेडियोधर्मिता फैलाता है। यह कहां से आया, पता नहीं चलता। फिर दूसरा ऐसा ही कोबाल्ट पकड़ा जाता है। कबाड़ी अस्पताल में पड़े हैं। कहा जा रहा है कि लंबे उपचार की जरुरत है। रेडियोधर्मिता एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भी फैलती है।

फिर भी बिजली जरुरी है तो परमाणु बिजली घर बनाए जा रहे हैं। ये परमाणु बिजली घर कितनी सुविधा देंगे यह अलग बात है लेकिन चूक हुई तो कितनों के प्राण हर लेंगे, इस पर विकास पुरुष चिंता नहीं करना चाहते। एक ऐसा विधेयक संसद से पास होने की प्रतीक्षा कर रहा है कि दुर्घटना होने पर मुआवजे के तौर पर 500 करोड़ रुपए बिजली घर बनाने वाली कंपनी देगी और बाकी मुआवजा भारत सरकार देगी। ये परमाणु संयंत्र भी गर्मी ही पैदा करेंगे। क्या ऐसा नहीं लगता कि आदमी विकास के दुष्चक्र में फंसकर बड़ी कीमत अदा कर रहा है। विज्ञान वरदान के बदले अभिशाप साबित होने की तैयारी कर रहा है। सबसे चिंताजनक तो यह है कि सब जान समझ कर भी विकास के पहिए को तेजी से घुमाने का प्रयास किया जा रहा है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक: 18.04.2010

1 टिप्पणी:

  1. जनसंख्या कम करने के बिल पर सरकार गिर जायेगी, बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन..

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