यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

बुधवार, 21 जुलाई 2010

यह तो भविष्य ही बताएगा कि बच्चों को मारपीट से बचाने का कानून कितना फायदेमंद साबित हुआ

केंद्र सरकार कानून बनाने जा रही है कि अब स्कूल में बच्चों को शिक्षक
पीट नहीं सकेंगे। शिक्षक ही नहीं माता पिता भी बच्चों की पिटाई नहीं कर
सकेंगे। पड़ोसी रिश्तेदार भी बच्चों पर बल प्रयोग नहीं कर सकेंगे। यदि
ऐसा कोई करेगा तो जेल की हवा खाएगा और जुर्माना भी अदा करना पड़ेगा। इसके
लिए हर स्कूल में व्यवस्था की जाएगी जहां बच्चे अपनी शिकायत दर्ज करा
सकेंगे। मतलब साफ है कि अब बच्चे अपनों से पूरी तरह से सुरक्षित रहें,
इसकी व्यवस्था कानून के माध्यम से की जा रही है। अब सभी को बच्चों के
साथ सम्मानजनक व्यवहार करना पड़ेगा। कानूनी बाध्यता के बावजूद इस मामले
में बच्चे कितने सुरक्षित होंगे, यह तो कानून लागू होने के बाद ही पता
चलेगा लेकिन एक बात तो स्पष्ट दिखायी देती हैं कि सरकार की मंशा स्पष्ट
है और स्वागत योग्य है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो हिंसा का प्रभाव बाल मन पर जो पड़ता है,
वह जीवन भर उसका पीछा नहीं छोड़ता। स्कूल जाने से कतराने के पीछे भी
बच्चों के मन में जो शिक्षक और माता पिता की मार का भय होता है, वह असली
कारण होता है। यह मारपीट वह कारण है जो बच्चों में स्कूल के प्रति उत्साह
नहीं भरता। अक्सर देखा गया है कि छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाते समय रोते
हैं और स्कूल से वापस आते हैं तो हंसते खिलखिलाते हुए आते हैं। ठीक उस
कैदी की तरह जो जेल से छुटकारे के बाद प्रसन्न दिखायी देता है। कहा जाता
है कि मनुष्य के जीवन में सबसे अच्छा समय बचपन का होता है। जब न कमाने
खाने की चिंता होती है और न किसी तरह की किसी जिम्मेदारी की। यह बात
ऊपर-ऊपर भले ही ठीक लगे लेकिन वास्तव में स्थिति तो ऐसी नहीं होती। जितना
दबाव बचपन में किसी पर होता है, चारों तरफ से उतना दबाव बड़ा और
जिम्मेदार होने पर नहीं होता। बच्चे को जितना लाड़ प्यार नहीं मिलता,
उससे ज्यादा उसे बड़े दबाते हैं।

उसे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए कुछ न कुछ ऐसा करना पड़ता है जिससे
लोगों का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित हो। घर में बच्चा एकदम शांत है लेकिन
जैसे ही घर में कोई मेहमान आता है, बच्चा हल्ला गुल्ला, उछल कूद करने
लगता है। घर के लोग बार-बार उसकी तरफ आकर्षित होते हैं और उसे समझाने की
कोशिश करते हैं कि पप्पू शांत रहो। अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते लेकिन
बच्चे भी अच्छी तरह से जानते हैं कि बड़े उसके साथ किसी भी तरह का कठोर
व्यवहार मेहमान के सामने नहीं कर सकते। क्योंकि वे बच्चों के प्रति कठोर
किसी के सामने नहीं दिखायी देना चाहते। बच्चों का मन बड़ा कोमल होता है
और उस पर हर तरह के व्यवहार का असर पड़ता है। जो माता पिता या शिक्षक बात
बेबात बच्चों को मारते हैं, वे बच्चे को ठीक तो नहीं कर पाते बल्कि दब्बू
या उदंड बना देते हैं।

बच्चे के साथ सख्ती या ज्यादा लाड़ प्यार का प्रदर्शन दोनों ही
नुकसानदायी होता है। सख्ती से ही बच्चे नहीं बिगड़ते बल्कि ज्यादा लाड़
प्यार भी उन्हें बिगाड़ता है। असल में बड़ों के पास जिस धैर्य की जरुरत
होना चाहिए, बच्चों के साथ व्यवहार करने के लिए उसका सर्वथा अभाव ही हो
गया है। समय किसी के पास है, नहीं। पालक समझते हैं कि खाने, पीने ,
पहनने, पढऩे का इंतजाम कर वे अपने कर्तव्य को पूरा कर रहे हैं। इसके लिए
वे आदर के पात्र हैं। बच्चा वास्तव में क्या चाहता है और वास्तव में उसे
क्या चाहिए, इसकी समझाइश धैर्यपूर्वक देने की कोई जरुरत ही नहीं समझता।
एक अच्छे स्कूल में यदि बच्चे को भर्ती करा देते हैं तो समझते हैं कि
उन्होंने अपना फर्ज पूरी तरह से निभा दिया। अब बच्चों को योग्य और भविष्य
के लिए तैयार करने का दायित्व शिक्षक और स्कूल का है। शिक्षक और स्कूल भी
पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है। वह होमवर्क का ऐसा बोझ
बच्चों पर डालता है कि स्कूल से घर आकर भी खेलने कूदने का समय उन्हें
नहीं मिलता।

जबकि बच्चे के शरीर में ऊर्जा बहुत होती है और वह उछल कूद कर ही ऊर्जा को
व्यवस्थित कर सकता है। स्कूल में अनुशासित रहे, घर में अनुशासित रहे।
जैसे बच्चा जिंदा प्राणी न होकर कोई मशीन हो। परीक्षा में कम नंबर मिले
तो बच्चा दोषी। क्योंकि जिस तरह से पढ़ाई लिखाई में उसे ध्यान देना
चाहिए, वह नहीं देता। उसकी निंदा शिक्षक, माता पिता सब करते हैं और उससे
सख्ती का व्यवहार किया जाता है। फिर सबसे बड़ी बात तो यह होती है कि
बच्चा अपने भविष्य में क्या बनना चाहता है और माता पिता उसे क्या बनाना
चाहते हैं? विपरीत विचारों का संघर्ष उसका बचपन तो छीन ही लेते हैं, साथ
ही भविष्य भी उसका खराब कर देते हैं। साक्षर होना आज मनुष्य की जरुरत है
और जो भी बच्चा स्कूल जाता है वह साक्षर तो हो ही जाता है। इसके बाद
उसका स्वाभाविक विकास होना चाहिए। अक्सर इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
शिक्षा को ज्ञान का नहीं अर्थ प्राप्ति का साधन माना जाता है। आज जो
आर्थिक विकास की ऐसी दौड़ है कि हर माता पिता की यही कोशिश है कि बच्चा
वह पढ़ कर बने जिससे अधिक से अधिक धन कमा सके। नौकरी आसानी से मिल सके।
मारपीट भी बच्चे के साथ जो की जाती है, उसका उद्देश्य तो यही समझा जाता
है कि बच्चे के भविष्य का निर्माण किया जा रहा है। अक्सर तो बच्चे अपने
माता पिता या शिक्षक की मन:स्थिति का शिकार हो जाते हैं। बच्चा तो कभी
कभी समझ ही नहीं पाता कि कभी जिस बात के लिए उसकी तारीफ की जाती हैं, वही
बात कभी उसकी पिटाई का कारण भी बन जाती है। माता पिता प्रसन्न हों तो
बच्चे के कूदने, नाचने पर प्रसन्न होते हैं लेकिन किसी कारण से अप्रसन्न
हों तो उन्हें बच्चे का नाचना, कूदना अच्छा नहीं लगता और मना करने के
बावजूद जब बच्चा नहीं मानता तो उसकी पिटाई कर देते हैं।

बच्चों के साथ बड़ों का व्यवहार दरअसल एक गूढ़ विषय है और सूक्ष्मता से
इसके लिए कोई नियम नहीं बनाए जा सकते। फिर सभी बच्चे एक समान नहीं होते।
कुछ बच्चे जन्म से ही शांत होते हैं तो कुछ बच्चे उदंड होते हैं। ये अपने
साथी बच्चों की पिटाई भी कर देते हैं और अपने साथ अपने अनुरुप चलने के
लिए बाध्य भी करते हैं। सभी को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता। फिर सभी
न तो एक ही माहौल में पलते बढ़ते हैं और न ही एक तरह के संस्कारों में
संस्कारित होते हैं। बाल मन परिस्थितियों के अनुसार ही विचारों को ग्रहण
करता है और उसी के अनुसार उसका विकास होता है। इसीलिए एक तरह का मनुष्य
तन प्राप्त करने के बावजूद भी व्यक्ति में भेद है। भेद तो एक ही
परिस्थिति, एक ही माता पिता की संतानों में भी होता है। सब समान तो नहीं
होते। इसलिए यह विषय अत्यंत गूढ़ है और अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था स्कूलों
में नहीं हुई कि हर बच्चे का अलग-अलग अध्ययन किया जा सके। फिर भी हिंसा
किसी भी तरह की बच्चों के साथ हो उसे उचित तो नहीं कहा जा सकता। सरकार को
हर समस्या का हल कानून में ही दिखायी पड़ता है। वह समझती है कि कानून बना
कर समाज को सुधारा जा सकता है परंतु इतने सारे कानूनों के बावजूद क्या हल
निकला? जो बच्चों के प्रति हिंसा रोकने का कानून बना कर निकल जाएगा।

- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 21.07.2010
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