यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मुकेश गुप्ता और दीपांशु काबरा ने जो भी काम हाथ में लिया उसमें सफल होकर ही दिखाया

आगे पाठ पीछे सपाट। यातायात पुलिस और नगर निगम ने मिलकर शहर की यातायात
व्यवस्था को सुचारु बनाने के लिए पिछले कई दिनों से मुहिम चलायी। सड़क के
किनारे से खोमचे, ठेले वालों को हटाया गया लेकिन क्या वे हट गए? अभी भी
नगर निगम की नाक के नीचे खोमचे, ठेले लगे देखे जा सकते हैं। पुलिस और नगर
निगम का स्टाफ सड़कों पर निकलता है तो ये हट जाते हैं लेकिन पुलिस के
हटते ही ये फिर अपने पुराने स्थानों पर जम जाते हैं। मालवीय रोड पर ही
कारों, वाहनों का खड़ा करना मना है। जवाहर बाजार में पार्किंग की सुविधा
है लेकिन जब तक यातायात के सिपाही निरंतर इस मार्ग की देखरेख करते रहे तब
तक ही इनका खड़ा होना कठिन था लेकिन जब से इन सिपाहियों के बदले पुलिस
सहयोगी खड़े किए गए हैं तब से बेरोक टोक गाडिय़ां खड़ी हो रही है। लोगों
ने तो तय ही कर रखा है कि हम नहीं सुधरेंगे।

तब पुलिस का 1 माह का कार्यक्रम कोई काम आने वाला नहीं है। निरंतरता
चाहिए। वर्षों की आदत छूटने वाली नहीं है। मालवीय रोड हो या फाफाडीह का
बाजार पुलिस प्रशासन ढीला पड़ा और हालात वैसे ही हो जाते हैं जैसे पुराने
थे। लोग कहने से भी बाज नहीं आते कि नए अफसर आए हैं तो कुछ दिन तक अपनी
उपस्थिति दर्ज कराने के लिए पुलिस की सक्रियता दिखायी देती है। जनता की
ही आदत वर्षों की नहीं है बल्कि पुलिस वालों की भी आदत पुरानी है। जनता
को सही रास्ते पर लाने के पहले पुलिस को सही रास्ते पर लाना जरुरी हैं।
जब तक पुलिस मेन और उनके अधिकारी यह बात नहीं समझेंगे तब तक यह व्यवस्था
भले ही चार दिन की चांदनी लगे लेकिन फिर अंधेरी रात की तरह ही है।
सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। सबसे ज्यादा जरुरी तो यही है कि उच्च
अधिकारी अपने अधीन काम करने वाले कर्मचारियों को सबसे पहले कर्तव्य
परायणता का पाठ पढ़ाएं और देखें कि वे आगे पाठ पीछे सपाट की तरह तो अपने
कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर रहे हैं।

मुकेश गुप्ता जैसे आई जी और दीपांशु काबरा जैसा पुलिस कप्तान होने पर
उम्मीद की जा रही है कि पुरानी व्यवस्था नहीं लौटेगी लेकिन पुलिस की
निष्क्रियता फिर दिखायी तो दे रही है। यह सोचना कि अब व्यवस्था रास्ते पर
आ गयी है, खामख्याली साबित हो रही है। जनता तमाशा देख रही है। कभी सड़कें
एकदम साफ होती है जब पुलिस सक्रिय होती है लेकिन पुलिस निष्क्रिय हो तो
फिर स्थिति पुराने ढर्रे पर आ जाती है। सबसे ज्यादा जरुरी है कि शहर भर
की व्यवस्था एक साथ सुधारने की कोशिश के बदले निश्चित स्थानों की
व्यवस्था मुकम्मल की जाए। किसी भी स्थिति में जो व्यवस्था एक बार कायम हो
जाए, उसे निश्चिंतता प्रदान की जाए। हाईकोर्ट ने खुले आम मांस मटन की
दुकान चलाने पर रोक लगाया था लेकिन आज भी शहर में ऐसा नजारा देखने में
आता है कि सड़क किनारे ही मांस मटन की दुकानें अब तो ठेलों पर लगने लगी
हैं।

फाफाडीह बाजार से इन्हें हटाया नहीं जा सका। जैसे ही पुलिस आती है, ठेले
वाले, मुर्गी वाले गधे के सिर से सिंग की तरह गायब हो जाते हैं लेकिन फिर
पुलिस के जाते ही दुकानें सज जाती है। ऐसा लगता ही नहीं कि पुलिस का कोई
डर भय इन्हें है। साधारण सी बात है कि जो बात राह से गुजरते हर आदमी को
दिखायी देती है, वह पुलिस वालों को क्यों नहीं दिखायी देती? साफ लगता है
कि पुलिस के उच्चाधिकारी जो चाहते हैं, वह काम कनिष्ठ अधिकारियों और
कर्मचारियों की पसंद का काम नहीं है या फिर इन दुकानों से उन्हें अवश्य
कोई न कोई लाभ प्राप्त होता है। दुकानें ही नहीं लगेगी तो लाभ भी नहीं
होगा। शहर के नागरिकों को सड़कों पर चलने में क्या कष्ट होता है और किस
तरह की दुर्गंधों का सामना इन मांस मटन की दुकानों के कारण झेलना पड़ता
है, इससे आम पुलिस वालों का कोई लेना देना नहीं है।

अब तो इन दुकानदारों को नेताओं का भी सहारा मिल रहा है। कल ही खबर है कि
इन ठेले वालों ने प्रदर्शन किया। सरकारें कितनी बार सड़क किनारें लगने
वाले ठेले वालों का व्यवस्थापन कर चुकी लेकिन ये फिर से व्यवस्थित जगह
का मूल्य प्राप्त कर वापस अपनी जगह आ जाते हैं। गरीबों को भी रोटी रोजगार
का अवसर मिलना चाहिए। इस बात में दो राय नहीं हो सकती लेकिन सड़कों को
बाधित कर देना। आम नागरिकों को तकलीफ देना है। इसकी अनुमति किसी भी
कीमत पर नहीं होना चाहिए। पुलिस और नगर निगम ने जब इसका जिम्मा उठाया है
तो उन्हें अपनी जिम्मेदारी पर खरा साबित होकर दिखाना चाहिए। राजधानी जैसे
शहर की ही यातायात व्यवस्था को यदि शासन, प्रशासन, पुलिस सुव्यवस्थित
नहीं कर सकती, जिससे साबका हर किसी का पड़ता है तो फिर वह जनता की नजरों
में चढ़ कैसे सकती है?

मुकेश गुप्ता और दीपांशु काबरा के साथ अजातशत्रु के आने के बाद पुलिस ने
पुराने मामलों में अपराधियों को पकडऩे में सफलता प्राप्त की है। पंडरी
में हवाला व्यापारी की हत्या का मामला भी पुलिस ने सुलझाया है। यह मामला
तो ऐसा था कि लगता था, कभी अपराधी पकड़ में नहीं आएंगे लेकिन पुलिस ने
अपराधियों को पकड़ा, यह बड़ी सफलता है। इसी प्रकार बैंक डकैती के
अपराधियों का भी पुलिस ने पता लगा लिया है। ये ऐसी उपलब्धियां हैं जो
पुलिस के प्रति जनता में विश्वास बढ़ाती है। यातायात व्यवस्था सुगम करने
में पुलिस की सफलता भी बड़ी सफलता ही मानी जाएगी। क्योंकि चंद लोग भले ही
विरोध करें लेकिन आम आदमी को तो सुविधाओं का लाभ मिल रहा है। यातायात
व्यवस्था सुगम होगी तो अपराधियों के लिए भी अवसर कम होंगे। सबसे बड़ी बात
तो भीड़ में गायब होने की सुविधा नहीं मिलेगी।

जब शासन ने मुकेश गुप्ता और दीपांशु काबरा की पदस्थापना की है तो बहुत
सोच समझ कर ही किया है। इनकी योग्यता पर किसी तरह के संदेह का कोई कारण
नहीं है। सिर्फ जरुरत है तो पुलिस प्रशासन को अति सक्रिय करने की। इस
मामले में ये अफसर अपनी जिद पर आ जाएं तो असंभव कुछ नहीं है। मुकेश गुप्ता तो
रायपुर के पुलिस कप्तान भी रह चुके हैं और लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि
अपराधी उनके नाम से भयभीत हो जाते हैं। इनकी सफलता रायपुर के लिए वरदान
सिद्ध होगी।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 27.07.2010
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