के मुख्यमंत्रियों की बैठक में डॉ. रमन सिंह ने नक्सलियों की मंशा को
स्पष्ट कर दिया है। बैठक के बाद उन्होंने कहा कि बस्तर में 50 हजार
नक्सली है। नक्सली हिंसा के बल पर सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं।
प्रजातंत्र पर उनकी आस्था नहीं है। माओवाद के नाम पर वे अपनी तानाशाही
चाहते हैं। बस्तर में निरंतर हिंसा की वारदातें हो रही हैं और अब तो
नक्सलियों ने थानों, सशस्त्र बल के कैंपों पर भी हमला करना प्रारंभ कर
दिया है। विकास का तब तक तो कोई अर्थ नहीं हैं जब तक एक तरफ विकास के काम
हों और दूसरी तरफ नक्सली विध्वंस कर विकास कार्यों को नष्ट करें। डॉ.
रमन सिंह के अनुसार 50 हजार नक्सली हैं तो यह स्थिति तो काश्मीर से भी
खराब है। 50 हजार नक्सली यदि हथियार से सज्जित हैं तो यह तो ऐसी स्थिति
है जैसे कोई फौज सरकार के विरुद्ध खड़ी है।
राज्य सरकार ने अपने पुलिस बजट में 6 वर्षों में 5 गुणा वृद्धि की है।
पुलिस बल में भी निरंतर इजाफा किया जा रहा है। गोरिल्ला युद्ध के लिए
बाकायदा प्रशिक्षण स्कूल है और तीन स्कूल और खोलने की 1 माह में योजना
है। साफ मतलब है कि नक्सलियों से निपटने के लिए डॉ. रमन सिंह कृतसंकल्पित
हैं। यह उन्हीं के प्रयास का नतीजा है कि आज केंद्र सरकार 4 राज्यों की
एकीकृत कमान स्थापित करने के लिए तैयार हो गयी है। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों ने इसके प्रति अपनी सहमति व्यक्त कर दी
है तो झारखंड में तो वैसे भी राष्टपति शासन लागू है। नीतीश कुमार
नक्सलियों के पक्ष में नरमी के पक्ष में हैं लेकिन यह आदर्शवादिता
व्यवहारिक नहीं दिखायी देती। नक्सली भले ही भारतीय हैं लेकिन उनका जब
प्रजातंत्र पर ही विश्वास नहीं और वे हिंसा के बल पर राजपाठ चाहते हैं तो
उनके प्रति नरमी का बर्ताव तो अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
फिर बिहार में नक्सलियों से मुकाबला करने के लिए तो लोगों ने अपनी सेना
भी बना रखी है। नक्सलियों का वैसा प्रभाव भी बिहार में नहीं है जैसा
एकीकृत कमान के लिए तैयार 4 राज्यों में है। छत्तीसगढ़ के बस्तर को तो एक
तरह से नक्सलियों ने अपना शरण स्थल और मुख्यालय ही बना रखा हैं। डॉ. रमन
सिंह स्वयं कहते हैं कि नक्सलियों ने 40 प्रतिशत वारदात तो बस्तर में ही
किया है। कहीं भी पुलिस और सशस्त्र बल का दबाव बढ़े तो बस्तर में आकर
सुरक्षित हो जाओ। बस्तर में अबूझमाड़ तो ऐसी जगह हैं जिसमें आम आदमी का
प्रवेश प्रतिबंधित था और नक्सलियों को वहां अपना अड्डï बनाने की एक तरह
से पूरी छूट मिली हुई थी। डॉ. रमन सिंह ने ही प्रतिबंध को समाप्त किया।
अबूझमाड़ के विषय में तो विस्तृत जानकारी सरकारी रिकार्ड में भी नहीं थी।
पहली बार डॉ. रमन सिंह ऐसे मुख्यमंत्री मिले जिन्होंने समस्या की गंभीरता
को समझा तब असलियत सामने आयी कि वास्तव में नक्सलियों ने अपना कितना
विस्तार कर लिया है।
नक्सलियों के अधिकांश बड़े नेता आंध्रप्रदेश के ही हैं। आंध्रप्रदेश के
तो दो-दो मुख्यमंत्रियों तक को निशाना बनाने की नक्सलियों ने कोशिश की।
तब आंध्र की राज्य सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए तैयारी की और आज
स्थिति यह है कि अधिकांश क्षेत्रों से नक्सलियों को पलायन के लिए बाध्य
होना पड़ा। आज भी आंध्र की ग्रेहाउंड फोर्स से नक्सली भय खाते हैं।
दिवंगत नक्सली नेता आजाद को आंध्र पुलिस ने नागपुर से पकड़ा और आंध्र ले
जाकर एनकाउंटर कर दिया, ऐसा नक्सलियों का आरोप है। अब नक्सली जो रोज-रोज
बंद का आव्हान कर रहे हैं और निरंतर आक्रमण कर रहे हैं तो कह रहे हैं कि
आजाद की मौत का वे बदला ले रहे हैं। आजाद को आंध्र पुलिस ने मारा तो
आंध्र में लड़ें पुलिस से लेकिन नहीं वे आंध्र मे नहीं लड़ते छत्तीसगढ़
में दादागिरी दिखाते हैं। क्योंकि जानते हैं कि आंध्र में उनकी दादागिरी
चलने वाली नहीं और बस्तर सुरक्षित क्षेत्र है। एक तरह से तो छत्तीसगढ़
में हमला कर अपनी खुन्नस निकाल रहे हैं।
लेकिन इससे वे समझते हैं कि वे राज्य सरकार या केंद्र सरकार को झुकने के
लिए बाध्य कर देंगे तो यह उनकी गलतफहमी ही सिद्ध होगी। केंद्र सरकार भले
ही फौज को नक्सलियों के विरुद्ध कार्यवाही के लिए नहीं उतार रहा है लेकिन
राज्य सरकार को अधिक से अधिक संसाधन देने की उसकी मंशा तो स्पष्ट है। 4
राज्यों की एकीकृत कमान भी नक्सली समस्या के विरुद्ध बड़ी कार्यवाही है।
फौज के अवकाश प्राप्त अधिकारी इस योजना में सलाहकार की भूमिका निभाएंगे।
छत्तीसगढ़ में 3 हजार एसपीओ की भर्ती होगी। 4 हजार पुलिस जवान भी भर्ती
किए जाएंगे। 65 थानों के लिए 2-2 करोड़ रुपए दिए जाएंगे। मुख्यमंत्री डॉ.
रमन सिंह ने तो काश्मीर की तरह पुलिस बल को सुविधा देने की मांग की है।
नक्सली हमले में मारे जाने वाले नागरिकों के लिए भी मुआवजे की मांग की
हैं। गृहमंत्री चिदंबरम ने भी राज्य सरकारों से कहा है कि वे अपने राज्य
में खाली पुलिस जवानों के पद पर शीघ्र भर्ती करें। नक्सलियों को अभी भी
समझ में आ जाए कि उनके सामने सरकारें झुकने वाली नहीं हैं तो यह
नक्सलियों के हित में ही होगा। यह सोचना कि वे हिंसा के बल पर इस देश की
सत्ता पर आसीन हो सकते हैं, खामख्याली से अधिक नहीं है।
पिछले वर्षों में उन्होंने करीब दस हजार लोगों की जान ली है। इससे उन्हें
कौन सा राजपाठ मिल गया? उनके प्रभावित क्षेत्र के नागरिक उनके भय से भले
ही कुछ न बोलें लेकिन वे उनके पक्ष में हो गए हैं, ऐसा मानने का तो कोई
कारण नहीं है। देश का आम नागरिक वह जिस जाति, संप्रदाय, वर्ग का हो, वह
तकलीफें तो झेल लेता है लेकिन हिंसा को पसंद नहीं करता। जब भी नक्सली
हिंसा से लोगों के मारे जाने का समाचार उसे मिलता है तब उसके मन में
नक्सलियों के प्रति कोई श्रद्धा का भाव नहीं उठता। उसके मन में तो यही
भाव उठता है कि सरकार शीघ्र से शीघ्र नक्सलियों से क्षेत्र को मुक्त
कराएं। जब एक दिवंगत पुलिस अधिकारी के पुत्र को सरकार सरकारी नौकरी देती
हैं तो उससे पुलिस बल का मनोबल ऊंचा उठता है। हर उस परिवार में जिसका कोई
सदस्य नक्सलियों के द्वारा मारा गया, यही दुआ परमात्मा से करता है कि
शीघ्र ही इनका नाश हो।
नक्सलियों की गोलियों से किसी का भला हुआ हो, ऐसा तो नहीं दिखायी पड़ता
बल्कि लोगों का नुकसान ही हुआ है। आखिर नक्सल प्रभावित क्षेत्र के लोग
पलायन के लिए क्यों बाध्य होते हैं? स्वाभाविक रुप से उन्हें लगता है कि
वे शांति से नक्सलियों के रहते अपना जीवन यापन नहीं कर सकते। कब किस पर
मुखबिरी का चस्पा लगाया जाएगा और उसे मार डाला जाएगा। गला रेत कर मारना,
फांसी पर लटका कर मारना। डंडे से पीट-पीट कर मारना किसी भी कोण से
इंसानियत का परिचय नहीं देता। भगवान न करें, कभी यदि ऐसा हुआ कि इनका
शासन हो गया तो आदमी की जान की कीमत ही क्या रह जाएगी? ये इंसानों का भला
करने के नाम पर इंसानों को मारते हैं। किसी भी सामान्य बुद्धि के व्यक्ति
की समझ के बाहर की बात है, यह। सरकारों का दायित्व है कि इस आतंक से आम
जनता को मुक्ति मिले।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 15.07.2010
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