यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

मध्यप्रदेश में कांग्रेस को सत्ताच्युत करने वाले दिग्विजयसिंह की सलाह पर ध्यान देना बुद्धिमानी नहीं

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कहते है कि नक्सलवाद को कानून और व्यवस्था की समस्या समझना गलत है। वे गृहमंत्री पी. चिदंबरम से सहमत नहीं है। दिग्विजय सिंह से पूछा जाना चाहिए कि जब वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री 10 वर्ष तक थे तब उन्होंने इस समस्या से राज्य को मुक्त क्यों नहीं कराया? तब तो छत्तीसगढ़ भी उनके ही अधीन था। दिग्विजयसिंह के शासन का नतीजा है कि पिछले दो चुनावों में कांग्रेस मध्यप्रदेश में ही नहीं छत्तीसगढ़ में भी हारती रही है। मुख्यमंत्री रहते दिग्विजय सिंह ने प्रण किया था कि यदि वे चुनाव हार गए तो 10 वर्ष तक सरकारी पद ग्रहण नहीं करेंगे। उन्हें अच्छी तरह से पता था कि 10 वर्ष तक तो कांग्रेस मध्यप्रदेश में सत्ता में लौटने वाली नहीं हैं। उन्होंने राज्य की जो दुर्दशा कर रखी थी उससे जनता इतनी नाराज थी कि वह कांग्रेस को सत्ता में वापस देखना किसी भी हाल में पसंद नहीं करती और जनता ने यही किया। तमाम तरह के भाजपा में मध्यप्रदेश में विवाद के बावजूद जनता ने सत्ता भाजपा को ही सौंपी।

नक्सली समस्या भी तो दिग्विजय सिंह सरकार की ही देन कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। दिग्विजय सिंह ने ऐसा कुछ नहीं किया। जिससे नक्सल समस्या कानून और व्यवस्था की समस्या न लगे। जनता के असंतोष की समस्या लगे। यदि यह कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है तो इसका अर्थ होता है कि यह राजनैतिक समस्या है। यह राजनैतिक समस्या है तो पिछले 30-40 वर्षों में कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने इस समस्या को हल क्यों नहीं किया? छत्तीसगढ़ के पूर्व कांग्रेसी अजीत जोगी ने तो कहा था कि आदिवासियों के लिए सरकारों ने जो खर्च किया, वह सीधे-सीधे आदिवासियों को ही बांट दिया जाना तो प्रत्येक के हिस्से में 2 करोड रुपए आते। ऐसा हो नहीं पाया तो दोषी कौन है? आज जो समस्या स्पष्ट
रुप से कानून और व्यवस्था की समस्या बन गयी है, उसका दोष भी तो कांग्रेस के ही माथे पर है।

आंध्रप्रदेश में नक्सलियों को नियंत्रित किया गया तो ग्रेहाऊंड सशस्त्र बल बना कर। धीरे-धीरे नक्सलियों के प्रभाव के क्षेत्र को मुक्त कराया आंध्रप्रदेश सरकारों ने। पश्चिम बंगाल को भी नक्सलियों से कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने मुक्त कराया था तो बंदूक के दम पर। पंजाब से आंतकवाद का सफाया किया गया तो वह भी बंदूक के ही दम पर। आज गृहमंत्री पी.चिदंबरम दोनों तरफ से मुकाबला कर रहे हैं। एक तरफ नक्सली है तो दूसरी तरफ कांग्रेसी। नक्सलियों के विरुद्ध ग्रीन हंट आपरेशन ममता बेनर्जी और नीतीश कुमार को पसंद नहीं है तो उसका कारण उनके प्रदेशों में निकट भविष्य में होने वाला चुनाव है लेकिन दिग्विजय सिंह और छत्तीसगढ़ के चंद कांग्रेसियों की राय अलहदा है चिदंबरम से तो उसका कारण भी स्पष्ट है। यदि कल को नक्सल समस्या से क्षेत्र मुक्त हो गया तो श्रेय के हकदार चिदंबरम बनेंगे। यहां तक तो ठीक है। क्योंकि कांग्रेसी गृहमंत्री को श्रेय मिले तो कांग्रेस इसका लाभ राजनैतिक रुप से उठा सकती है लेकिन श्रेय साथ ही डॉ. रमन सिंह को भी मिले तो यह सिद्ध होगा कि कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की तुलना में भाजपा का मुख्यमंत्री अधिक योग्य है। उसकी सोच ज्यादा कारगर है।

दिग्विजय सिंह की टिप्पणी पर कांग्रेस प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने आपत्ति प्रगट की है। सार्वजनिक रुप से बयान को उन्होंने गलत बताया है। कांग्रेस का महासचिव यदि सरकारी नीति के विरुद्ध कोई बयान देता है तो इससे पार्टी की ही छवि खराब होती है। जनार्दन द्विवेदी का स्पष्ट कहना है कि लोकतांत्रिक देश में अपने निजी विचार व्यक्त करने का अधिकार सभी को है लेकिन सार्वजनिक रुप से विचार व्यक्त करने के बदले पार्टीफोरम में विचार व्यक्त करना चाहिए। दिग्विजयसिंह यह पहली बार कह रहे हैं, ऐसा भी नहीं। पहले भी मायावती के विरुद्ध वे जोश में कह बैठे थे कि उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि सीबीआई उनके पास है। आजमगढ़ मे जाकर आतंकवादियों के पक्ष में बोलकर वे वोट बैंक बटोर रहे थे। जो शख्स मध्यप्रदेश में पूरी तरह से असफल हो गया, उसे उत्तरप्रदेश का इंचार्ज बना कर कांग्रेस कुछ प्राप्त तो कर नहीं सकेगी लेकिन राहुल गांधी के अथक प्रयासों को किसी मोड़ पर दिग्विजय सिंह के कारण नुकसान हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। जो व्यक्ति अपने छोटे भाई को कांग्रेस से भाजपा में जाने से नहीं रोक सका, वह जनता को कैसे कांग्रेस के पक्ष में कर सकेगा?

फिर खबर है कि आजकल उत्तरप्रदेश प्रभारी के रुप में ये राहुल गांधी के भी प्रमुख सलाहकार हैं। उनसे सतर्क रहने की जरुरत है। छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद जब दिग्विजयसिंह छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री चुनवाने आए थे तब उनके साथ कांग्रेसियों ने ही जो व्यवहार किया था, वही काफी है, समझने के लिए कि उनका कांग्रेसियों पर कैसा प्रभाव है? आश्चर्य तब होता है जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस के पतन के लिए जिम्मेदार व्यक्ति गृहमंत्री को सलाह देने लगता है। गृहमंत्री की खुलेआम आलोचना करने लगता है। क्या उसे इसका अधिकार कांग्रेस ने दिया है? अभी भी समय है। कांग्रेस आलाकमान को दिग्विजय सिंह से सावधान रहने की जरुरत है। ये अपने राजनैतिक गुरु अर्जुनसिंह के नहीं हुए तो ये किसके हितैषी हो सकते हैं।

चिदंबरम और डॉ. रमन सिंह दृढ़ प्रतिज्ञ दिखायी दे रहे है। नक्सली जब युद्ध थोप रहे हैं तब उनसे लडऩे के सिवाय चारा क्या है? इस देश में समस्याओं को हल करने की क्षमता रखने वाले नेता हैं तो राजनैतिक लाभ के लिए समस्या को खड़ा करने वाले नेता भी हैं। जिन्हें समस्या सत्ता प्राप्त करने का साधन दिखायी देता है। कितनी अच्छी बात कहते हैं कि गोली पुलिस की चले या नक्सली की, लगनी भारतीय नागरिक को है। पुलिस, नक्सली, नागरिक सभी भारतीय हैं। कोई संविधान और कानून के अनुसार चलता है और कोई अपना संविधान या कानून चलाना चाहता है। किसी के लिए कानून सर्वोच्च है और कोई कानून की धज्जियां उड़ा रहा है। फिर भी धज्जियां उड़ाने वाला, हजारों लोगों का कत्ल करने वाला कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। इस तरह से यदि दृष्टि और दर्शन निर्मित किया जाएगा तो फिर जेल में बंद तमाम अपराधियों को भी छोड़ देना चाहिए। क्योंकि सभी के पास उनकी दृष्टि में अपराध के लिए जायज कारण हैं परंतु कानून ऐसे कारणों को नहीं मानता और अपराध सिद्ध होने पर सजा देता है।

पुलिस तो नक्सलियों को सीधे गोली नहीं मारती। पहले पकडऩे की कोशिश करती है। गोली तो चलाने के लिए पुलिस तभी बाध्य होती है जब नक्सली गोली चलाते हैं। उसे आत्मरक्षा में गोली चलाना पड़ता है। नक्सलियों की तरह पुलिस भी कानून की परवाह न कर गोलियां ही सिर्फ चलाए तो कोई नक्सली पकड़ा न जाए बल्कि सीधा मार दिया जाए। गृहमंत्री ने ही नक्सलियों के पुनर्वास की घोषणा की है। हथियारों तक को जमा करने पर उसकी कीमत तक देने की बात की है। जो आत्मसमर्पण करेंगे, उन्हें मासिक धन दिया जाएगा। यह नक्सल समस्या का सामाजिक पहलू है। दूसरा पहलू कानून व्यवस्था का है और नक्सली हिंसा ही करने पर उतारु होंगे तो जवाब तो देना ही पड़ेगा। एक असफल व्यक्ति की सलाह पर कान देने की जरुरत नहीं समझना चाहिए, सरकार को।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 15.04.2010

3 टिप्‍पणियां:

  1. दिग्विजय से आपने अच्छा सवाल पूछा है। दूसरों पर तो लोग बहुत तेज हो जाते हैं। दरअसल बात ये है कि इस तरह के नेता समस्या का सही मायने में समाधान नहीं चाहते। यही वजह है कि नक्सलवाद पर भी राजनीति हो रही है।

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  2. दिग्विजय सिंह भले ही म.प्र की सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया हो लेकिन हकीकत में वह म.प्र. की सक्रिय राजनीति से दूर गए ही नही।

    साथ ही वह प्रदेश में अपनी पकड बनाए रखने के लिए कुछ ना कुछ करते रहते है,इंदौर में शराब रेस्टोरेंट का उदघाटन हो या फिर किसी को थप्पड मारना...

    असल में चर्चा में बने रहना उनकी आदत है।

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