यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

हिंसा का रास्ता अंतत: तो मौत की तरफ ही जाता है फिर आजाद के मरने पर विलाप क्यों ?

नक्सली बौखला गए हैं। अपने नेता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की मौत ने
उन्हें बौखला दिया है। नक्सली नेता किशनजी कह रहे हैं कि वे आजाद की मौत
का बदला लेकर रहेंगे। समाचार यह भी है कि आंध्र और उड़ीसा सीमा पर बड़ी
संख्या में नक्सली इकट्ठा हो रहे हैं और किसी बड़ी घटना को वे अंजाम दे
सकते हैं। अपना, अपना ही होता है। अपने की मौत दिल में दर्द पैदा करती
है । कल तक जवानों की हत्या कर नक्सली प्रसन्न होते थे, वे आज अपने नेता
आजाद की मौत पर विलाप कर रहे हैं। वे गृहमंत्री चिदंबरम को दोषी करार दे
रहे हैं। कह रहे हैं कि आजाद का इनकाउंटर चिदंबरम की जानकारी में किया
गया। आजाद को नागपुर में पकड़ा गया और आंध्र में लाकर मार दिया गया। यदि
आजाद का इनकाउंटर गलत है नक्सलियों की नजर में तो उन सैकड़ों लोगों की
हत्या जो नक्सलियों ने की, वह सही कैसे हो सकता है ?
हत्या मात्र गलत है। यह बात सबसे पहले तो नक्सलियों को ही समझना चाहिए।
हिंसा किसी भी समस्या का हल नहीं है। नक्सली सशस्त्र बल के जवानों की
हत्या करते हैं, मुखबिरी के नाम पर निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं तो
उसे वे भले ही जायज समझें लेकिन आम आदमी तो जायज नहीं समझता। यही कारण है
कि नक्सलियों के प्रति आम नागरिकों की किसी तरह की सहानुभूति नहीं है।
आजाद की मौत के बाद एक नक्सली डिप्टी कमांडर ने अपनी पत्नी के साथ आत्म
समर्पण कर दिया। किशनजी या कोई भी नक्सली नेता यदि यह समझता है कि वह
ताकत के बल पर सरकारों को झुका सकता है तो यह सिर्फ गलतफहमी के सिवाय कुछ
नहीं है। नक्सली वायुसेना से कहते हैं कि वह भारतीयों के विरुद्ध युद्ध न
करें। नक्सली ऐसे ही भारतीय हैं तो वे भारतीयों को क्यों मार रहे हैं?
जिस बात की आकांक्षा वे दूसरों से रखते हैं, उस बात से वे कितने
सिद्धांतत: सहमत है। नक्सली हिंसा का रास्ता न अपनाएं तो किसी भी सेना या
सशस्त्र बल को उनके विरुद्ध हथियार उठाने की क्या जरुरत है?
गोली किसी को पहचानती नहीं। वह यह थोड़े ही देखती है कि किसके शरीर में
घुसना चाहिए और किसे बख्श देना चाहिए। वह सशस्त्र बल के जवान के सीने पर
लगती है तो वही असर करती है जो वह नक्सलियों के सीने पर लगती है। यह भी
नहीं कि वह किसी को कम पीड़ा देती है और किसी को ज्यादा। पीड़ा का
संबंध तो लगने वाला ही जानता है या फिर उससे संबंधित लोग। जो अपनों को
खोने की पीड़ा को भोगते हैं। मनुष्य जाति में यह तो सर्वमान्य सत्य है कि
किसी को भी किसी की जीवन लीला समाप्त करने का अधिकार नहीं है। जब कोई
किसी की जीवनलीला समाप्त करता है तो वह अपने जीने का अधिकार भी खो देता।
कल एक आजाद को अपना जीवन गंवाना पड़ा। आने वाला कल और किस किस के लिए काल
बन कर आएगा, कौन जानता है? जब बंदूक से लड़ोगे तो बंदूक से ही मरने के
लिए तैयार रहना चाहिए। शिकायत करने, न्याय मांगने का अधिकार तो उसे है जो
देश के मान्य कानूनों को मानता है। कानून के अनुसार अपना जीवन व्यतीत
करता है। जो कानून को ही नहीं मानते और अपना कानून स्वयं का चलाना चाहते
हैं, उन्हें नैतिक अधिकार नहीं है कि वे आजाद की मौत को गलत बताएं।
आजाद कोई मानवाधिकारवादी नहीं था। वह विगत कई वर्षों से नक्सली था। आंध्र
के पूर्व मुख्यमंत्रियों की हत्या के प्रयास का भी आरोप उस पर था। वह
अपने प्रयास में सफल हो जाता और किसी मुख्यमंत्री की हत्या कर देता तो
नक्सलियों की दृष्टि में वह अपराधी नहीं होता बल्कि हीरो होता। सरकारों
ने उसे जिंदा या मुर्दा पकडऩे के लिए 12 लाख का ईनाम घोषित किया था। इसी
से पता चलता है कि शांति प्रिय समाज में उसकी क्या हैसियत थी? जो लोग रेल
पटरियों को उड़ा देते हैं और निर्दोष यात्रियों की जान ले लेते हैं,
उन्हें पता भी हैं कि मारे गए परिवार के लोगों पर क्या बीतती है? उनका
दुख आजाद की मौत से किसी भी मायने में कम नहीं होता बल्कि अधिक ही होता
है। क्योंकि वे एकदम निर्दोष लोग है और दूसरों की लड़ाई का परिणाम भोगने
के लिए वे मजबूर किए जाते हैं। आज नक्सल प्रभावित क्षेत्र के लोग किस
मानसिक स्थिति में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, यह नक्सलियों की सोच का
विषय नहीं है। नक्सलियों में संवेदना होती है तो इंसान की मौत को मौत की
ही दृष्टि से देखे। गला रेत देना, फांसी पर लटका देना, डंडे से पीट-पीट
कर मार डालना ऐसे कृत्य हैं जो कोई हृदय हीन व्यक्ति ही कर सकता है। एक
संवेदनशील इंसान तो कुत्ते को भी पत्थर नहीं मार सकता। इंसानों को नृशंस
तरीके से मारने के विषय में सोचने से ही उसे घबराहट होती है।

केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अभी भी नक्सलियों के प्रति सहानुभूति
दिखाने को तैयार हैं। वे हथियार छोड़ दें और मुख्यधारा में आ जाएं। खून
खराबे से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। आखिर आपस में भारतीय ही भारतीय से
लड़ रहे हैं। दांया हाथ बाएं हाथ से लड़े तो हासिल क्या होगा? यह सोचना
कि जो हम सोचते हैं, जो हम करते हैं, वही सही है। इससे मिथ्या और कुछ
नहीं। जिन देश में इतनी विभिन्नताओं के साथ एकता है तो वह हिंसा के कारण
नहीं है। न ही किसी एक विचारधारा के कारण है। कितने धर्म, कितनी जातियां,
कितनी भाषा, कितने रीति-रिवाज के बावजूद देश में समरसता है तो वह विभिन्न
विचारधाराओं के बावजूद है। सिर्फ एक तत्व हिंसा ऐसा है जिससे सहमति नहीं
है। यहां तक कि अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के लिए भी मुख्य आंदोलन
अहिंसा पर ही आधारित था। हिंसा क्रूर लोगों के लिए मायने रखती होगी लेकिन
सुसंस्कृत कौमें हिंसा पर विश्वास नहीं करती।

देश में समस्याओं की कमी नहीं है। आज देश का आम नागरिक महंगाई से त्रस्त
है लेकिन इसके लिए कोई भी पसंद नहीं करेगा कि हिंसा को हथियार बनाया जाए।
सरकार के विरुद्ध जनता में महंगाई को लेकर गुस्सा है लेकिन इसका यह मतलब
नहीं है कि लोग नक्सलवाद की तरफ आकर्षित हैं। बंद, धरना, हड़ताल जैसे
शांतिपूर्वक तरीके से सरकार की नीतियों का विरोध हो रहा है। सरकार फिर भी
नहीं समझी तो जनता बर्दाश्त करेगी और चुनाव के अवसर का इंतजार करेगी।
चुनाव होगा तो जनता सरकार को उखाड़ फेकेगी। स्वतंत्र भारत में यह हो
चुका है। एक बार सरकार ने आपातकाल लगा कर जनता के अधिकारों में कटौती की
थी। नेताओं को जेल में बंद कर दिया था लेकिन जनता ने मतदान के द्वारा
सरकार को बर्खास्त कर दिया था। हिंसा तो अंतिम माध्यम है। जब कोई भी
माध्यम काम न आए लेकिन ऐसी स्थिति भारत में तो कम से कम नहीं है। अभी भी
मौका है। हथियार छोड़ो और देश की मुख्यधारा में आकर अपनी बात करो। यदि
वास्तव में जनता के प्रति ईमानदारी का भाव है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 05.07.2010
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1 टिप्पणी:

  1. काश,अपनों की मौत के बाद भी इन्हें औरों की हत्या का दर्द समझ में आ सके!

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