यह ब्लॉग छत्तीसगढ़ के सबसे पुराने समाचार पत्र "अग्रदूत" में प्रकाशित कुछ लेखों को प्रकाशित करेगा . जिन्हे मेरे अग्रज, पत्र के प्रधान संपादक श्री विष्णु सिन्हा जी ने लिखा है .
ये लेख "सोच की लकीरें" के नाम से प्रकाशित होते हैं

रविवार, 25 जुलाई 2010

अमित शाह के मामले में भाजपा का प्रधानमंत्री के लंच का बहिष्कार कोई मायने नहीं रखता

क्या किसी राज्य का गृह राज्यमंत्री फरार भी हो सकता है? गृहमंत्री का
अर्थ होता है, पुलिस विभाग का मंत्री। इसलिए कम से कम पुलिस विभाग का
मंत्री तो पुलिस की नजर से ओझल नहीं हो सकता है। फरार शब्द का सामान्य
लोग यही अर्थ लगाते हैं कि ऐसा व्यक्ति जिसकी जरुरत पुलिस को गिरफ्तारी
के लिए है और उसे पुलिस ढूंढ नहीं पा रही है। ढूंढने से भी वह मिल नहीं
रहा है। आम आदमी तो यह समझ ही नहीं सकता कि गृह राज्यमंत्री फरार कैसे हो
सकता है? लेकिन गुजरात राज्य के गृहमंत्री अमित शाह की अग्रिम जमानत
याचिका सीबीआई की विशेष अदालत ने खारिज कर दी और सीबीआई के बुलावे पर गृह
राज्यमंत्री उपस्थित नहीं हुए। इसलिए गृह राज्यमंत्री फरार घोषित हो गए
हैं। स्वाभाविक है कि अब अदालत उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करे और
संवैधानिक मर्यादा तो यही कहती है कि इस स्थिति में गृह राज्यमंत्री को
अपने पद से इस्तीफा देकर न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण कर देना चाहिए ।
सीबीआई एक संवैधानिक शपथ से बंधे व्यक्ति को गिरफ्तार कर यदि न्यायालय के
समक्ष प्रस्तुत करती हैं तो यह प्रजातंत्र के लिए शुभ संदेश नहीं है।

सीबीआई ने कहा जा रहा है कि अमित शाह पर आरोप लगाया है कि उन्होंने
सोहराबुद्दीन की हत्या के लिए सुपारी दी थी। सुपारी भी किसी आम अपराधी
व्यक्ति को नहीं आईपीएस अधिकारियों को दी गई थी और आईपीएस अधिकारी
गिरफ्तार होकर जेल में हैं। पुलिस का छोटा मोटा कर्मचारी या अधिकारी किसी
की हत्या की सुपारी ले, यह समझ में भी आने वाली बात है लेकिन आईपीएस
अधिकारी भी सुपारी ले सकते हैं, यह बात आसानी से हजम होने वाली नहीं है।
गृहमंत्री के आदेशों का पालन अधिकारियों ने किया हो तो यह समझ में भी आने
वाली बात है लेकिन सुपारी लेकर हत्या की बात विश्वसनीय नहीं लगती। फिर भी
जब सीबीआई तीस हजार पृष्ठ का आरोप पत्र पेश कर यह बात न्यायालय से
कहती हैं तो विश्वास डगमगा अवश्य जाता है।

पुलिस के इतने बड़े अधिकारी राजनेता के कहने पर किसी की भी हत्या कर सकते
हैं तो फिर आम आदमी की सुरक्षा की जिस पर जिम्मेदारी है, उस पर
प्रश्रचिन्ह लग जाता है। पुलिस ही तो ऐसी संस्था है जिस पर आम नागरिक की
सुरक्षा का पूरा दारोमदार है। यदि यह बात न्यायालय में सिद्ध हो जाती है
और पुलिस अधिकारियों को न्यायालय सजा दे देता है तो यह निश्चित ही जनता
और पुलिस दोनों के लिए बड़ा सबक होगा। भाजपा के बड़े राष्ट्रीय नेता भले
ही प्रधानमंत्री के लंच का बायकाट करें लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि
वे ठीक हैं। उन्हें संविधान और कानून पर पूरा विश्वास प्रगट करना चाहिए।
सीबीआई केंद्र सरकार के इशारे पर भाजपा के एक मंत्री को आरोपी बना रही है
तो न्यायालय में अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अमित शाह के पास अवसर
नहीं है, ऐसा सोचना का तो कारण नहीं है।

सीबीआई की पूछताछ के लिए जब मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी उपस्थित हो सकते
हैं तब उनके गृह राज्यमंत्री क्यों नहीं? कानून की दृष्टि में न तो कोई
छोटा है और न ही कोई बड़ा। सिर्फ यह कहने से की सीबीआई का केंद्र सरकार
दुरुपयोग कर रही है, मामले को रफादफा नहीं किया जा सकता। यदि अमित
निर्दोष हैं और उन पर झूठा आरोप मढ़ा जा रहा है तो न्यायालय में दूध का
दूध और पानी का पानी हो जाएगा। सीबीआई जांच कोई केंद्र सरकार तो करा नहीं
रही हैं। न्यायालय के आदेश पर सीबीआई जांच कर रही है। न्यायालय के आदेश
पर ही बिहार के मुख्यमंत्री और मंत्रियों पर दायर मुकदमे पर सीबीआई जांच
का आदेश न्यायालय ने दिया था। सीबीआई जांच के आदेश के बाद विपक्ष ने
विधानसभा में जो हंगामा किया, उससे नीतीश कुमार और उनके मंत्री दोषी तो
सिद्ध हो नहीं गए बल्कि सरकार ने न्यायालय में अपना पक्ष रख कर सीबीआई
जांच वापस लेने का फैसला न्यायालय से ही करवाया।

सही तरीका भी यही है। प्रधानमंत्री के लंच का बहिष्कार करने से यह सिद्ध
नहीं होता कि केंद्र सरकार सीबीआई का दुरुपयोग कर भाजपा को बदनाम कर रही
है। अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता एक विख्यात अधिवक्ता हैं।
उन्हें तो कम से कम समझना चाहिए कि सीबीआई यदि कुछ गलत कर रही है तो उसके
लिए न्यायालय के दरवाजे खुले हुए हैं। न्यायालय में अपनी बात रखी जानी
चाहिए। हर मामले को राजनीति के चश्मे से ही देखना स्वस्थ प्रजातंत्र के
लिए उचित नहीं है। यह सही है कि अमित शाह गुजरात के लोकप्रिय नेता हैं।
पिछला विधानसभा चुनाव उन्होंने सर्वाधिक मतों से जीता लेकिन कोई भी
व्यक्ति कितना भी लोकप्रिय हो उसे कानून से खिलवाड़ का अधिकार नहीं है।
यह बात ही किसी भी राजनैतिक दल को शर्मसार करने के लिए पर्याप्त है कि
उसका गृह राज्यमंत्री हत्या के लिए सुपारी दे। अपनी पार्टी का नेता होने
से ही कोई ईमानदार नहीं हो जाता। जो भी कानून से खिलवाड़ करने की और
कानून से अपने को बड़ा समझने की भूल करेगा,उसकी जगह न्यायालय के कठघरे
में ही है। आम नागरिक के लिए एक ही जगह तो अंतिम रुप से बची है जहां जाकर
वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी चुनौती दे सकता है।

इसी से संविधान पर आम आदमी की आस्था अडिग है। हुक्मरानों के द्वारा सत्ता
के दुरुपयोग के किस्से 63 वर्षों में कम नहीं है। अपराधी तक चुनाव लड़ कर
और जीत कर संवैधानिक संस्थाओं पर काबिज होते रहे हैं और आज भी काबिज हैं।
किसी के साथ ये अन्याय करें तो न्यायालय में ही न्याय की तलाश की जा सकती
है। इंदिरा गांधी जैसी सशक्त नेत्री तक के चुनाव को न्यायालय ने खारिज कर
दिया था। राजीव गांधी पर लगाए गए बोफोर्स दलाली के आरोप तक न्यायालय में
सिद्ध नहीं हुए लेकिन क्रूर राजनीति ने दुष्प्रचार कर सत्ता उनके हाथ से
जनता को बहका कर छीन लिया था। तमाम तरह के आरोपों के बावजूद आज भी केंद्र
की सत्ता कांग्रेस के ही हाथ में है। न्यायालय के आदेश से सीबीआई
सोहराबुद्दीन की हत्या की जांच कर रही है। सीबीआई कांग्रेस के दबाव में
कोई गलत काम यदि करती है तो सीबीआई की जांच न्यायालय का फैसला तो नहीं
है।

विधानसभा चुनाव के समय गुजरात में चुनाव प्रचार के समय सोनिया गांधी ने
नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था लेकिन मतदाताओं ने उसके बावजूद
अपना विश्वास सोनिया गांधी की कांग्रेस के प्रति तो प्रगट नहीं किया
बल्कि नरेन्द्र मोदी को ही पूर्ण बहुमत से सत्ता सौंपा। नरेन्द्र मोदी को
सत्ता से हटाने का कोई भी प्रयास सफल नहीं हुआ। तब अमित शाह के मामले में
भाजपा इतनी उत्तेजित क्यों है? विरोध तो नरेन्द्र मोदी के विज्ञापन का
नीतीश कुमार ने भी किया लेकिन भाजपा की समस्त उत्तेजना सत्ता के सामने एक
झाग की तरह बैठ गयी। अमित शाह का न्याय न्यायालय ही करेगा, राजनीति नहीं।

-विष्णु सिन्हा
दिनांक : 24.07.2010
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