यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

शनिवार, 31 जुलाई 2010

डॉ. रमन सिंह की घोषणा कि अब और उद्योग नहीं तारीफ के काबिल है

जब सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्री नए-नए उद्योग खोलने के लिए उद्योगपतियों को
आकर्षित करने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन देने में एक दूसरे से
प्रतियोगिता करते हैं तब छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा राज्य है जिसके मुख्यमंत्री
डॉ. रमन सिंह विधानसभा में घोषणा करते हैं कि अब और नए उद्योग नहीं। सरकार किसी के भी साथ नए उद्योग के लिए एम ओ यू नहीं करेगी। न तो अब उद्योगों के लिए छत्तीसगढ़ में जमीन है और न ही
खनिज। मात्र 10 वर्ष भी पूरे नहीं हुए हैं, छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए और नए
उद्योगों के लिए जगह नहीं है तो इसका तो यही मतलब होता है कि प्रदेश की
आवश्यकता के अनुरुप उद्योग छत्तीसगढ़ में लग चुके या लग रहे हैं। जब
छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन किया जा रहा था तब इस बात पर भी जोर था कि
पर्याप्त खनिज संसाधन होने के बावजूद क्षेत्र का विकास जैसा होना चाहिए,
नहीं हुआ। इसीलिए छत्तीसगढ़ के लोगों के हित में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य
बनाया जाए।

जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तब प्रदेश की आबादी 2 करोड़ से कुछ अधिक थी। अब
जनगणना हो रही है तो आबादी अधिक से अधिक ढाई करोड़ के आसपास पहुंची होगी।
इसका भी बड़ा कारण बाहर से रोजी रोटी की तलाश में आने वाले लोग हैं
जिन्हें छत्तीसगढ़ में रोटी रोजगार के अवसर दिखायी पड़े। उद्योगों की
बड़ी शृंखला छत्तीसगढ़ में खड़ी हुई लेकिन ईमानदारी से देखा जाए तो
कितने इन उद्योगों के मालिक छत्तीसगढ़ के हैं। इन उद्योगों में कार्यरत
कर्मचारियों और मजदूरों की बड़ी संख्या भी दूसरे प्रदेशों से आयी।
राजधानी रायपुर तक उद्योगों के प्रदूषण से परेशान है। प्रदूषण के विरुद्ध
आंदोलन तक हुए। कई गांवों से उद्योगों का स्थानीय लोगों ने विरोध किया।
एक स्थान पर तो गांववासी इतने उत्तेजित हुए कि हिंसा पर उतर आए। इसमें
कोई दो राय नहीं कि उद्योगों के लिए कृषि भूमि का उपयोग किया गया।
उद्योगों के साथ आवास के लिए भी कृषि भूमि का उपयोग किया गया।
छत्तीसगढ़ का मूल निवासी मुख्यत: कृषि पर ही अपनी जीविका चलाता रहा है।
इसलिए कृषि के प्रति उसका स्वाभाविक प्रेम है और उद्योग स्थापित होना है
तो और कृषि भूमि को खोना पड़ेगा। उद्योगपति भले ही करोड़पति, अरबपति
उद्योगों के कारण बने लेकिन जिस व्यक्ति की जमीन इन उद्योगों के काम आती
है वह तो भूमिहीन हो जाता है। उद्योग आसपास की कृषि भूमि को भी नुकसान
पहुंचाते हैं और स्वास्थ्य के प्रति घातक धूल, धुएं को भी छोड़ते हैं।
इन्हें नियंत्रित करना और लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करना सरकार का
वैसे भी प्रथम कर्तव्य है। विकास की कीमत यदि आदमी के स्वास्थ्य से
चुकानी पड़े तो ऐसा विकास किस काम का। कितने ही लोग इन 10 वर्षों में
कंगालपति से करोड़पति बन गए लेकिन उसकी कीमत भी तो स्थानीय लोगों को
चुकानी पड़ी।

दरअसल अब छत्तीसगढ़ को नियंत्रित विकास की जरुरत है। छत्तीसगढ़ का आम
आदमी तो वैसे भी प्रारंभ से ही संतोषी जीव रहा है। शांति उसका स्वभाव रहा
है। विकास ने जमीन की कीमतों में पर्याप्त इजाफा किया। फिर भी दूसरे
प्रदेशों से छत्तीसगढ़ में कृषि भूमि की कीमत बहुत कम है। इसका भी फायदा
उठाने से लोग नहीं चूके और दूसरे प्रांतों से आकर कृषि भूमि पर भी लोग
काबिज होने लगे। छत्तीसगढ़ से छत्तीसगढवासियों का पलायन आज भी जारी है।
जो भूमि दूसरे प्रदेश के लोगों को जीवन यापन का अवसर देती है, वह अपने ही
माटी पुत्रों को पलायन के लिए बाध्य करती है तो यह अच्छी स्थिति नहीं है।
बड़े बड़े निर्माण कार्य प्रदेश के बाहर के ठेकेदारों ने लिया तो वे अपने
साथ अपने प्रदेश से तकनीकी जानकार ही नहीं मजदूर भी लेकर आए।
यह प्रश्र आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों अवश्य छत्तीसगढ़ी जनता के
मन में खड़ा होगा कि छत्तीसगढ़ राज्य बनने का वास्तविक लाभ किसे हुआ?
क्या जिस उद्देश्य से छत्तीसगढ़ पृथक राज्य की मांग उठी थी, वह उद्देश्य
पूरा हुआ? 10 वर्षों में धन भी छत्तीसगढ़ में खूब बरसा लेकिन धन गया
किसकी तिजौरी में? छत्तीसगढ़ के पानी, खनिज, जमीन सभी का लाभ कौन उठा रहा
है? क्या गरीबों को 2 रु. और 1 रु. किलो चांवल दे देने से ही कर्तव्य की
इतिश्री हो गयी? 25 हजार करोड़ के बजट में से 1 हजार करोड़ रुपए इन
गरीबों के बीच बंटा भी तो कोई अहसान तो नहीं किया गया। 55 सड़कें बिना
डब्ल्यू.बी.एम. के ही बनायी तो धन किसकी जेब में गया। ठेकेदार को 3 करोड़
के बदले 8 करोड़ रुपए का भुगतान किया गया तो धन जनता के खजाने से ही दिया
गया। उद्योगपति अपने कोटे से ज्यादा पानी का उपयोग कर रहे हैं तो पानी
किसके हिस्से का मारा जा रहा है? प्रश्रों की कोई कमी नहीं हैं। दरअसल
व्यवस्था और धन लोभियों की अतृप्त इच्छा का ही यह सब खेल है।
जहां तक व्यवस्था के दोष का संबंध है तो यह डॉ. रमन सिंह की सरकार की देन
नहीं हैं। देन तो 63 वर्ष में जो ढांचा व्यवस्था का खड़ा हुआ, उसकी देन
हैं। डॉ. रमन सिंह तो उसे सुधारने का अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर रहे
हैं। प्रशासन, शासन की तैयारी भी की जा रही है कि कागज विहीन व्यवस्था
हो। जिससे मुख्यमंत्री की हर जानकारी तक सीधे पहुंच हो और अकर्मण्यता और
लापरवाही के लिए बहानों की जरुरत न हो। इसलिए उद्योगों के नए दरवाजे बंद
किए जा रहे हैं। जिससे जो हैं, वे पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में हो।
आज जो स्थिति है, यही सही ढंग से फले फूलेगा तो छत्तीसगढ़ निश्चित रुप से
विकास और संपन्नता के नए अध्याय लिखेगा।

अनियमितताओं, कर चोरी सभी पर तो नियंत्रण की आवश्यकता है। छत्तीसगढ़ लूट
मार की ऐसी जगह के रुप में नहीं प्रचारित होना चाहिए, यहां जो भी करो कोई
देखने वाला नहीं। कानून का शासन हो और कानून का पालन करने वालों को सरकार
का पूरा संरक्षण मिले। किसी भी तरह के भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं। कल ही
एक मंत्री की कार का भी यातायात पुलिस ने चालान किया। शुरुआत बड़े लोगों
से ही होना चाहिए। जब बड़े नियम कायदे का पालन करेंगे तो छोटे खुद ही समझ
जाएंगे कि कानून का उल्लंघन किया तो खैर नहीं। जब मंत्री की कार का चालान
कर पांच सौ रुपए जुर्माना किया जाता है तो इससे सरकार की छवि जनता के मन
में अच्छी बनती है। कोई भी सरकार हो, उसका भविष्य इसी बात पर निर्भर करता
है कि उसकी छवि जनता के मन में किस प्रकार की है।

निस्संदेह डॉ. रमन सिंह की छवि अभी तक तो जनता के मन में अच्छी है।
केंद्र सरकार और योजना आयोग कहता है कि किसानों को मुफ्त बिजली देने का
काम राज्य सरकार न करे। क्योंकि इससे अधिक बिजली खर्च होती है और धन का
अपव्यय होता है। दरअसल केंद्र सरकार लोक लुभावन योजनाओं के ही पक्ष में
नहीं है लेकिन डॉ. रमन सिंह ने लोक लुभावन योजनाओं की प्रदेश में
शृंखला ही खड़ी कर रखी है। यह कहना कि अब हमें और उद्योगों के लिए
एम.ओ.यू. की जरुरत नहीं है, बड़ी बात है। मुख्यमंत्री निश्चय ही इसके लिए
तारीफ के हकदार हैं।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 30.07.2010
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