यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

सोमवार, 19 जुलाई 2010

कांग्रेस यदि सत्ता में आने का वास्तव में इरादा रखती है तो उसे मोहम्मद अकबर को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहिए

कांग्रेस में संगठन चुनाव की गतिविधियां चल रही हैं। नाम भले ही चुनाव हो
लेकिन वोट डालकर चुनाव तो नहीं कराया जा रहा है। यह बात जरुर है कि जिसकी
जितनी चल रही है, वह उतने अपने कार्यकर्ताओं को पदाधिकारी बनाने की कोशिश
में लगा हैं। नाराजगी भी अभिव्यक्त हो रही है और खास कर वे लोग अंदर ही
अंदर ज्यादा नाराज हैं जिनकी एक समय कांग्रेस में एकतरफा चलती थी।
कार्यकर्ता अच्छी तरह से जानते हैं कि अंतत: पार्टी में चलेगी, किसकी?
बीआरओ और डीआरओ नियुक्ति में एक तरफा चरणदास महंत और मोतीलाल वोरा गुट की
चली है। इसलिए लोग उम्मीद भी कर रहे हैं कि प्रदेश अध्यक्ष जो भी बनेगा,
वह इनकी ही पसंद का व्यक्ति होगा? पसंद का व्यक्ति होना अलग बात है और
ऐसे व्यक्ति को प्रदेश अध्यक्ष बनाना अलग बात है जो दो चुनाव में निरंतर
हारती पार्टी को सत्तारुढ़ पार्टी के मुकाबले में खड़ा कर सके।

महत्वाकांक्षियों की कमी तो है नहीं, पार्टी में। महत्वाकांक्षा रखने
वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि खुदा न खास्ता प्रदेश अध्यक्ष का पद
उन्हें मिल गया तो वे रायपुर से लेकर दिल्ली तक स्थापित हो जाएंगे।
पार्टी का वे छत्तीसगढ़ में कितना भला करेंगे, यह अलग बात है। मोतीलाल
वोरा छत्तीसगढ़ के ऐसे नेता है जो पूरी तरह से दिल्ली में स्थापित होने
के साथ सोनिया गांधी के पूरी तरह से विश्वसनीय व्यक्ति है। सोनिया गांधी
ने अपने कितने ही विश्वसनीय व्यक्तियों को संगठन से हटा कर सत्ता में
भेजा लेकिन मोतीलाल वोरा को उन्होंने संगठन के काम से हटाना उचित नहीं
समझा। पार्टी का कोषाध्यक्ष जैसा पद संभाले मोतीलाल वोरा का पार्टी के
प्रति विश्वसनीयता का लंबा इतिहास है। वे प्रदेश कांग्रेस कमेटी के
अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल जैसे कई पदों को
सुशोभित कर चुके हैं। छत्तीसगढ़ में विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता
रविन्द्र चौबे हैं तो प्रदेश अध्यक्ष धनेन्द्र साहू। दोनों की नियुक्ति
में मोतीलाल वोरा का वरदहस्त रहा है।

यह बात दूसरी है कि धनेन्द्र साहू के नेतृत्व में चुनाव लड़कर कांग्रेस
सत्ता की आसंदी हासिल नहीं कर सकी। स्वयं धनेन्द्र साहू विधानसभा का
चुनाव हार गए। फिर सोच का दायरा अति संकीर्ण हैं। इसलिए प्रदेश अध्यक्ष
के बावजूद वे प्रदेश स्तर पर अपनी ऐसी कोई छवि निर्मित करने में सफल नहीं
हुए जिससे उन्हें छत्तीसगढ़ का बड़ा कांग्रेसी नेता माना जाए। जहां तक
रविन्द्र चौबे का प्रश्र है तो प्रतिपक्ष का नेता होने के बावजूद वे भी
अपनी छवि विपक्ष के नेता की अभी तक तो नहीं बना पाएं हैं कि लोग कह सके
कि इनके नेतृत्व में कांग्रेस निश्चित रुप से फलेगी-फूलेगी। प्रदेश स्तर
के पद के अनुरुप नेता होने के बावजूद अवसर मिलने पर भी जो लोग अपना कद
ऊंचा नहीं कर पाए वे पार्टी को जनता के मन में पुन: स्थापित कर सकते हैं,
इसमें संदेह ही है।

आज तो स्थिति यही है कि सत्तारुढ़ दल से जनता नाराज हो तभी कांग्रेस के
हाथ में सत्ता सौंपने के विषय में जनता सोच सकती है। जिसके लक्षण दूर-दूर
तक दिखायी नहीं देते। इसलिए कांग्रेस के लिए जरुरी है कि वह प्रदेश
अध्यक्ष के पद के लिए ऐसे व्यक्ति की तलाश करे जो वास्तव में पार्टी की
छवि को जनता के मन में पुन: स्थापित कर सके। जातिवाद और सांप्रदायिकता की
सोच से परे योग्य व्यक्ति को सभी पसंद करते हैं। महापौर के चुनाव में ही
जिस तरह से नए चेहरों को पार्टी ने चुनाव मैदान में उतारा, उनकी छवि से
प्रभावित होकर लोगों ने उन्हें चुना। पार्टी के पुराने नेताओं पर अब जनता
का वैसा विश्वास रहा नहीं बल्कि पार्टी के प्रति जनता के झुकाव के मामले
में ये अड़ंगा ही है। ये जहां-जहां प्रचार करने जाते हैं वहीं पार्टी के
प्रत्याशियों को नुकसान ही उठाना पड़ता है।

कांग्रेस के विधायक गुरुमुख सिंह होरा, कुलदीप जुनेजा, भजन सिंह
निरंकारी, मोहम्मद अकबर, बदरुद्दीन कुरैशी ऐसे प्रत्याशी रहे हैं जो बिना
जात-पांत के प्रभाव के जीत कर आए हैं। मोहम्मद अकबर का तो विधानसभा
क्षेत्र परिसीमन में विलोपित हो गया। इसके बावजूद वे नए क्षेत्र से जीत
कर आए। जाति, धर्म के आधार पर मतदाता वोट डालता तो इन्हें जीतना नहीं
चाहिए था। जनता में अपनी निर्विवाद छवि और जन आकांक्षाओं पर खरा उतरने
की क्षमता के कारण ये चुनाव जीत कर आए। ये सभी अल्पसंख्यक समुदायों से
आते हैं। ये सब जीत गए तो इसी से कांग्रेस आलाकमान को समझना चाहिए कि
पार्टी को जनता के बीच स्थापित करने की क्षमता किसकी है। सभी अच्छी तरह
से जानते हैं कि प्रदेश अध्यक्ष और प्रतिपक्ष का नेता होने का मतलब
भविष्य में पार्टी को सत्ता का अवसर मिला तो मुख्यमंत्री भी बनाया जा
सकता है। फिर पार्टी की सोच, नीति और छवि के भी अनुरुप ये नेता है।
मोहम्मद अकबर को यह पद सौंपा जाता है तो ये पार्टी को पुन: जनता के बीच
स्थापित करने की क्षमता रखते हैं। छात्रसंघ की राजनीति से ये राजनीति में
हैं। राजनीति की बारीकियों को अच्छी तरह से समझते हैं। युवा हैं और छवि
उज्जवल है। भाजपा से किसी भी तरह की सांठगांठ की भी इनसे उम्मीद नहीं की
जा सकती। आज भी विधानसभा में सबसे ज्यादा सक्रिय विपक्षी नेता के रुप में
ये स्थापित हैं। नई पीढ़ी के लिए ये उदाहरण स्वरुप हैं। जहां तक शिक्षा
का प्रश्र है तो ये स्नातकोत्तर हैं। पार्टी इन्हें अवसर दे तो पार्टी का
भला हो सकता है।

लेकिन पार्टी इसकी हिम्मत करेगी क्या? कर सकती है तो अपना भला कर सकती
है। नहीं तो फिर इसकी उसकी सलाह पर किसी व्यक्ति की प्रदेश अध्यक्ष पद पर
नियुक्ति व्यक्ति विशेष को संतुष्ट कर सकती है। विपक्ष की नेतागिरी तो
एक अवसर होता है। पार्टी 6 वर्षों से बहुतों को अवसर दे चुकी। वरिष्ठ
की सलाह पर काम चलाऊ व्यक्तियों की नियुक्ति कर भी देख चुकी। प्रदेश
अध्यक्ष ऐसा होना चाहिए जो कि विधानसभा के अंदर और बाहर दोनों जगह पर
जनता को अपने साथ खड़ा दिखायी दे। पुराने नामचीन नेता अब ऐसा प्रभाव नहीं
रखते। उनकी सोच का दायरा भी सीमित है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के हाथ में
सत्ता लौट कर न आए, यह सोच यदि आलाकमान की है तो वह फिर वरिष्ठ नेताओं के
समर्थकों को पद देती रहे और इंतजार करती रहे कि बिल्ली के भाग्य से कब
छींका टूटे।

बिल्ली भले ही ख्वाब देखे लेकिन हकीकत में ऐसा हमेशा संभव नहीं होता।
भाजपा का जिस तरह से छत्तीसगढ़ में वर्चस्व बढ़ा है और डॉ. रमन सिंह की
लोकप्रियता आसमान में हैं, इस हालत में कांग्रेस के लिए वैसे भी बहुत
संभावना नहीं हैं। राजनीति में जो संभावना न भी हो तब भी संभावनाओं की
तलाश कर सके, वही सफल हो सकता है। मोहम्मद अकबर ऐसे ही नेता हैं। पार्टी
चाहे तो उन्हें अवसर देकर सत्ता में लौटने के अवसर तलाश सकती है।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 19.07.2010
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