किसी और क्षेत्र में हों या न हों लेकिन बच्चे पैदा करने के मामले में हम
आगे होंगे। अभी भी हम दुनिया में आबादी के मान से चीन से थोड़ा ही पीछे
हैं। चीन ने तो आबादी के मामले में कड़ा नियंत्रण लगा रखा है। अभी उसकी
जनसंख्या 134.5 करोड़ है और वह 2050 में 141.7 करोड़ हो जाएगा। मतलब 40
वर्षों में उसकी आबादी मात्र 7 करोड़ 20 लाख ही बढ़ेगी। जबकि हमारी आबादी
120 करोड़ से बढ़कर 162 करोड़ के आसपास हो जाएगी। साफ मतलब है कि आबादी
हमारी 40 वर्षों में 42 करोड़ बढ़ जाएगी। क्या यह आंकड़े भारतीयों के लिए
गर्व की बात है? या गरीब देश के लिए और बुरे समय का संकेत है। हमारी वोट
की राजनैतिक व्यवस्था इस तरह की है कि कोई भी राजनैतिक पार्टी इस
संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा करने के लिए भी तैयार नहीं है। आपातकाल के
दौरान संजय गांधी के नेतृत्व में जो परिवार नियोजन का कार्यक्रम जोर
जबरदस्ती से चलाया गया था और उसके राजनैतिक परिणाम कांग्रेस के विरुद्ध
गए थे, उसके बाद किसी ने भी इस मुद्दे पर कड़ाई बरतने वाले कानून बनाने
की तो सोची भी नहीं।
स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने तो पिछले दिनों स्पष्ट किया है कि
सरकार इस मामले में कोई कठोर कदम उठाने का इरादा नहीं रखती। सभी राजनैतिक
पार्टियों को सत्ता चाहिए और सत्ता तभी मिल सकती है जब अधिक से अधिक लोग
उसके पक्ष में हों। धर्म, जाति, भाषा के आधार पर मतदाताओं का वर्गीकरण
करने वाले और उससे लाभ उठाने वालों की सोच का दायरा तो अधिक संख्या के
मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के दायरे में घूमता है। परोक्ष रुप से
भले ही कोई न कहे लेकिन अपरोक्ष रुप से तो जनसंख्या के विस्तार में ही
बहुतों को अपना हित दिखायी देता है। जनगणना चल रही है तो जातिगत आधार पर
जनगणना का जो समर्थन कर रहे हैं, उनका मूल उद्देश्य क्या है? जाति की
जनसंख्या जान कर उनका कौन सा हित सधेगा? जिसकी जितनी जनसंख्या उसे उतना
आरक्षण। इस सोच के पीछे जनसंख्या का विस्तार और भी ज्यादा विस्तार पाएगा।
बहुसंख्यकों से मुकाबला करना है तो अल्पसंख्यक भी अपनी जनसंख्या बढ़ाएं।
पिछड़ों की जनसंख्या सबसे ज्यादा है, इसलिए उनको नौकरी, राजनीति में
आरक्षण मिलना चाहिए। आरक्षण का मुख्य उद्देश्य कमजोर, वंचित को आगे लाने
के बदले जब जाति, धर्म के आधार पर हो तब जनसंख्या को बढऩे से रोकने की
बात कौन करेगा?
जहां तक बढ़ती जनसंख्या का प्रश्र है तो भारत भूमि रोज कम पड़ती जाएगी।
शहरों में आबादी जिस तरह से गांवों से पलायन कर आ रही है रोजगार की तलाश
में तो उससे शहरों का विस्तार हो रहा है और आसपास की कृषि भूमि भी रहवासी
इलाके में तब्दील हो रही है। पेट बढ़ रहे हैं तो खाद्य सामग्री की
आवश्यकता भी बढ़ रही है। फिर खाने से ही तो काम नहीं चलता, सबको सब कुछ
चाहिए। आगे बढऩा है तो रोजगार में वृद्धि होना चाहिए। रोजगार में वृद्धि
होना है तो शिक्षा का समुचित प्रबंध होना चाहिए। बढ़ती महंगाई बढ़ती
जनसंख्या के लिए खतरनाक स्थिति का निर्माण करेगी। सस्ता क्या है? न तो
भोजन और न ही पानी और न ही चिकित्सा। शिक्षा भी सस्ती नहीं हैं। अभी 120
करोड़ लोगों का ही जीवन ऐसा सुखमय नहीं है कि 2050 में 162 करोड़ लोगों
का जीवन और सुखमय हो सकेगा।
आने वाले 40 वर्षों में 42 करोड़ लोग और पैदा होंगे। 42 करोड़ ही पैदा
नहीं होंगे, इससे बहुत ज्यादा पैदा होंगे। क्योंकि यह बढ़ी हुई संख्या तो
उन लोगों को घटाकर होगी जो 40 वर्षों में मर जाएंगे। अभी जो लोग 35 से 40
वर्ष के बीच की आयु के हैं, इनमें से अधिकांश लोग तो जिंदा रहेंगे नहीं।
क्योंकि इनकी आयु 75 से 80 वर्ष की हो जाएगी। तब 162 करोड़ लोगों का
बुजुर्गों के साथ क्या व्यवहार होगा? निश्चित रुप से औसत आयु बढ़ रही है।
बुजुर्गों की संख्या में इजाफा हो रहा है। 30-40 करोड़ बुजुर्गों को
पालना क्या शेष जनसंख्या पर भारी नहीं पड़ेगा। निश्चित रुप से देश से
जनसंख्या का रोटी रोजगार की तलाश में दूसरे देशों में पलायन बढ़ेगा। जायज
रुप से तो आज ही बहुत सारे देश अपने देश में विदेशियों का आना पसंद नहीं
करते। तब दुनिया भर में भारतीयों की बढ़ती आबादी सभी के लिए चिंता का
कारण बनेगी। क्योंकि नाजायज रुप से भी पलायन होगा।
उन लोगों को तो एक बार ठिकाना भी मिल सकता है जो योग्य हैं, गुणी हैं,
उपयोगी हैं लेकिन जब स्थानीय लोगों को लगेगा कि हमारे लिए ये खतरा बन रहे
हैं, तब स्थिति जगह-जगह संघर्ष की बनेगी। अभी भारत के पास खनिज संपदा है।
जो नित्य जमीन के अंदर से निकाली जा रही है। आने वाले 40 वर्षों में
संसाधन कम होते जाएंगे। जंगल और पहाड़ भी मनुष्यों से भर जाएंगे। पानी की
आज ही कमी महसूस की जा रही है। कितने ही प्रदेशों की जनसंख्या आज भी कई
देशों से ज्यादा है। वैसे भी चिकित्सा विज्ञान की तरक्की आयु में तो
वृद्धि कर ही रही है। प्रदूषण बढ़ रहा है और पृथ्वी गर्म हो रही है।
कार्बन डाइ अक्साइड उत्सर्जन में मनुष्य की बढ़ती आबादी की भूमिका भी कम
नहीं है। नए-नए कारखाने, विद्युत उत्पादन सभी तो पृथ्वी को गर्म कर रहे
हैं। जंगल, जानवर कम हो रहे हैं और मनुष्य की आबादी बढ़ रही है। रोजगार
की कमी और बढ़ती बेरोजगारी मनुष्य को अपराध की तरफ भी ढकेल रही है।
उपभोक्ता सामग्री की वृद्धि ने मनुष्य के मन में लालसाओं को बढ़ाया ही
है। पूजीवाद एक तरफ चंद लोगों को अमीर और अमीर बना रहा हैं तो दूसरी तरफ
गरीबी भी बढ़ रही है। रासायनिक खादों के अत्यधिक प्रयोग से भूमि की
उर्वरा शक्ति कम हो रही है तो रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से पैदा
होने वाली फसलें रोग पैदा करने का भी काम कर रही हैं।
मांग और पूर्ति की असमानता भी महंगाई को और बढ़ाएगी। इस बढ़ी आवश्यकता
मिलावट को भी आमंत्रित करती है। मतलब जिंदा रहने के लिए अस्वास्थ्यप्रद
खाद्यान्न का उपयोग करो और बीमार हो तो महंगी चिक्तिसा कराओ। अभी ही देश
में चिकित्सकों की कमी है। फिर इनका दूसरे देशों में पलायन भी जारी है।
गांव में जाने के लिए तो विरले ही तैयार होते हैं। कहीं आतंकवाद की
समस्या है तो कहीं नक्सलवाद की। देश का अधिक धन इन समस्याओं से निपटने पर
खर्च होता है। आज की स्थिति की तुलना 2050 से की जाए जब आबादी 162 करोड़
होगी तब क्या होगा? पेट्रोल, डीजल जैसे पेट्रोलियम पदार्थ तो समाप्त होने
की स्थिति में होंगे। कोयले की खदानें जवाब देने लगेगी। कल्पना की डोर को
आगे खींचा जाए तो भविष्य कोई सुनहरा नहीं दिखायी देता। राजनैतिक
पार्टियां वास्तव में भारतीयों की हितचिंतक हैं तो उन्हें अभी ही विचार
करना चाहिए और हित में कड़े कदम उठाना चाहिए।
काश्मीर ही की समस्या के लिए सर्वदलीय समर्थन नहीं हो पा रहा है। विपक्ष
पीडीपी सर्वदलीय बैठक में सम्मिलित होने के लिए तैयार नहीं है।
प्रधानमंत्री तक के अनुरोध को अनसुना कर दिया गया। ऐसी स्थिति में क्या
सोचा जाए? क्या भविष्य की सोच जरा सा भी इन राजनीतिज्ञों को है? दिखायी
तो नहीं पड़ता।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 12.07.2010
शानदार पोस्ट
जवाब देंहटाएंइसी परिप्रेक्ष्य में,इन दिनों दिल्ली मेट्रो में एक विज्ञापन दिखता है-"भारत से हारने पर चीन में खुशी!"
जवाब देंहटाएंइसी परिप्रेक्ष्य में,इन दिनों दिल्ली मेट्रो में एक विज्ञापन दिखता हैः"भारत से हारने पर चीन में खुशी!"
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