मुसीबतों की बारिश भी कहा गया। यह वही पानी है जो आवश्यकता से अधिक गिरे
तो भी इंसान परेशान हो जाता है और न गिरे तो व्याकुल हो जाता है। अभी कुछ
दिन पूर्व ही चिलचिलाती गर्मी से परेशान इंसान यही विनती कर रहा था कि
जल्द से जल्द बरसात हो। आकाश पर बादल तो मंडराते थे लेकिन आशा के अनुरुप
बरसते नहीं थे। बादल छंटे और आसमान में चमकता सूर्य दिखायी पड़ा तो गर्मी
फिर बेचैन कर देती थी। किसान बरसात का इंतजार कर रहे थे। आषाढ़ जाते-जाते
बरसात की सौगात किसानों को दे गया तो शहरों में निचली बस्ती में रहने
वालों को परेशान कर गया। अभी भी मौसम विभाग बरसात की भविष्यवाणियां कर
रहा है। जिनकी जिम्मेदारी है इस बरसात में लोगों की सुख सुविधा का ध्यान
रखने की। वे दोषारोपण कर रहे हैं, एक दूसरे पर। इस दोषारोपण से लोगों को
समस्या से निजात तो मिलना नहीं है।
छत्तीसगढ़ में सड़क परिवहन पर बरसात ने अपना पूरा असर दिखाया है और कई
मुख्य मार्ग तक आवागमन के लिए बंद हो गए हैं। यह अल्पकालिक असुविधा है और
इस असुविधा को बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन बरसात न होती तो जो
असुविधा होती, उसकी कल्पना ही घबराने वाली है। पीने के पानी तक के लिए तो
प्रदेश की शहरी आबादी बांधों पर निर्भर करती है। बांधों में पानी हल्की
बरसात के कारण जिस तरह से भर रहा था, वह भविष्य की दृष्टि से समुचित
नहीं था लेकिन पिछले दो दिनों की बरसात से निश्चय ही बांधों में पानी का
भराव तीव्र गति से बढ़ा है। यह भविष्य में आने वाली गर्मी के लिए कितना
उपयोगी है, यह गर्मी के दिनों में ही समझ में आता है। सूख गए बोरिंगों
में भी पानी आ गया है। भू-जल स्तर को भी बरसात ने बढ़ाया है लेकिन यही जल
स्तर गर्मी में इतने नीचे चला जाता है कि फिर बांधों के पानी पर पूरी तरह
से निर्भरता ही शेष रह जाती है। अब तो गांवों के तालाबों को भी बांध के
पानी से भरने की जरुरत महसूस होने लगी है।
आकाश से गिरती पानी की बूंदें कितनी भी आज बेरहम लगें लेकिन इनके बिना हर
तरह के जीवन पर प्रश्र चिन्ह ही लग जाएगा। जीवन की पहली शर्त ही पानी है।
चिकित्सा विज्ञान कहता है कि भोजन के बिना तो आदमी 30 दिनों तक जिंदा रह
सकता है लेकिन पानी के बिना 6-7 दिनों बाद ही जीवन की संभावना क्षीण होने
लगती है। फिर खेतों में अनाज पैदा करना है तो उसके लिए भी आवश्यक पानी
ही है। बिन पानी सब सून है लेकिन इस पानी से होने वाली तकलीफों से बचने
का भी तरीका है। उचित व्यवस्था हो तो पानी जीवन के लिए खतरा नहीं है।
इंसानी लापरवाही के कारण यदि इंसानों को कष्ट होता है तो जिम्मेदार
लोगों पर कार्यवाही तो होना चाहिए। खासकर उन तकलीफों के लिए जो नई नहीं
हैं और हर वर्ष इंसान को परेशान करती हैं। पहली बार की गलती तो एक बार
क्षम्य है लेकिन फिर से गलती को सुधारा नहीं जाता तो जिम्मेदार लोगों को
बख्शा नहीं जाना चाहिए। लापरवाही किसी की और फल भोगे दूसरा तो यह स्थिति
उचित नहीं हैं।
सरकार और नगरीय निकाय जैसी संस्थाओं का औचित्य क्या है? जब वे जनता से कर
वसूल करते हैं और जनता के द्वारा ही चुने जाते हैं तो उनका दायित्व है कि
वे जनता को तकलीफों से निजात दिलाएं। कोई आकस्मिक आपदा हो कि भूकंप आया
तो बात अलग है लेकिन हर वर्ष जिन तकलीफों से जनता को दो चार होना पड़ता
है, उससे भी जनता को निजात न मिले तो दोषी कोई न कोई तो है। दोष एक सिर
से दूसरे सिर मढऩे से ही तो जनता को समस्याओं से छुटकारा नहीं मिलेगा।
अधिकारियों कर्मचारियों के ऊपर जनप्रतिनिधि को चुनकर बिठाने का औचित्य ही
यही है कि वे अधिकारियों कर्मचारियों से सही तरीके से काम लें। राजनीति
जनता को समस्याओं से मुक्त कराना होना चाहिए, न कि समस्याओं को लेकर
राजनीति करना।
पक्ष हो या विपक्ष जिम्मेदारी सामूहिक है। एक दूसरे को नीचा दिखाने या
बदनाम करने से जनता को समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती। कब तक जनता की
समस्याओं को राजनीति की शतरंज पर मोहरों की तरह चला जाता रहेगा। आखिर ठगी
तो जनता ही जाती है। हर वर्ष वही झमेला। वर्षों हो गए बाढ़ पीडि़त
क्षेत्र न होने के बावजूद राजधानी के ही कई इलाके बाढ़ की पीड़ा को झेलने
के लिए बाध्य हैं। नदियों के ऊफान से बरसात में आने वाली बाढ़ से राजधानी
रायपुर पूरी तरह से सुरक्षित है। सिर्फ बरसात में गिरने वाले पानी की
निकासी व्यवस्था सही हो तो बस्तियों को पानी में डूबना नहीं पड़ेगा।
मध्यप्रदेश में रहते हुए यह संभव नहीं था। इसीलिए तो अलग छत्तीसगढ़ की
मांग उठी और छत्तीसगढ़ अलग राज्य बना। राज्य बने भी 10 वर्ष पूरा होने जा
रहा है लेकिन बरसात की समस्या से आज तक राजधानी रायपुर ही मुक्त नहीं हुई
तो बाकी छत्तीसगढ़ के शहर कस्बों का क्या हाल होगा?
सरकार ने पॉलिथिन (झिल्ली) पर पाबंदी लगाया लेकिन न तो इनकी बिक्री बंद
हुई और न ही इनका उपयोग। नालियों को ये जाम करती हैं, यह सर्वविदित सत्य
है। कानून बनाने से ही कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती बल्कि उसका पालन
कराना सबसे अहम बात है। यदि मात्र कानून बना देने से ही सब कुछ ठीक ठाक
हो जाता तो आज देश में तो समस्याओं का नामोनिशान नहीं होता। स्वास्थ्य की
दृष्टि से सफाई व्यवस्था कितनी आवश्यक है,यह क्या किसी के समझाने की बात
है? सफाई व्यवस्था का क्या आलम है और किस तरह से बोगस रिकॉर्ड बना कर
जनता के धन को लूटा गया, यह तथ्य तो सबके सामने हैं। इसके बाद अधिकारी का
स्थानांतरण कर ही कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई।
समस्या को सुलझाने के लिए जिस ईमानदार प्रयास की जरुरत है, जब तक वह नहीं
होता, तब तक समस्याएं अपना स्थान नहीं छोडऩे वाली हैं। घरों में घुसता
पानी, सड़कों में 4-4 फुट बहता पानी किसी भी ईमानदार प्रशासक को बेचैन कर
सकता है लेकिन यदि इन समस्याओं के बावजूद वह सुखपूर्वक निद्रा ले सकता है
तो यही कहा जाएगा कि संवेदनशीलता भोथरा गयी है। लोगों के घर में चुल्हा
नहीं जल रहा है। बच्चों के पेट में अनाज नहीं पहुंच रहा है और लोगों ने
अपने मोबाईल फोन बंद कर रखे हैं तो इसे और क्या कहा जाए? संवेदनशीलता ही
मनुष्य की असली पहचान है। इसी को इंसानियत भी कहते हैं। आकाश से तो बरसात
के रुप में अमृत बरस रहा है। अब जिम्मेदारी जिनकी है, उन्हें ही समझना
चाहिए कि वे अमृत को अमृत ही रहने दें। किसी को वह अमृत के बदले विष न
लगे।
- विष्णु सिन्हा
दिनांक : 26.07.2010
सही वक्त पर सही आलेख!
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