यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 5 जुलाई 2010

जनता को महंगाई रुपी कसाई के सामने सरकार ने निहत्था छोड़ दिया है

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने अर्थशास्त्र के ज्ञान से दुनिया भर को
प्रभावित कर रहे हैं। पिछले दिनों दुनिया के गिने-चुने देशों के सम्मेलन
को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि सरकारों को लोक लुभावन कार्यक्रमों
से बचना चाहिए। जिसका सीधा अर्थ है कि जनता को बाजार के भरोसे छोड़ देना
चाहिए। देश में पेट्रोल को उन्होंने बाजार के भरोसे छोड़ दिया और डीजल को
भी शीघ्र ही बाजार के भरोसे छोड़ देने की बात पत्रकारों से हवाई जहाज पर
मनमोहन सिंह ने किया। महंगाई की मार से बेहाल देश की जनता को स्पष्ट
संदेश है केंद्र सरकार का कि वह महंगाई के मामले में राहत देने का कोई
इरादा नहीं रखती। जिन जिन आवश्यक वस्तुओं में अभी तक सब्सिडी दी जाती
रही, वह भी भविष्य में खत्म कर दी जाएगी। दरअसल महंगाई के बावजूद जिस तरह
से मनमोहन सिंह और कांग्रेस को पिछले चुनाव में सफलता मिली और कांग्रेस
की सीटों में इजाफा हुआ, उससे सरकार ने नतीजा निकाल लिया है कि वह जो भी
कष्ट जनता को दे, जनता उसे ही समर्थन देने वाली है।
दिल्ली में भव्य हवाई अड्डे का उद्घाटन आज मनमोहन सिंह ने किया।
कामनवेल्थ गेम भी होने जा रहा है। यह सब सूचक है, देश के विकास का। आखिर
दुनिया भर से लोग आएंगे तो भारत की तरक्की देख कर चकाचौंध तो होंगे ही।
स्वाभाविक है कि मनमोहन सिंह और उनकी सरकार की वाहवाही होगी। कोई यह
देखने थोड़े ही आ रहा है कि इस चकाचौंध की कीमत भारत की जनता किस तरह से
चुका रही है। शांत, धैर्यवान भारतीय जनता की राजनीति परीक्षा ले रही है।
शायद कहीं न कहीं यह सोच भी काम करती है कि जो जनता वर्षों गुलाम रह सकती
है, वह प्रजातंत्र के नाम पर भी हर तरह का अन्याय बर्दाश्त कर सकती है।
सरकारी अधिकारियों,कर्मचारियों की वेतन वृद्धि और साथ में महंगाई भत्ता,
व्यापारियों का बढ़ता कारोबार इन्हें तो महंगाई से कोई नुकसान नहीं बल्कि
इनकी आय में ही इजाफा होता है। जहां तक जनप्रतिनिधियों का प्रश्र है तो
अपना वेतन भत्ता वे स्वयं बढ़ा लेते हैं। कभी सांसदों को ढाई सौ रुपए
मासिक वेतन मिलता था। आज 16 हजार रुपए मिल रहा है। जिसे अस्सी हजार रुपए
करने की तैयारी है। एक बार सांसद या विधायक बन गए तो जीवन भर पेंशन मिलना
भी निश्चित है। जब वेतन बढ़ेगा तो पेंशन भी बढ़ेगा।
यह धन दिया तो आखिर सरकारी खजाने से ही जाएगा। सरकारी खजाने में धन आता
है जनता की जेब से। कभी इंदिरा गांधी ने प्रीविपर्स राजा महाराजाओं के
बंद किए थे। 14 बैंकों का राष्टरीयकरण किया था। नारा था गरीबी हटाओ।
पुराने राजे महाराजे तो समाप्त हो गए लेकिन वर्तमान में जो प्रजातंत्र की
कोख से राजे महाराजे पैदा हो गए हैं, इनको वेतन और पेंशन के रुप में दी
जाने वाली रकम तो उस रकम से कई गुणा ज्यादा है जो राजे  महाराजाओं को
दिया जाता था। आश्चर्य की बात तो यह है कि तमाम तरह के सिद्धांतों के नाम
पर बनी अलग-अलग राजनैतिक पार्टियां भी इस मामले में एक हैं। वामपंथी
अवश्य विरोध करते हैं लेकिन बढ़ा वेतन और पेंशन लेने से इंकार कौन करता
है? कभी कांग्रेस इंदिरा गांधी के शासन काल में गरीबी हटाओ का नारा लगाया
करती थी। उसने 21 सूत्रीय कार्यक्रम भी दिया था लेकिन गरीबी हट गयी क्या?
आज भी देश की आधी आबादी 20 रुपए प्रतिदिन से कम में गुजारा करती है।
गुस्सा अंदर ही अंदर उबल रहा है। पेट्र्रोल, डीजल, रसोई गैस, मिट्टी तेल
के दाम बढ़ा कर केंद्र सरकार ने गुस्से को भड़काया ही है। अब कहा जा रहा
है कि किसानों को डीजल रियायती दर पर दिया जाएगा। कुल खपत का करीब 12
प्रतिशत कृषि कार्य में लगता है। यह तो एक सर्वविदित तथ्य है कि जात,
पात, धर्म से परे देश में बहुसंख्यक आबादी किसानों की ही है। राजनैतिक
पार्टियां किसानों का क्रोध वोट बैंक के कारण झेलने में  सक्षम नहीं हैं।
इसीलिए किसानों को राहत देने की बात की जाती है। सरकार जनता के धैर्य की
परीक्षा ले रही है। यदि महंगाई के इस झटके को भी जनता झेल गयी तो फिर
महंगाई कोई यहीं रुक जाने वाली नहीं है। केंद्र सरकार तो महंगाई का
सीधे-सीधे ठिकरा राज्य सरकारों पर फोड़ती है। अभी भी वह कह रही है कि
राज्य सरकारें टैक्स कम करे। जबकि कांग्रेस  की ही दिल्ली सरकार ने टैक्स
कामनवेल्थ गेम के नाम पर 20 प्रतिशत कर दिया है।
कांग्रेस की सोच का एक पहलू यह है कि जनता के सामने उसका विकल्प नहीं है।
विपक्ष बिखरा हुआ है। कांग्रेस के बाद जो सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी है,
भाजपा उसे सांप्रदायिकता के नाम पर विपक्षी दलों के लिए अछूत बताने के
सभी प्रयास किए जाते हैं। विपक्ष की इस फूट का लाभ कांग्रेस पूरी तरह से
उठाती है। यह खेल इसी तरह से चलता रहा तो जनता के सामने यह स्थिति खड़ी
हो सकती है कि या तो  वह कांग्रेस को झेले या फिर भाजपा की तरफ रुख करें।
भाजपा भी गठबंधन की सरकार 6 वर्षों तक इस देश में चला चुकी है। विकल्प
नहीं है, ऐसा नहीं है। महंगाई की मार इसी तरह से पड़ती रही तो विकल्प
बाबा रामदेव भी हो सकते हैं। बाबा रामदेव का भारत स्वाभिमान आंदोलन भी
धीरे-धीरे विकल्प के रुप में तैयार हो रहा है।
राजनैतिक पार्टियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता जब क्रोधित होती है
तो जेल में बैठे नेताओं को भी वोट डालकर संसद में पहुंचा देती है।
आपातकाल के बाद जनता ने यह चमत्कार किया था। कांग्रेस की सरकार को हटाने
के लिए यह कई बार प्रयोग कर चुकी हैं। बाबा रामदेव भी एक सशक्त विकल्प हो
सकते हैं। क्योंकि जनता के मन की हताशा नया गुल भी खिला सकती है। बाबा
रामदेव पर विश्वास के कई कारण हैं। उनसे किसी तरह का भ्रष्टचार का खतरा
तो जनता को है, नहीं। फिर जनता की सोच कि एक बार बाबा को भी वोट दे देने
में हर्ज क्या हैं?
सबकी और सब तरह की सरकार तो जनता ने देख ली। विकास के नाम पर देश की आधी
से अधिक आबादी को हासिल क्या हुआ? फिर बाबा से राजकाज न भी संभला तो आज
की स्थिति से ज्यादा क्या बिगड़ जाने वाला है? बाबा के योग और आयुर्वेद
से लाभ ही हुआ है। एक बात तो स्थापित राजनीतिज्ञों को सत्ताच्युत किया ही
जाए। यह हवा लोकसभा चुनाव आते तक जनता के मन में घर कर गयी तो असंभव नहीं
है, कुछ भी। क्योंकि आम आदमी आज जो तकलीफ झेल रहा है और उसे जिस तरह से
सरकार संरक्षण देने के बदले बाजार के हवाले कर रही है, उसमें क्रूरता ही
अधिक दिखायी पड़ती है। महंगाई जनता को किसी कसाई से कम तो नहीं दिखायी दे
रही है। ऐसे में असंभव कुछ नहीं। क्योंकि राजनीति संभावनाओं का ही खेल
है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक 05.07.2010
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